
https://tehalkatodayindia.blogspot.com/2010/10/6-1992-1949-6-1992-500-4-2005-1980-1984.html
न्याय के आंखों पर हिन्दुत्ववादी पट्टी
आनंद स्वरूप वर्मा
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के फैसले ने मुस्लिम समुदाय
को कहीं भीतर से तोड़ दिया है। हालांकि उसने अपने इस दर्द को उग्र बयानों के जरिये भी जाहिर नहीं किया। राम मंदिर के मुद्दे को पिछले दो दशक से भी अधिक समय से राजनीतिक लाभ के लिए भुनाने में लगी भाजपा सहित ढेर सारी हिंदुत्ववादी ताकतों ने भी हर बार की तरह लड्डू खाकर/खिलाकर जश्न नहीं मनाया। वैसे देखा जाए, तो दोनों पक्षों ने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने में परिपक्वता का परिचय दिया है। राम मंदिर समर्थकों को उम्मीद नहीं थी कि उन्हें इतना मिल जाएगा।
शायद यही वजह है कि जब भी अदालत की बात होती थी, उनके छोटे बड़े नेता यही कहते थे कि यह आस्था का सवाल है, जिसे अदालतें नहीं हल कर सकतीं। वे कहते थे कि सबसे बड़ी अदालत जनता की अदालत है। जाहिर है कि जनता से उनका आशय उस भीड़ से होता था, जिसने 6 दिसंबर 1992 को तांडव किया था और बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद अब इनके सभी नेता अदालत के प्रति अपना सम्मान जाहिर करने में किसी तरह की कोताही नहीं बरत रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस बात पर खुशी जाहिर की कि ‘कानून ने ही आस्था का अनुमोदन किया है।’
सचमुच कानून ने आस्था का अनुमोदन किया है। इस फैसले ने कुछ ऐसे सवाल खड़े किये हैं, जो आने वाले दिनों के लिए बहुत खतरनाक नजीर बन सकते हैं। विद्वान न्यायाधीशों ने किस आधार पर यह तय किया कि अमुक जगह राम का जन्म हुआ था? उन्होंने किस आधार पर यह तय किया कि सीता की रसोई अमुक जगह पर थी? अदालत की जानकारी में जब प्रमाण सहित यह तथ्य मौजूद था कि 1949 में बाबरी मस्जिद के गेट को तोड़ कर चोरी-छुपे वहां राम की मूर्तिया रखी गयीं तो फैसला देते समय इस तथ्य की क्यों अनदेखी की गयी? इस दृष्टि से क्या अदालत 6 दिसंबर 1992 को 500 साल पुरानी ऐतिहासिक इमारत, जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था, ध्वस्त करने की घटना को उचित नहीं साबित कर रही है? क्या अब देश की अदालतें साक्ष्यों और प्रमाणों को दरकिनार कर भावनाओं और आस्थाओं के आधार पर निर्णय देंगी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो भविष्य के लिए अत्यंत खतरनाक संदेश देते हैं हालांकि इस तरह के फैसले से हम पहले भी एकाधिक मामलों में रूबरू हो चुके हैं।
यहां संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी की सजा देते समय उच्चतम न्यायालय के फैसले का उल्लेख प्रासंगिक होगा। फैसले में न्यायाधीशों ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि अफजल गुरु का संबंध किसी आतंकवादी संगठन अथवा आतंकवादी समूह से था। संसद पर हमले से संबद्ध होने के केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण उपलब्ध हैं। 