कल के नायक, आज खलनायक कल के नाय,

भारतीय राजनीति की यह एक ऐसी कहानी है जिस पर भविष्य के इतिहासकार घोर अचरज करेंगे। जी-हाँ एक तरफ राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा का महत्व लगातार बढ़ता गया और वह कांग्रेस की प्रतिद्वन्दी बन गयी दूसरी तरफ दूसरी पार्टियों से एकदम अलग होने का दावा करनें वाली भाजपा बागियों की पार्टी बनती चली गयी। पार्टी से बगावत करने वाले ज्यादातर पार्टी के कामयाब सेनापति थे। जिनकी जनमानस पर अच्छी पकड़ थी। जैसे जैसे भाजपा आगे बढ़ी बदलते दौर के साथ उसके नायक खलनायक नजर आने लगे।
वह और दौर था जब उन्होंने अपने-अपने अंदाज में जांबाजी के साथ चुनावी महासमर को लड़ा और एक बहादुर सेनापति की तरह सेनाओं का नेतृत्व करते हुए जर्बदस्त जीत हासिल की थी। तब उन्होंने ऐसे-ऐसे राजनैतिक प्रतिद्वन्दी सूरमाओं को धूल चटा दी थी जिन्हें राजनीति के समरांगण में अपराजेय माना जाता था। तब वे शायद करिश्माई नेता थे और जमीनी स्तर तक के कार्यकर्ताओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी। वे हिन्दुत्व का दंम भरनें वाली भारतीय जनता पार्टी की अग्रणी टुकणी के प्रधान सेनापति थे। तब भाजपा के इन्हीं सेनापतियों के कारण कांग्रेस का पतन हुआ और इन्हीं के कारण भाजपा की सत्ता तक पहुँची। लेकिन अचानक ही ऐसा हुआ कि सब आपस में उलझ गये परिणामतः सेनापति बागी हो गए। ऐसे में क्या कर लेंगे मोदी ? जैसे भाजपा में शिखर पुरुष आडवाणी, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश में उमा भारती, दिल्ली में मदन लाल खुराना, उत्तराखण्ड में भुवन चन्द खण्डूरी, झारखण्ड, कर्नाटक एवं राजस्थान में पार्टी का कलह उफान पर है ही। खुद नरेन्द्र मोदी के गृह प्रदेश की स्थिति यह है कि भाजपा में अगर सबसे ज्यादा बगावत हुई है तो वह गुजरात ही है। ऐसे में अब यहां यह सवाल विचारणीय हो उठा है कि मोदी किन सेनापतियों के सहारे दिल्ली को फतह करने का सपना देख रहे हैं ?
उपरोक्त सच्चाई को समझने के लिए अक्टूबर-1990की ओर झाँकना होगा। दिल्ली में वीपी सिंह की सरकार नें मण्डल कमीशन के जिन्न को बंद बोतल से बाहर निकाला तो लाल कृष्ण आडवाणी नें सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा शुरु कर दी। उसी समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह सरकार नें अयोध्या में कार सेवकों पर गोलियाँ चलवा दी। इस घटना के कुछ ही महीनों के अंतराल के बाद भाजपा ने वो कर दिखाया जिसके बारे में किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में कल्याण सिंह के नेतृत्व में स्पष्ट बहुमत के साथ भाजपा राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई। तब कल्याण सिंह भाजपा के साथ-साथ हिन्दुत्व की नयी पहचान बन गए थे। यहाँ यह काबिले गौर है कि कल्याण सिंह प्रखर हिन्दूवादी जरूर थे लेकिन ब्राह्मण या उच्च जाति के योद्धा नहीं थे। उनका संबंध पिछड़ी जाति से था। पार्टी के लोगों खाशकर वर्तमान में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह एण्ड कम्पनी की खुराफाती रणनीति नें ऐसा जाल फैलाया कि - अंततः कल्याण सिंह भाजपा से ही बगावत करनें पर मजबूर हो गए। पार्टी से बगावत करनें के बाद हालात कुछ ऐसे बन गए कि भले ही कुछ ही समय के लिए सही कल्याण सिंह को किसी जमानें में अपने कट्टर राजनैतिक दुश्मन मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाने पर मजबूर हो जाना पड़ा। यहाँ यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि कल्याण सिंह का भाजपा से बागी होना भाजपा को उत्तर प्रदेश में ऐसा नुकसान पहुँचाया है जो राजनैतिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण है। इस कटु सत्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भाजपा केन्द्र की सत्ता से तब तक दूर रहेगी जब तक उत्तर प्रदेश में उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं होगा। आज कल्याण सिंह पुनः भाजपा में आ चुके हैं। बावजूद इसके आज साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश को पूरी तरह से खो दिया है।
