जौहर से आज़म तक-1

अब्बास अली  जैदी रुश्दी
१४  अगस्त १९४७ तारिख ए हिंद का वह दिन  है  जिसको  याद  कर  आज  भी  आँख  नम  हो  जाती   हैं ,  मुल्क  को  तकसीम  कर  एक नया  मुल्क  तामीर  हुआ और  अगले  दिन  १५  अगस्त  को  आज़ाद  मुल्क  की   दहलीज़  पर  क़दम  रखते  ही  एक कौम ने अपने सफ़र ए  नौ  का  अगाज  किया  एक  इत्मिनान  था  की  न सही  ज्यादा  तो  कुछ  कम ही सही  हर  मरहले  पर  हमें  इन्साफ  मिलेगा  वह  चाहे  हिफाज़त  हो  या  रोज़गार  या  तालीम  .....
अहिस्ता  अहिस्ता  सफ़ेद  शफ्फाफ  चादरों  में  लिपटी  सियासी  बातों  की  परत  दर  परत  उतरती  रही   और  चंद   ही  क़दमो  पर  अहसास  हो  गया  हिंद  से  बेपनाह  मोहब्बत  रखने  वाले  मुसलमानों की  चादर  के  नीचे  की  सियासत  का  जिस्म  सिर्फ  बदसूरत  ही  नहीं  खौफनाक  भी  है  ...... वोह  जो  पीछे   छोड़   आये   थे   अपने  निस्फ    कुनबे   को  अपने  खून के   रिश्तों   को  उनके   पास  सिवाए  अल्लाह  की  ज़ात  ए  पाक  के  कोई  सहारा  नहीं  था  .... जिस  तरफ  भी  निगाह  डालते  गुबार  ही  गुबार  नज़र  आता  .ऐसे  हालात  में  उम्मीद  की  एक  नाज़ुक  सी  डोर  के  सहारे  चलने  के  सिवाए  रास्ता  भी  कोई  नज़र  नहीं  आ  रहा था  , ऐसा  कोई  था  नहीं  की  जो  सियासत  को  यह  याद  दिलाता  की  हम  तेरे  वादे  के  सहारे  खुद  की  ज़मीन  से  रिश्ते  को  कायम  रखने  वाले  लोग  हैं ......  बहुत  जल्द  ही  अहसास  हुआ  की  कयादत  क्या  होती  है  जब  जम्हूरियत  में  भी  तादाद  की  निगाहों  से  हमें  देखा  जाने  लगा  ... हर  तरफ  एक  ही  तज्किराह  था  क्या  मौलाना  हसरत  मोहनी  , अल्लामा  फजल  ए  हक  खैराबादी मौलाना  मोहम्मद  अली  जोहर  खान अब्दुल  गफ्फर  खान, शहीद अशफाक उल्लाह जैसों  की  ज़मीन  पर  उनके  ही  कौम  का  कोई  ऐसा  सियासी  सहारा  नहीं  होगा  जो  हक  को  हक  मनवाकर  हासिल  करके  हमें  दे  सके  ????
उस   वक़्त  न  जाने  किस  परेशान  हांल  दिल  की  आवाज़  ओ  दुआ  बारगाह  ए  इलाही  में  कुबूलियत  का  दर्जा  हासिल  कर  गयी  और  ठीक  आजादी  के  पहले  साल  मुकम्मल  होने  से  एक  शब्  पहले  १४  अगस्त    १९४८  को  हिन्दुस्तान  का  दिल  कहलाने  वाली   दिल्ली   के  करीब  शहर  रामपुर  में  से  एक  रौशनी  के  सफ़र  का  आग़ाज़  हुआ  और  आने  वाले  चंद  सालों  में  ही  उसे  लोगों  ने  आज़म  के  नाम  से  जानना  शुरू   किया .....
