कल के राजा, नज़रों से ओझल,बीजेपी का उमा से मोहभंग?

  • टीकमगढ़ स्थित उमा भारती का घर

टीकमगढ़ स्थित उमा भारती के घर के बाहर चुनावी माहौल में भी पसरा सन्नाटा काफ़ी कुछ बयां कर देता है
नब्बे के दशक में हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाली भाजपा नेता और मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती आज शायद एक या दो सीट तक सिमट कर रह गईं हैं.
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव पर नज़र रखने वाले सभी लोगों के मन में ये सवाल भी उठ रहें हैं कि इन चुनावों पर उमा भारती का क्या असर होगा.
पार्टी में उनकी दोबारा वापसी के कारण पार्टी को लाभ मिलेगा या मौजूदा 
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मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से उनके जग-ज़ाहिर मतभेद के कारण उलटे पार्टी को नुक़सान होगा.

और इन नफ़ा-नुक़सान के बीच इस चुनाव के बाद ख़ुद उमा भारती का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, ये सवाल भी शायद उतना ही अहम है.
राजनीति पर थोड़ी सी भी नज़र रखने वालों को आज भी याद है किस तरह से साल 2006 में उमा भारती लाइव प्रसारण हो रहे पार्टी की एक बैठक में लालकृष्ण आडवाणी से लड़-झगड़कर चलीं गईं थीं. उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया था.
उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और नाम रखा भारतीय जनशक्ति पार्टी लेकिन अफ़सोस कि 2008 के मध्यप्रदेश चुनाव में उनकी पार्टी को बहुत कम भारतीयों की शक्ति मिल सकी और उनकी पार्टी वैसे तो पांच सीट जीतने में सफल रही लेकिन टीकमगढ़ से ख़ुद अपना चुनाव हार गईं.

शिवराज की 'मेहरबानी'

शिवराज सिंह चौहान

मध्यप्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वाले इसे उस समय मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान की 'मेहरबानी' क़रार देते हैं.
काफ़ी हुज्जत के बाद 2011 में पार्टी में उनकी दोबारा वापसी हुई और पार्टी ने न जाने क्या सोचते हुए 2012 में हुए उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में उमा भारती को आगे कर दिया.
उन्होंने विधानसभा चुनाव भी लड़ा, जीत भी गईं लेकिन न पार्टी कुछ कर सकी और न उमा भारती. 2007 के मुक़ाबले भाजपा की सीटें उत्तरप्रदेश में कम हो गईं.
टीकमगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र अधवर्यु कहते हैं कि उमा भारती पार्टी में वापस तो आ गईं लेकिन उनके और प्रदेश के नेताओं के दिल नहीं मिल सके.
राजेंद्र अधवर्यु कहते हैं, ''मुख्यमंत्री और दूसरे मंत्रियों तथा कुछ नेताओं ने उमा भारती को दिल से स्वीकार नहीं किया है. टिकट बंटवारे में उनकी उपेक्षा जानबूझकर की गई है.''

नफ़ा-नुक़सान

शिवराज सिंह चौहान

उमा भारती की कथित उपेक्षा अगर मान भी ली जाए तो सवाल ये है कि उनकी वापसी पर क्या भाजपा को कोई चुनावी लाभ मिलेगा?
पेशे से वकील और बुंदेलखंड इलाक़े की राजनीति पर नज़र रखने वाले एडवोकेट मानवेंद्र सिंह चौहान कहते हैं कि उनके आने से भाजपा को ज़रुर लाभ होगा.
चौहान कहते हैं, ''पिछले चुनावों में उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी को जो भी वोट मिले थे, वे सारे के सारे दरअसल भाजपा के ही वोट थे. इसलिए उनकी घर वापसी का सीधा लाभ पार्टी को मिलेगा.''
इस चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर उमा भारती की नाराज़गी के बारे में जानकार कहते हैं कि उन्हें केवल दो सीटें दी गईं हैं. एक टीकमगढ़ ज़िले की खरगापुर सीट जहां से उमा भारती के सगे भतीजे राहुल सिंह चुनाव लड़ रहे हैं.
दूसरी सीट शिवपुरी ज़िले में उनके क़रीबी को दी गई है.
चुनावों पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि खरगापुर सीट पर उनके भतीजे को काफ़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है और इसके लिए अंदरूनी राजनीति को कारण बताया जा रहा है.

समर्थकों में रोष

समर्थक

उमा भारती जैसे व्यक्तित्व के मालिक को अगर सिर्फ़ दो सीटें दी गईं हैं, वो भी उस प्रदेश में जहां की वो मुख्यमंत्री रह चुकी हैं तो उनके समर्थकों में रोष होना तो लाज़िमी है.
एडवोकेट मानवेंद्र सिंह चौहान के अनुसार भाजपा नेतृत्व को ऐसा फ़ैसला करने से पहले उसके परिणाम का भी अंदाज़ा होगा, इसलिए ज़ाहिर है उन्होंने इसका कोई हल भी तलाश लिया होगा.
लेकिन राजेंद्र अधवर्यु का मानना है कि इस कारण भाजपा को नुक़सान उठाना पड़ सकता है.
वो कहते हैं कि भाजपा का उनसे मोह ख़त्म है और उनका पार्टी के मध्यप्रदेश के नेताओं से मोह ख़त्म है.
राजेंद्र अधवर्यु कहते हैं, ''लोधी बिरादरी के वोटों को भाजपा की तरफ़ लाने के लिए वो जानबूझकर कोई ज़्यादा प्रयास नहीं कर रहीं हैं. उन्होंने अपने समर्थकों को आज़ाद छोड़ दिया है कि वो जहां चाहें वोट दें.''

उमा भारती पार्टी को कितना फ़ायदा पहुंचाएंगी और कितना नुक़सान, ये आठ दिसंबर को ही पता चलेगा, लेकिन राजनीति की ये भी अजीब विडंबना है कि कभी भाजपा की शीर्ष नेताओं में गिनी जाने वाली उमा भारती की राजनीतिक हैसियत आज अपने ही प्रदेश में दो-एक सीटों तक सिमट कर रह गई है.

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