कल्याण सिंह के बाद मध्यप्रदेश की राजनीति में भाजपा को पिछड़ी जाति से एक ऐसा नेता मिला जिसे  हिन्दुत्व का ध्वजावाहक कहा जाता है। जी हाँ बात हो रही है उमा भारती की जिन्होंने मध्यप्रदेश की राजनीति में  अपराजेय लगनें वाले दिग्विजय सिंह को ऐसी शिकस्त दी कि - भाजपा यहाँ दो तिहाई बहुमत के साथ जीती थी। शातिर रणनीतिकार और गाँधी परिवार के करीबी मानें जाने वाले दिग्विजय सिंह को इस हार से इतना गहरा सदमा लगा कि - उन्होंने अगले दस वर्षों तक सरकार में कोई भी पद लेनें और चुनाव न लड़ने की शपथ ले ली। जाहिर है कि इस जीत से पार्टी में उमा भारती का कद और ऊँचा हो गया था। मगर कुछ ही अंतराल के बाद एक ऐसा समय आ गया कि जब उमा भारती ने पार्टी के खिलाफ खुल्लम-खुल्ला बायानबाजी करनी शुरु कर दी। लेकिन शायद यहाँ भाजपा की किस्मत अच्छी रही कि - मध्य प्रदेश की राजनीति में शिवराज सिंह चौहान भी हिन्दुत्व के शक्तिशाली ध्वजा वाहक साबित हुए और 2008 के मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत हासिल हुई।
दिल्ली की भाजपाई राजनीति की कहानी कुछ और ही है। दिल्ली को राज्य का दर्जा मिलनें के बाद जब पहली बार विधानसभा के चुनाव हुए तो यहाँ भाजपा को जर्बदस्त बहुमत हासिल हुआ। दिल्ली की भाजपाई राजनीति में मदनलाल खुराना सुपार स्टार की तरह उभरे और दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने। इसमें कोई दो राय नहीं कि - खुराना दिल्ली के लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। बावजूद इसके कुछ ही दिनों के अंतराल के बाद मदनलाल खुराना की जगह साहिब सिंह वर्मा (अब स्वर्गीय) को दे दी गई। साहिब सिंह वर्मा को सत्ता संभाले अभी कुछ ही दिन बीते थे कि दिल्ली का ताज सुषमा स्वराज के सिर पर रख दिया गया। सुषमा स्वराज दिल्ली की भाजपाई राजनीति में इस कदर फेल हो गई कि उसके बाद दिल्ली की सत्ता भाजपा के लिए सपना बनकर रह गई है। जाहिर है कि पार्टी की उक्त रणनीति से खुराना इस कदर खीझ गये थे कि पार्टी से बगावत कर डाली जिसका परिणाम आज सामने है कि भाजपा अपने इस अजेयगढ़ में इस कदर टूट  गई है कि कांग्रेस यहाँ तीन बार से सत्तासीन है। इतना ही नहीं, 2009 के लोक सभा के चुनाव में यहाँ कांग्रेस के हाथों भाजपा को बुरी तरह शिकस्त खाना पड़ गयां दिल्ली की सातों सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई। दिल्ली की राजनीति में अब कहा जाता है कि - खुराना पहले वाली अपनी ताकत खों चुके हैं, तो फिर इस सच को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि -कल्याण सिंह और उमा भारती में भी पहले वाली वो धार नहीं है जिसके बल पर उन्हें वोट मिला करते थे और भाजपा चुनाव जीता करती थी।
स्मरण रहे कि उमा भारती बुन्देलखण्ड में ही अपना पहले वाला जौहर नहीं दिखा सकी।