4 अगस्त 2005 के इस फैसले में कहा गया है कि ‘समाज के सामूहिक विवेक’ (कलेक्टिव कोनसाइंस ऑफ दि सोसाइटी) को संतुष्ट करने के लिए मृत्युदंड देना जरूरी है। मृत्युदंड कठोरतम सजा है और ऐसे मामले में अगर साक्ष्यों और प्रमाणों को आधार न बना कर ‘समाज के सामूहिक विवेक’ को आधार बनाया जा रहा हो, तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के पीछे क्या न्यायाधीशों के अंदर बैठी वह हिंदुत्ववादी सोच थी, जिसने न्याय की आंख पर पट्टी बांध दी थी? यह सब जानते हुए भी व्यापक मुस्लिम समुदाय अगर चुप रहा तो यह मान कर कि इस देश में अब उसकी नियति यही है। उसने मान लिया कि अगर चैन से रहना है, तो खुद को दोयम दर्जे की नागरिकता के कड़वे यथार्थ को आत्मसात करना सीखना होगा। खुद को तसल्ली देने के लिए उसने तरह-तरह के बहाने गढ़े। मसलन अगर यह मसला खत्म हो जाए, तो सुकून मिले, हिंसा फैली तो आम मुसलमान ही मारा जाएगा, बेरोजगारी और भूख की समस्या मजहबी जुनून से बड़ी समस्या है वगैरह वगैरह।
1980 में जब स्वर्गीय इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आयीं तो उन्होंने पुराने भारतीय जनसंघ के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए सांप्रदायिकता की बैसाखी का सहारा लिया। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टॉर, 1986 में राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलने से लेकर 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा और फिर 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक भारतीय समाज को प्रतिगामी बनाने तथा भारतीय राजनीति का सांप्रदायीकरण करने में कांग्रेस और भाजपा दोनों ने बराबर की भूमिका निभायी। अगर कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को अपना दार्शनिक आधार बनाकर समय समय पर ‘कम्युनल कार्ड’ खेला तो भाजपा और संघ परिवार ने सांप्रदायिकता और एकात्मक राज्य प्रणाली को अपना दार्शनिक आधार बनाकर समय समय पर बहुलतावादी और जनतांत्रिक होने का दिखावा किया। दोनों स्थितियों में अपनी इन रणनीतियों का इस्तेमाल चुनावी फायदे के लिए किया गया और जनता इसके भुलावे में फंसती चली गयी। आज जब मुलायम सिंह यादव कह रहे हैं कि इलाहाबाद फैसले से मुसलमानों को धोखा हुआ है तो उनकी बात को सच मानते हुए भी मुस्लिम समुदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे इत्तफाक करना नहीं चाहता। उसे यकीन ही नहीं हो रहा है कि कोई राजनेता सचमुच उसके दर्द से दुखी है।
यह एक खतरनाक स्थिति है। अगर देश के 15-16 करोड़ मुसलमान खुद को दोयम दर्जे का नागरिक महसूस करने के लिए मजबूर कर दिये जाएं तो यह किसी भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। हिंदुत्ववादियों की जमात इस स्थिति से जरूर खुश होगी क्योंकि अल्पसंख्यकों की समस्या से निबटने के लिए उनके आदि सिद्धांतकार एमएस गोलवलकर ने 1939 में ही जो तरीके बताये थे उसके कुछ नतीजे दिखायी देने लगे हैं। अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ के पांचवें अध्याय में उन्होंने मुसलमानों को बाहर से आकर बसी आबादी मानते हुए कहा था कि उन्हें यहां आबादी की मुख्यधारा में अर्थात राष्ट्रीय नस्ल के साथ पूरी तरह समाहित हो जाना चाहिए। ‘यहां की भाषा और संस्कृति को अपना लेना चाहिए। यहां के लोगों की आकांक्षाओं में हिस्सेदारी करनी चाहिए और इसके लिए उन्हें अपने पृथक अस्तित्व की चेतना को छोड़ना होगा, अपने विदेशी मूल को भुलाना होगा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें महज एक बाहरी व्यक्ति के रूप में रहने का अधिकार होगा, राष्ट्र की सभी संहिताओं और समझौतों का पालन करना होगा, अधिकारों अथवा विशेषाधिकारों की तो बात ही छोड़िए, उन्हें किसी तरह का विशेष संरक्षण भी नहीं प्राप्त होगा। विदेशी तत्वों के सामने केवल दो ही रास्ते हैं – या तो वे राष्ट्रीय नस्ल के साथ अपने को पूरी तरह मिला लें और उसकी संस्कृति को अपना लें या जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें भारत में अनुमति दे तब तक उनकी दया पर निर्भर होकर रहें।’
