उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बरमूडा ट्राएंगल
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर अटकलें चलती रहेंगी , लेकिन इसके उलझे हुए गणित में कुछ चीजें अभी ही साफ हो चुकी हैं। सबसे जाहिर चीज , जिसका जिक्र इधर के चुनाव विश्लेषणों में सबसे बाद में आने लगा है , यह है कि इस चुनाव में ऐंटि - इनकंबेंसी फैक्टर बहुत प्रबल है। इसका संकेत किसी और ने नहीं , खुद सत्तारूढ़ पार्टी ने ही दे दिया है।
पिछले चुनाव में बीएसपी ने कुल 206 सीटें जीती थीं , लेकिन अपने 110 सिटिंग विधायकों , यानी आधे से ज्यादा के टिकट उसने काट दिए हैं। बीएसपी के पास राज्य में सबसे मजबूत चुनाव मशीनरी है। थोड़ा - बहुत सरकारी मशीनरी का सपोर्ट भी उसे मिलेगा ही। उसके कोर वोटर से ज्यादा प्रतिबद्ध मतदाता और किसी पार्टी के पास नहीं हैं। लेकिन खुद बीएसपी नेता भी निजी बातचीत में मानते हैं कि पिछली बार जैसी चमत्कारिक सफलता दोहराने के लिए ये बातें काफी नहीं हैं।
दुविधा में दबंग
चुनाव जीतने के लिए बीएसपी के पक्ष में कोई लहर भी होना जरूरी है , जो दुर्भाग्यवश इस बार उसके साथ नहीं है। यूपी का पिछला चुनाव मुलायम सिंह के शासन की प्रतिक्रिया में लड़ा गया था। जो लोग भी उनके राजकाज के तरीके से नाखुश थे , उन सभी ने सारे पूर्वाग्रह छोड़कर हाथी पर अपनी मोहर लगाई थी। लेकिन बीएसपी ने इसकी व्याख्या अपने जातीय समीकरण की सफलता के रूप में की , और अब भी कर रही है। पिछले नतीजे दोहराने के लिए उसने इस बार भी बहुत बड़ी संख्या में दबंग ब्राह्मणों - ठाकुरों को टिकट दिए हैं। यह जुआ शायद उसने इस उम्मीद में खेला है कि उसके कोर वोटर और इन उम्मीदवारों की दबंगई मिलकर पिछली बार की तरह इस बार भी बहुत सारी सीटें बहनजी के बटुए में पहुंचा देंगे।
गुरु किल्ली की खोट
जातीय गठबंधन को सत्ता की गुरु किल्ली ( मास्टर - की ) मान कर किए गए इस कैलकुलेशन की सीमा यह है कि यूपी में बीजेपी के पराभव के बाद से अपना पॉलिटिकल फोकस खो बैठे ऊंची जातियों के आम मतदाता किसी पार्टी को जिताने से ज्यादा किसी को हराने के लिए वोट देने लगे हैं। ऐसे में बीएसपी के लिए समस्या दोनों तरफ से है। अगर इन मतदाताओं का रुझान बदला , यानी इन्होंने किसी पार्टी को जिताने के लिए वोट दिया , तो वह बीएसपी नहीं होगी , क्योंकि उनकी स्वाभाविक पार्टी बनने के लिए उसने अभी तक कुछ नहीं किया है। और अगर ऐसा नहीं हुआ , वे अपने पिछले रवैये पर ही डटे रहे तो उनका बड़ा हिस्सा अपनी सरकार विरोधी सोच के तहत बीएसपी के खिलाफ ही वोट करेगा।
सेफोलॉजी का बुनियादी उसूल यह है कि ऐंटि - इनकंबेंसी फैक्टर का सबसे ज्यादा फायदा सबसे बड़े विपक्षी दल को मिलता है। अभी तक आए सारे चुनावी सर्वेक्षण यह संकेत भी दे रहे हैं कि समाजवादी पार्टी अगली विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। इस संबंध में कोई बहस है तो सिर्फ यह कि सरकार बनाने के रास्ते में वह अपने दम पर कितनी ऊंचाई पार कर पाएगी। यहां कुछ बातें सीधे तौर पर उसके खिलाफ जा रही हैं। अखिलेश यादव ने राज्य में पार्टी की कमान संभालने के बाद से इसकी एक साफ - सुथरी छवि पेश करने की कोशिश की है , लेकिन इस काम में थोड़ी देर हो गई। लोगों की आम बातचीत में आज भी समाजवादी सरकार के दुर्गुण ही छाए रहते हैं। दूसरी समस्या जातीय समीकरण की है। जबर्दस्त ऐंटि - इनकंबेंसी सेंटिमेंट के बावजूद समाज के कुछ हिस्से इस पार्टी को अपने लिए उतनी ही पराई पाते हैं , जितना 2007 में इसकी सरकार के समय पाते थे।