राजस्थान के मामले में इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि - 2003 में राजस्थान में भाजपा की जीत के पीछे बसन्धरा राजे सिंधिया की बहुत बड़ी भूमिका थी। इसके बावजूद अगला चुनाव आते-आते बसुंधरा पर कोई राजनीतिक हमले किए गए और उन्हें कमजोर करने की कोशिशे की गईं। और इस हमले में मुख्य भूमिका में पार्टी के तत्कालीन और वर्तमान के राष्ट्रीय अध्यक्ष यही राजनाथ सिंह ही थे जो सिंधिया को सबक सिखाना चाहते थे। पार्टी के अंदरूनी झगड़े और व्यूह रचना के बाद भी बसुंधरा बहुत कम अंतर से चुनाव हारी। फिर भी हार का ठीकरा उन्हीं के सिर पर फोड़ा गया। इसका खामियाजा पार्टी को यह उठाना पड़ा कि पाँच महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस में 25 में से 21 सींटे जीत ली। उसके बाद कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि उमा भारती की तरह बसुंधरा राजे भी भाजपा को छोड़ जाएंगी। तब सिंधिया न तो सभाओं में जाती थीं न तो जमीनी स्तर पर पार्टी के लिए काम ही करती थीं। लेकिन जल्द ही हालात सुधार लिए गए सिंधिया फिर से मुख्य भूमिका में आकर अगले साल होने वाले विधान सभा की तैयारी में जुट गई हैं।
उत्तराखण्ड में भी कुछ ऐसा ही हुआ। जहाँ खेमेवाजी, गुटवाजी के ही कारण भाजपा के हाथ से उत्तराखण्ड छिटक गया है। तथा कथित आरोपों के चलते भुवन चन्द्र खण्डूरी को उनकी लोकप्रियता और साफ छवि के बावजूद हटा दिया गया। बाद में उत्तराखण्ड विधान सभा चुनाव से कुछ ही महीनें पहले दिल्ली में बैढे भाजपा के कथित करिष्याई नेताओं को लगा कि अगर खंडूरी नही होंगे तो पार्टी की छवि को नुकसान पहुँचेगा, इसलिए उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बना दिया गया। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। परिणाम यह हुआ कि खण्डूरी खुद चुनाव हार गए तो कांग्रेस ने महज एक सीट से भाजपा को पराजित कर दिया।
अब बात गुजरात की। जिस प्रदेश में भाजपा के भीतर सबसे ज्यादा  बिद्रोह हुए हैं वह प्रदेश है गुजरात ! कभी गुजरात में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रहे शंकर सिंह बाघेका आज कांग्रेस में हैं। उनके अलावा पुराने बागी कांशीराम राणा भी हैं। वागियों की फेहरिश्त में सबसे नया नाम लिया जा सकता है पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल का। करीव एक दशक पहले केशूभाई पटेल को हटाकर उनकी जगह नरेन्द्र भाई मोदी को लाया गया था। जिन दिनों केशूभाई को हटाकर नरेन्द्र भाई मोदी के सिर पर ताज रखा गया था उन दिनों से लेकर हाल में सम्पन्न हुए राज्य विधानसभा के चुनाव के समय तक राजनैतिक विश्लेषक यह दावा करते घूम रहे थे कि अबकि बर केशूभाई नरेन्द्र भाई मोदी की राह का मजबूत रोड़ा बनेंगे लेकिन चुनावी नतीजे ने साफ कर दिया कि मोदी की आंधी में केशूभाई व उनका दल तिनके की तहर विखर गया और नरेन्द्र भाई मोदी लगातार तीसरी बार गुजरात के सत्ता पर प्रचण्ड बहुमत के साथ काबिज हो गये।
स्मरण करें कि, वर्ष 2002 में जब गोधरा का दंगा हुआ तब तथाकथित संकुलरो ने मोदी पर अल्पसंख्यकों की हत्या करवानें का आरोप लगाया उस समय माहौल कुछ इस तरह बना दिया गया था जिससे तमाम राजनैतिक विश्लेषकों को लगने लगा था कि ‘अब नेरन्द्र भाई मोदी की राजनैतिक यात्रा का अंत होने वाला है। जबकि अगर कहीकत की बात की जाए तो वस्तुतः यह घटना नरेन्द्र मोदी के राजनीति के लिए एक नई शुरूआत हुई। इस सच को तो नरेन्द्र मोदी के राजनैतिक विरोधी भी खुले मन से सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं कि नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के विकास को प्राथमिकता दी। पूँजीवादी और नव उदारवादी व्यवस्था के तर्ज पर विकास की जो परिकल्पनाएं सम्भव थी, उसे गुजरात में मोदी ने घरातक पर कर दिखाया ! नतीजा सामनें आया कि गुजरात की जनता ने नरेन्द्र भाई मोदी को लगातार तीसरी बार सिर आखों पर बिठा लिया ! बावजूद इसके जो तथा कथित सेकुलर स्वनामधन्य लोग गोधरा काण्ड के लिए सिर्फ नरेन्द्र भाई मोदी को ही जिम्मेदार मानते हैं जबकि उन लोगों को यह भी स्वीकार करना होगा कि जिस समय गोधरा काण्ड हुआ था उस समय नितीश कुमार केन्द्र में रेल मंत्री थे और जद (यू) एनडीए का अहम् घटक हुआ करता था। आज जिस तरह से नीतिश कुमार को नरेन्द्र मोदी गोधरा के खलनायक नजर आ रहे हैं उससे यह प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है कि तब नितीश या जदयू को मोदी का खलनायक वाला रूप नजर क्यों नहीं आया ? उस समय जदयू ने भाजपा से अपना रिश्ता खत्म क्यों नहीं कर लिया।