अपने  इब्तिदाई  दौर  से  ही  आजम   यह  जानते  थे  की  ख़ामोशी  इस  मुल्क  में   हथियार  नहीं  लानत  ही  साबित  होगी  ... मुल्क  आजादी  की  खुली  फिजाओं  में  अपनी  नयी  फिजाओं  में  सांस   ले  रहा  था  और  वहीं  दूसरी  तरफ  परवरिश  पा  रही  थी  एक  ऐसी  कयादत  जो  आने  वाले  वक़्त  में  न  मालूम  अंदाज़  में  पूरे  मुल्क  की  सियासत  को  इन्साफ  के  कटघरे  में  खड़ा  करने  वाली  थी  .....जिसको  शायद   हर  क़दम  यह  यकीन  था  की  उसके   वजूद  का  मकसद  अहले  खाना  की  ख्वाहिशों  से  कहीं  ऊपर  एक  बलंद  मक़ाम  तक  उनकी  आवाज़  लेकर  जाना  है  जिनकी  चीख  और  पुकार  सुनकर  भी  हुक्मरान  नज़र  अंदाज़   करने  लगे  थे  .... शुरू  से  ही  एक  ज़िम्मेदार  बचपन  एक  बेहतरीन  बा  कैद  जवानी  में  क़दम  रखते  की  आस   पास  से  होकर  यह  नाम  अपनी  बस्ती  से   होता  हुआ  धीरे  धीरे  पूरे  सूबे   में  सुना  जाने  लगा  .. बे  बाक  तरीके  से  हक  की  पैरवी  , जाराहना  अंदाज़  , बेहतरीन  खिताबत , बलंद  किरदार , दीन  से  ज़बरदस्त  लगाओ  के  चलते  उनको  लोग  अलीगढ  में  एक  इज्ज़त  की  निगाह  से   देखने  लगे  और  यहाँ  से  शुरू  हुआ  मज़बूत  कयादत   तैयार   होने  का  सफ़र  ..... तलबाओं  के  हालत  और  उनमें  सुधार  को  लेकर  कभी  कभी  हालात  अंदूरूनी निजाम  से  टकराव  के  हो  जाते  तो  लोगों  को   समझाना  आसान  लेकिन  अपने  अहद  के  पक्के  आजम  को  कायल  करना  मुश्किल  हो  जाता  था  . शायद  सियासत  और  यह   खुद  एक  दूसरे  के  लिए  ही  बने  थे  और  जल्द  इसका  सबूत  भी  लोगों  को  मिल  गया  जब  आजम  साहब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सिक्रेट्री मुन्तखब  हुए ...
आम  आदमी  , ग़रीब  , मजदूर  , नौजवानों  की  लड़ाई  लड़ने  के  लिए  हमेशा  तैयार  आजम  ने  किसी लम्हे  अपनी  कौम  के  मसलों  को  नज़र  अंदाज़  नहीं  किया  और  हमेशा  उसको  न  सिर्फ  अहमियत  दी  बल्कि  उनको  हमेशा  अपने  ज़हन  के  करीब  रखा।
ताक़त  के  खिलाफ  लड़ने  का  हुनर  वतन  रामपुर  की  सर  ज़मीन  पर  ही  सीख  लिया  था  ... ऐसे  लोगों  को  अपने  साथ लेकर  चले  की  जिनको भीड़  का  हिस्सा  समझा  जाता  था  और  उनको  समाजी  कामों  में  मजबूती  से  जुटाकर  समाज  के  बड़े  तबके  में  उनकी  पहचान  करायी  ......