चुनाव में चार बड़े और कुछ छोटे पक्ष शामिल हैं , लेकिन बड़े पक्षों में सिर्फ एक , कांग्रेस को ही प्री - पोल अलायंस बनाने का मौका मिला है। उसने अजित सिंह के नेतृत्व वाले आरएलडी के साथ गठजोड़ बनाया है , जिसके एक इलाके में जमे - जमाए वोट हैं। जिस चुनाव में दसियों सीटों की किस्मत हजार - दो हजार वोटों से पलटती हो , वहां ऐसे गठबंधन काफी मानीखेज हो जाते हैं। जातिगत नजरिये से भी सिर्फ कांग्रेस के ही खाते में कुर्मी और पूर्वी यूपी की कुछ अति पिछड़ी जातियों के रूप में कोई ठोस इजाफा होता नजर आ रहा है। लेकिन पिछली विधानसभा में सिर्फ पांच पर्सेंट की हैसियत वाली यह पार्टी अपनी लड़ाई की शुरुआत ही इतने नीचे से कर रही है कि चोटी के मुकाबले में आने के लिए उसे जमीन - आसमान एक करना पड़ेगा।
इस चुनाव में जिस पार्टी की तैयारी सबसे खराब है , वह निस्संदेह बीजेपी है। हवाई नेताओं की गुटबाजी से त्रस्त इस पार्टी का हाल यह है कि इसे उमा भारती को आगे करके चुनाव लड़ना पड़ रहा है। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाले के मुख्य आरोपी , बीएसपी से निकाले हुए बाबू सिंह कुशवाहा को अपना कर इसने अपनी नैतिक आभा भी खो दी है। एक समय अपने मजबूत चुनावी ढांचे के लिए जानी जाने वाली इस पार्टी के लिए तो इस बार शायद आरएसएस कार्यकर्ता भी काम न करें। ऐसे में चुनाव विश्लेषकों के लिए बीजेपी से जुड़ी अकेली दिलचस्पी यह है कि उसके पारंपरिक वोटर फिलहाल किस तरफ शिफ्ट हो रहे हैं।
बरमूडा ट्राएंगल
एक अर्से से यूपी असेंबली इलेक्शन को लेकर यह उत्सुकता बनी हुई है कि यहां का वोटर जातीय ध्रुवीकरण से बाहर कब निकलेगा। पिछले चुनाव में उसने ऐसा किया , लेकिन उसके वोटिंग पैटर्न की जातीय व्याख्या ही की गई। फिर 2009 के आम चुनाव में उसने कांग्रेस को चौथे से उठाकर दूसरे दूसरे नंबर पर पहुंचा दिया , जिसकी कल्पना खुद कांग्रेस ने भी नहीं की थी। खुद को जातीय जकड़न से बाहर दिखाने और अपनी रोजी - रोटी व जिंदगी के दीगर सवालों को सामने लाने के लिए इससे ज्यादा वह क्या कर सकता है ? ठोस रूप से चुनावी नतीजे पर बात करें तो यह एसपी , बीएसपी और कांग्रेस के त्रिकोण जैसा नजर आ रहा है। ऐसे में सिर्फ दुआ मांगी जा सकती है कि यह नब्बे के दशक वाले एसपी - बीएसपी - बीजेपी त्रिकोण का दोहराव न साबित हो , जिसे अविकास और दिशाभ्रम के अंधकूप की तरह ही याद किया जाता है।
पिछले चुनाव में बीएसपी ने कुल 206 सीटें जीती थीं , लेकिन अपने 110 सिटिंग विधायकों , यानी आधे से ज्यादा के टिकट उसने काट दिए हैं। बीएसपी के पास राज्य में सबसे मजबूत चुनाव मशीनरी है। थोड़ा - बहुत सरकारी मशीनरी का सपोर्ट भी उसे मिलेगा ही। उसके कोर वोटर से ज्यादा प्रतिबद्ध मतदाता और किसी पार्टी के पास नहीं हैं। लेकिन खुद बीएसपी नेता भी निजी बातचीत में मानते हैं कि पिछली बार जैसी चमत्कारिक सफलता दोहराने के लिए ये बातें काफी नहीं हैं।
दुविधा में दबंग
चुनाव जीतने के लिए बीएसपी के पक्ष में कोई लहर भी होना जरूरी है , जो दुर्भाग्यवश इस बार उसके साथ नहीं है। यूपी का पिछला चुनाव मुलायम सिंह के शासन की प्रतिक्रिया में लड़ा गया था। जो लोग भी उनके राजकाज के तरीके से नाखुश थे , उन सभी ने सारे पूर्वाग्रह छोड़कर हाथी पर अपनी मोहर लगाई थी। लेकिन बीएसपी ने इसकी व्याख्या अपने जातीय समीकरण की सफलता के रूप में की , और अब भी कर रही है। पिछले नतीजे दोहराने के लिए उसने इस बार भी बहुत बड़ी संख्या में दबंग ब्राह्मणों - ठाकुरों को टिकट दिए हैं। यह जुआ शायद उसने इस उम्मीद में खेला है कि उसके कोर वोटर और इन उम्मीदवारों की दबंगई मिलकर पिछली बार की तरह इस बार भी बहुत सारी सीटें बहनजी के बटुए में पहुंचा देंगे।