गोलवलकर हिंदुत्ववादी संगठनों में गुरुजी के नाम से जाने जाते हैं और उनकी स्थापनाओं को काफी सम्मान दिया जाता है। कश्मीर हो या उत्तर पूर्व का कोई राज्य – राष्ट्रीयता के सवाल पर, अल्पसंख्यकों के सवाल पर अथवा आदिवासियों की अस्मिता के सवाल पर हर जगह हिंदुत्ववादियों को गुरुजी का फॉर्मूला याद रहता है। उन्हें यह सम्मान इसलिए प्राप्त है क्योंकि संघ कबीले को लगता है कि अल्पसंख्यकों की समस्या की कुंजी उनके पास है, जिसे वे आज इस इक्कीसवीं सदी में भी कारगर मानते हैं। गुरुजी तो अल्पसंख्यकों के नागरिक होने के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं। अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने कहा है कि ‘हिंदुस्तान में विदेशी नस्लों को चाहिए कि वे हिंदू संस्कृति और भाषा को अपना लें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीखें, हिंदू नस्ल और संस्कृति अर्थात हिंदू राष्ट्र को गौरवान्वित करने वाले विचारों के अलावा और किसी भी विचार को अपने यहां स्थान न दें और हिंदू नस्ल में शामिल होने के लिए अपने प्रथम अस्तित्व को भूल जाएं अथवा देश में अगर रहें तो पूरी तरह हिंदू राष्ट्र के अधीन बनकर रहें, जिसमें उनका कोई दावा न हो, उन्हें किसी तरह की सुविधा न मिले, विशेष व्यवहार की तो बात ही छोड़ दें। यहां तक कि उन्हें नागरिक होने का भी अधिकार न मिले। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं और हमें विदेशी नस्लों के साथ, जिन्होंने रहने के लिए हमारे देश को चुना है, वैसा ही बर्ताव करना चाहिए जैसा कोई प्राचीन राष्ट्र करता है।’
क्या यह माना जाए कि यहां के एक बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को अब न्यायालय भी इस बात का एहसास कराने में लग गये हैं कि इस देश में उनकी क्या हैसियत होनी चाहिए? क्या सांप्रदायिकता का जो वायरस राजनीतिक पार्टियों, राजनीतिक समूहों, मीडिया में तेजी से फैलता चला गया, वह अब न्यायतंत्र को भी खोखला करने में लग गया है? इलाहाबाद फैसले से भाजपा नेताओं के चेहरे पर जो उल्लास छुपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद छलक आ रहा है, उसके पीछे कहीं यह आश्वस्ति तो नहीं है कि यह फैसला आने वाले दिनों में बाबरी मस्जिद ध्वस्त करने वाले अपराधियों के पक्ष में फैसला लाने में मददगार साबित होगा? अगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय 1949 में मंदिर में मूर्ति रखी जाने वाली घटना को या 1992 में बाबरी मस्जिद गिराये जाने की घटना को अपराध नहीं मानता तो जाहिर है कि आने वाले दिनों के फैसले न केवल आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती आदि के लिए वरदान साबित होंगे बल्कि ‘काशी-मथुरा बाकी है’ नारे को आगे ले जाने में भी मददगार ही साबित होंगे। मुस्लिम समुदाय अगर इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील करता भी है तो ऐसा लगता है कि उसे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इलाहाबाद का फैसला निश्चय ही एक विचारणीय फैसला है – उन सबके लिए जो बहुलतावादी सामाजिक ढांचे को मजबूत बनाने में यकीन रखते हैं।
(समकालीन तीसरी दुनिया के लिए लिखा गया आनंद स्वरूप वर्मा का संपादकीय.)