मिज़ाज   था  समाजी  तो  शुरू  से  ही  समाजी  सियासत  से  जुड़े   रहे ...और  एक  दिन  समाजवादी पार्टी  बनवाने की  वजह बने  और  मुसलसल जद्द ओ  जहद की  जिन्दगी  को  कुछ  दिनों  का  ठहराव  देकर  आराम  करने  की  सोची  लेकिन  आराम  उनकी  किस्मत  में  नहीं  था  और  न  ही  आदत  में  एक ऐसा  वक़्त  आया  जबकि मज़हब के  नए  हत्यारों  से  कौम  पर  हमलों  का  दौर  का  सामना  खुद  करना  पड़ा  .......यह  वह  दौर  था  जहाँ  सियासी  बलंदी  पर  पहुचने  के  बाद  उस  कौम  को  उसके  जायज़  हक  दिलाने  का  मसला  आया  की  जिस   कौम  ने  अपनी  दुआओं से  इस  जांबाज़  कयादत  को  तैयार  किया  था  ..आज़म    ने  अपना  पूरा वक़्त  उन  बस्तियों  में  जाकर  गुज़ारा की  जहाँ  उनकी  कौम  की  असल  आवाज़  दब  के  रह  जाती  थी  ....वह  चाहे  तालीम   हो  या  रोज़गार  या  इलाज  या  पक्की  छत  अपनी  जिम्मेदारियों  को  वह  बखूबी  जानने लगे  थे  और  उनकी  मेहनतों  के  आवाज़ पर अब  वक़्त  आ गया  था  की  हाथ  फैलाकर  नहीं  खुद  के  कलम  से  वह  इन  परेशानियों  को  दूर  करने  का  सिलसिला  शुरू  कर  सकते  थे  क्योंकि  वह  हिस्सा  बने  उस  सरकार  का  की  जिसको  उन्होंने  रात  दिन  की  मेहनत  के  साथ   बनवाने  में  अहम्  किरदार  निभाया  था  ....जब  इक्तेदार  कितनो  के  आराम  का  सबब  बना   तब  ही  हासिल  शुदा  ताक़त  ने  इन्हें  रात  दिन  जगाये  रखा  ...एक  दिन  में  वह  उतना  काम  करने  लगे  की  लोगों  को  ऐसा  लगने  लगा  की  जैसे  कल  दुनिया  ही  ख़त्म  होने  वाली  हो  लेकिन  उनको  यह  अहसास  था  की  खुद  को  जगाकर वह  कौम  के   मुस्तकबिल   को  जगा  सकते  हैं  ....और  इस  काम  को  वह  बखूबी  अंजाम  देने  में  लगे  रहे  ....पहली  बार  सरकार  में  मुसलमानों  के  लिए  ख़ास  इन्तेजामात  शुरू  हुए .... बकायदा  सरकारी  खजाने  से  अलग  से  सरमाया  हासिल  होने  लगा  ... सीधे  जुड़े  होने  की  वजह  से  वह  बखूबी  जानते  थे  की  कितने  तरह  के  मर्ज़  ने  इस  कौम  के  जिस्म  को  कमज़ोर  कर  रखा है  ...लेकिन  कहते   है  की  अगर  इलाज  करने  वाला  होशियार  हो  तो  उसकी  दवा  को  असर  ज़रूर  होता  है ....पहली  बार  सूबे  में  ऐसा  लगने  लगा  मुसलमानों  को  ऐसी  सरकार  बनी  है  जो कि  न  हमें  अपनी  शक्ल  बल्कि  हमारे  नाम  से  भी  पहचानती  है  .... मुस्लिम  आबादियों  में  स्कूल  और  उनमें  वजीफे  का  दौर  शुरू  हुआ  ...सस्ते  इलाज  और  साफ़  सुथरे  माहौल  के  साथ  साथ  इज्ज़त  और  हिफाज़त  का  भी  पूरा  इंतज़ाम  होने  लगा  .... सूबे   की  असेम्ब्ली  में  फिरकापरस्त    ताक़तों  ने  आजम  के  काम  करने  के  अंदाज़  पर  कई  बार  हमला  किया  लेकिन  उनका  कोई  भी  हमला  उनके  इरादे  को  छु  भी  नहीं  पाया . .....कुछ  ही  दिनों  में  अयोध्या  के  नाम  पर  एक  नयी  सियासत  ने  सूबे  में  क़दम   रखा  ....यह  वह  वक़्त  था  की  जब  आजम  सब   का  सबसे  बड़ा  इम्तिहान  शुरू  होने  वाला  था  ....तकरीबन  सभी  के  निशाने  पर  आ  गयी  समाजवादी   पार्टी  और  उससे  भी  ज्यादा  आजम  सब  ...किसी  को  उनसे  शिकवा  नहीं  था  उनके  काम  के  तरीके  से  शिकवा  था  की  क्यों  उन्होंने  एक  प्यासी  कौम  के  दहन  में  पानी   के  चंद   कतरों  के  साथ  प्यास  बुझाने  की  उम्मीद  जगा  दी  ...
पूरे  मुल्क  में  खल्फिशार  मचा  था  और  हमारा  सूबे  में  तूफ़ान  से  पहले  जैसे  ख़ामोशी ......
आगे जारी......................

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