लोकसभा 2014 के चुनाव के लिए पार्टी में अपना नेता ढूँढ रही भाजपा में किस तरह एक दूसरे की काट करनें की शतरंजी चालें चली जा रही हैं वह एक मार्च 2013 से शुरू हुई भाजपा की कार्यकारिणी में सार्वजनिक हो ही गई। भारतीय जनता पार्टी की राज्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भले चासनी डुवो शब्दों से नरेन्द्र मोदी का गुणगान किया था और आगे बढ़कर सम्मान किया था उससे एक तरफ राजनाथ सिहं ने तो यह संकेत दिया कि आगामी लोकसभा चुनाव भाजपा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही लड़ेगी लेकिन पीढ में छूरा भोकने में माहिर माने जाने वाले राजनाथ सिंह ने अगले ही पल कार्यकारिणी को संवोघित करते हुए यह कहना नही भूले कि पार्टी के अन्दर आडवाणी में ही वह ताकत है जो कि पार्टी का मार्ग दर्शन कर सकते हैं। वतौर पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह नें ‘मोदी ज्वार’ के बीच नरेन्द्र मोदी को बड़ी सफाई से किनारे करके आडवाणी को शायद साधने की कोशिका की है।
कार्यकारिणी में आडवाणी की तारीफ करते हुए राजनाथ सिंह बड़ी सफाई से आडवाणी की उन कमजोरियों को छुपा ले गए जो आडवाणी को ‘एक दगा हुआ कारतूस’ सावित करनें के लिए मर्याप्त है। यहाँ यह गौरतलब है कि 2009 का लोकसभा चुनाव भाजपा ने आडवाणी के रथ पर सवार होकर लड़ा था। लेकिन इससे पार्टी को पूर्व चुनाव की तुलना में खासा नुकसान उठाना पड़ा था। ज्ञात रहे कि 2004 के लोकसभा चुनाव में जहाँ भाजपा को 138 सीटें मिली थी वही 2009 के चुनाव में घटकर सदस्यों की संख्या 116 पर कार्यकारिणी में आडवाणी की तारीफ करते हुए राजनाथ सिंह बड़ी सफाई से आडवाणी की उन कमजोरियों को छुपा ले गए जो आडवाणी को ‘एक दगा हुआ कारतूस’ सावित करनें के लिए पर्याप्त है। यहाँ यह गौरतलब है कि 2009 का लोकसभा चुनाव भाजपा ने आडवाणी के रथ पर सवार होकर लड़ा था। लेकिन इससे पार्टी को पूर्व चुनाव की तुलना में खासा नुकशान उठाना पड़ा था। ज्ञात रहे कि 2004 के लोकसभा चुनाव में जहाँ भाजपा को 138 सीटें मिली थी वही 2009 के चुनाव में घटकर सदस्यों की संख्या 116 पर आ गई। 2009 के इस चुनावी नतीजे पर तब आर. एस. एस. के मुखपत्र ‘पाण्चजन्य’ नें 2009 के चुनाव में भाजपा की हार के लिए न सिर्फ आडवाणी को जिम्मेदार ढहराया बल्कि इसमें यहाँ तक कहा गया था कि ‘आडवाणी को देश के प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना और पूरे चुनाव अभियान को आडवाणी के इर्द-गिर्द केन्द्रित कर देना बहुत बड़ी भूल थी’। फिर अस्सी साल की उम्र को पार कर चुके लाल कृष्ण आडवाणी यूँ तो पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही सार्वजनिक रूप से घोषणा कर चुके हैं कि 2014 के लोक सभा चुनाव में वे उम्मीदवार नही होगे। बावजूद इसके नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करते ही आडवाणी बुरी तरह से विफर गये हैं तो वहीं भारतीय जनता पार्टी इस मुगालते में आ चुकी है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित किये जाने से अब केन्द्र की सत्ता पर आसानी से काबिज हुआ जा सकता है, जबकि सच्चाई यह है कि चुनाव बाद भाजपा सिर्फ और सिर्फ सर पीटती नजर आएगी क्योंकि वह दिल्ली की सत्ता से बहुत दूर होगी।

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