आनंद स्वरूप वर्मा
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के फैसले ने मुस्लिम समुदाय
को कहीं भीतर से तोड़ दिया है। हालांकि उसने अपने इस दर्द को उग्र बयानों के जरिये भी जाहिर नहीं किया। राम मंदिर के मुद्दे को पिछले दो दशक से भी अधिक समय से राजनीतिक लाभ के लिए भुनाने में लगी भाजपा सहित ढेर सारी हिंदुत्ववादी ताकतों ने भी हर बार की तरह लड्डू खाकर/खिलाकर जश्न नहीं मनाया। वैसे देखा जाए, तो दोनों पक्षों ने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने में परिपक्वता का परिचय दिया है। राम मंदिर समर्थकों को उम्मीद नहीं थी कि उन्हें इतना मिल जाएगा।
शायद यही वजह है कि जब भी अदालत की बात होती थी, उनके छोटे बड़े नेता यही कहते थे कि यह आस्था का सवाल है, जिसे अदालतें नहीं हल कर सकतीं। वे कहते थे कि सबसे बड़ी अदालत जनता की अदालत है। जाहिर है कि जनता से उनका आशय उस भीड़ से होता था, जिसने 6 दिसंबर 1992 को तांडव किया था और बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद अब इनके सभी नेता अदालत के प्रति अपना सम्मान जाहिर करने में किसी तरह की कोताही नहीं बरत रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस बात पर खुशी जाहिर की कि ‘कानून ने ही आस्था का अनुमोदन किया है।’
सचमुच कानून ने आस्था का अनुमोदन किया है। इस फैसले ने कुछ ऐसे सवाल खड़े किये हैं, जो आने वाले दिनों के लिए बहुत खतरनाक नजीर बन सकते हैं। विद्वान न्यायाधीशों ने किस आधार पर यह तय किया कि अमुक जगह राम का जन्म हुआ था? उन्होंने किस आधार पर यह तय किया कि सीता की रसोई अमुक जगह पर थी? अदालत की जानकारी में जब प्रमाण सहित यह तथ्य मौजूद था कि 1949 में बाबरी मस्जिद के गेट को तोड़ कर चोरी-छुपे वहां राम की मूर्तिया रखी गयीं तो फैसला देते समय इस तथ्य की क्यों अनदेखी की गयी? इस दृष्टि से क्या अदालत 6 दिसंबर 1992 को 500 साल पुरानी ऐतिहासिक इमारत, जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था, ध्वस्त करने की घटना को उचित नहीं साबित कर रही है? क्या अब देश की अदालतें साक्ष्यों और प्रमाणों को दरकिनार कर भावनाओं और आस्थाओं के आधार पर निर्णय देंगी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो भविष्य के लिए अत्यंत खतरनाक संदेश देते हैं हालांकि इस तरह के फैसले से हम पहले भी एकाधिक मामलों में रूबरू हो चुके हैं।
यहां संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी की सजा देते समय उच्चतम न्यायालय के फैसले का उल्लेख प्रासंगिक होगा। फैसले में न्यायाधीशों ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि अफजल गुरु का संबंध किसी आतंकवादी संगठन अथवा आतंकवादी समूह से था। संसद पर हमले से संबद्ध होने के केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण उपलब्ध हैं। 4 अगस्त 2005 के इस फैसले में कहा गया है कि ‘समाज के सामूहिक विवेक’ (कलेक्टिव कोनसाइंस ऑफ दि सोसाइटी) को संतुष्ट करने के लिए मृत्युदंड देना जरूरी है। मृत्युदंड कठोरतम सजा है और ऐसे मामले में अगर साक्ष्यों और प्रमाणों को आधार न बना कर ‘समाज के सामूहिक विवेक’ को आधार बनाया जा रहा हो, तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के पीछे क्या न्यायाधीशों के अंदर बैठी वह हिंदुत्ववादी सोच थी, जिसने न्याय की आंख पर पट्टी बांध दी थी? यह सब जानते हुए भी व्यापक मुस्लिम समुदाय अगर चुप रहा तो यह मान कर कि इस देश में अब उसकी नियति यही है। उसने मान लिया कि अगर चैन से रहना है, तो खुद को दोयम दर्जे की नागरिकता के कड़वे यथार्थ को आत्मसात करना सीखना होगा। खुद को तसल्ली देने के लिए उसने तरह-तरह के बहाने गढ़े। मसलन अगर यह मसला खत्म हो जाए, तो सुकून मिले, हिंसा फैली तो आम मुसलमान ही मारा जाएगा, बेरोजगारी और भूख की समस्या मजहबी जुनून से बड़ी समस्या है वगैरह वगैरह।
1980 में जब स्वर्गीय इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आयीं तो उन्होंने पुराने भारतीय जनसंघ के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए सांप्रदायिकता की बैसाखी का सहारा लिया। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टॉर, 1986 में राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलने से लेकर 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा और फिर 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक भारतीय समाज को प्रतिगामी बनाने तथा भारतीय राजनीति का सांप्रदायीकरण करने में कांग्रेस और भाजपा दोनों ने बराबर की भूमिका निभायी। अगर कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को अपना दार्शनिक आधार बनाकर समय समय पर ‘कम्युनल कार्ड’ खेला तो भाजपा और संघ परिवार ने सांप्रदायिकता और एकात्मक राज्य प्रणाली को अपना दार्शनिक आधार बनाकर समय समय पर बहुलतावादी और जनतांत्रिक होने का दिखावा किया। दोनों स्थितियों में अपनी इन रणनीतियों का इस्तेमाल चुनावी फायदे के लिए किया गया और जनता इसके भुलावे में फंसती चली गयी। आज जब मुलायम सिंह यादव कह रहे हैं कि इलाहाबाद फैसले से मुसलमानों को धोखा हुआ है तो उनकी बात को सच मानते हुए भी मुस्लिम समुदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे इत्तफाक करना नहीं चाहता। उसे यकीन ही नहीं हो रहा है कि कोई राजनेता सचमुच उसके दर्द से दुखी है।
यह एक खतरनाक स्थिति है। अगर देश के 15-16 करोड़ मुसलमान खुद को दोयम दर्जे का नागरिक महसूस करने के लिए मजबूर कर दिये जाएं तो यह किसी भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। हिंदुत्ववादियों की जमात इस स्थिति से जरूर खुश होगी क्योंकि अल्पसंख्यकों की समस्या से निबटने के लिए उनके आदि सिद्धांतकार एमएस गोलवलकर ने 1939 में ही जो तरीके बताये थे उसके कुछ नतीजे दिखायी देने लगे हैं। अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ के पांचवें अध्याय में उन्होंने मुसलमानों को बाहर से आकर बसी आबादी मानते हुए कहा था कि उन्हें यहां आबादी की मुख्यधारा में अर्थात राष्ट्रीय नस्ल के साथ पूरी तरह समाहित हो जाना चाहिए। ‘यहां की भाषा और संस्कृति को अपना लेना चाहिए। यहां के लोगों की आकांक्षाओं में हिस्सेदारी करनी चाहिए और इसके लिए उन्हें अपने पृथक अस्तित्व की चेतना को छोड़ना होगा, अपने विदेशी मूल को भुलाना होगा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें महज एक बाहरी व्यक्ति के रूप में रहने का अधिकार होगा, राष्ट्र की सभी संहिताओं और समझौतों का पालन करना होगा, अधिकारों अथवा विशेषाधिकारों की तो बात ही छोड़िए, उन्हें किसी तरह का विशेष संरक्षण भी नहीं प्राप्त होगा। विदेशी तत्वों के सामने केवल दो ही रास्ते हैं – या तो वे राष्ट्रीय नस्ल के साथ अपने को पूरी तरह मिला लें और उसकी संस्कृति को अपना लें या जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें भारत में अनुमति दे तब तक उनकी दया पर निर्भर होकर रहें।’
गोलवलकर हिंदुत्ववादी संगठनों में गुरुजी के नाम से जाने जाते हैं और उनकी स्थापनाओं को काफी सम्मान दिया जाता है। कश्मीर हो या उत्तर पूर्व का कोई राज्य – राष्ट्रीयता के सवाल पर, अल्पसंख्यकों के सवाल पर अथवा आदिवासियों की अस्मिता के सवाल पर हर जगह हिंदुत्ववादियों को गुरुजी का फॉर्मूला याद रहता है। उन्हें यह सम्मान इसलिए प्राप्त है क्योंकि संघ कबीले को लगता है कि अल्पसंख्यकों की समस्या की कुंजी उनके पास है, जिसे वे आज इस इक्कीसवीं सदी में भी कारगर मानते हैं। गुरुजी तो अल्पसंख्यकों के नागरिक होने के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं। अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने कहा है कि ‘हिंदुस्तान में विदेशी नस्लों को चाहिए कि वे हिंदू संस्कृति और भाषा को अपना लें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीखें, हिंदू नस्ल और संस्कृति अर्थात हिंदू राष्ट्र को गौरवान्वित करने वाले विचारों के अलावा और किसी भी विचार को अपने यहां स्थान न दें और हिंदू नस्ल में शामिल होने के लिए अपने प्रथम अस्तित्व को भूल जाएं अथवा देश में अगर रहें तो पूरी तरह हिंदू राष्ट्र के अधीन बनकर रहें, जिसमें उनका कोई दावा न हो, उन्हें किसी तरह की सुविधा न मिले, विशेष व्यवहार की तो बात ही छोड़ दें। यहां तक कि उन्हें नागरिक होने का भी अधिकार न मिले। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं और हमें विदेशी नस्लों के साथ, जिन्होंने रहने के लिए हमारे देश को चुना है, वैसा ही बर्ताव करना चाहिए जैसा कोई प्राचीन राष्ट्र करता है।’
क्या यह माना जाए कि यहां के एक बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को अब न्यायालय भी इस बात का एहसास कराने में लग गये हैं कि इस देश में उनकी क्या हैसियत होनी चाहिए? क्या सांप्रदायिकता का जो वायरस राजनीतिक पार्टियों, राजनीतिक समूहों, मीडिया में तेजी से फैलता चला गया, वह अब न्यायतंत्र को भी खोखला करने में लग गया है? इलाहाबाद फैसले से भाजपा नेताओं के चेहरे पर जो उल्लास छुपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद छलक आ रहा है, उसके पीछे कहीं यह आश्वस्ति तो नहीं है कि यह फैसला आने वाले दिनों में बाबरी मस्जिद ध्वस्त करने वाले अपराधियों के पक्ष में फैसला लाने में मददगार साबित होगा? अगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय 1949 में मंदिर में मूर्ति रखी जाने वाली घटना को या 1992 में बाबरी मस्जिद गिराये जाने की घटना को अपराध नहीं मानता तो जाहिर है कि आने वाले दिनों के फैसले न केवल आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती आदि के लिए वरदान साबित होंगे बल्कि ‘काशी-मथुरा बाकी है’ नारे को आगे ले जाने में भी मददगार ही साबित होंगे। मुस्लिम समुदाय अगर इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील करता भी है तो ऐसा लगता है कि उसे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इलाहाबाद का फैसला निश्चय ही एक विचारणीय फैसला है – उन सबके लिए जो बहुलतावादी सामाजिक ढांचे को मजबूत बनाने में यकीन रखते हैं।
(समकालीन तीसरी दुनिया के लिए लिखा गया आनंद स्वरूप वर्मा का संपादकीय.)