गुरु किल्ली की खोट
जातीय गठबंधन को सत्ता की गुरु किल्ली ( मास्टर - की ) मान कर किए गए इस कैलकुलेशन की सीमा यह है कि यूपी में बीजेपी के पराभव के बाद से अपना पॉलिटिकल फोकस खो बैठे ऊंची जातियों के आम मतदाता किसी पार्टी को जिताने से ज्यादा किसी को हराने के लिए वोट देने लगे हैं। ऐसे में बीएसपी के लिए समस्या दोनों तरफ से है। अगर इन मतदाताओं का रुझान बदला , यानी इन्होंने किसी पार्टी को जिताने के लिए वोट दिया , तो वह बीएसपी नहीं होगी , क्योंकि उनकी स्वाभाविक पार्टी बनने के लिए उसने अभी तक कुछ नहीं किया है। और अगर ऐसा नहीं हुआ , वे अपने पिछले रवैये पर ही डटे रहे तो उनका बड़ा हिस्सा अपनी सरकार विरोधी सोच के तहत बीएसपी के खिलाफ ही वोट करेगा।
सेफोलॉजी का बुनियादी उसूल यह है कि ऐंटि - इनकंबेंसी फैक्टर का सबसे ज्यादा फायदा सबसे बड़े विपक्षी दल को मिलता है। अभी तक आए सारे चुनावी सर्वेक्षण यह संकेत भी दे रहे हैं कि समाजवादी पार्टी अगली विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। इस संबंध में कोई बहस है तो सिर्फ यह कि सरकार बनाने के रास्ते में वह अपने दम पर कितनी ऊंचाई पार कर पाएगी। यहां कुछ बातें सीधे तौर पर उसके खिलाफ जा रही हैं। अखिलेश यादव ने राज्य में पार्टी की कमान संभालने के बाद से इसकी एक साफ - सुथरी छवि पेश करने की कोशिश की है , लेकिन इस काम में थोड़ी देर हो गई। लोगों की आम बातचीत में आज भी समाजवादी सरकार के दुर्गुण ही छाए रहते हैं। दूसरी समस्या जातीय समीकरण की है। जबर्दस्त ऐंटि - इनकंबेंसी सेंटिमेंट के बावजूद समाज के कुछ हिस्से इस पार्टी को अपने लिए उतनी ही पराई पाते हैं , जितना 2007 में इसकी सरकार के समय पाते थे।
चुनाव में चार बड़े और कुछ छोटे पक्ष शामिल हैं , लेकिन बड़े पक्षों में सिर्फ एक , कांग्रेस को ही प्री - पोल अलायंस बनाने का मौका मिला है। उसने अजित सिंह के नेतृत्व वाले आरएलडी के साथ गठजोड़ बनाया है , जिसके एक इलाके में जमे - जमाए वोट हैं। जिस चुनाव में दसियों सीटों की किस्मत हजार - दो हजार वोटों से पलटती हो , वहां ऐसे गठबंधन काफी मानीखेज हो जाते हैं। जातिगत नजरिये से भी सिर्फ कांग्रेस के ही खाते में कुर्मी और पूर्वी यूपी की कुछ अति पिछड़ी जातियों के रूप में कोई ठोस इजाफा होता नजर आ रहा है। लेकिन पिछली विधानसभा में सिर्फ पांच पर्सेंट की हैसियत वाली यह पार्टी अपनी लड़ाई की शुरुआत ही इतने नीचे से कर रही है कि चोटी के मुकाबले में आने के लिए उसे जमीन - आसमान एक करना पड़ेगा।
इस चुनाव में जिस पार्टी की तैयारी सबसे खराब है , वह निस्संदेह बीजेपी है। हवाई नेताओं की गुटबाजी से त्रस्त इस पार्टी का हाल यह है कि इसे उमा भारती को आगे करके चुनाव लड़ना पड़ रहा है। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाले के मुख्य आरोपी , बीएसपी से निकाले हुए बाबू सिंह कुशवाहा को अपना कर इसने अपनी नैतिक आभा भी खो दी है। एक समय अपने मजबूत चुनावी ढांचे के लिए जानी जाने वाली इस पार्टी के लिए तो इस बार शायद आरएसएस कार्यकर्ता भी काम न करें। ऐसे में चुनाव विश्लेषकों के लिए बीजेपी से जुड़ी अकेली दिलचस्पी यह है कि उसके पारंपरिक वोटर फिलहाल किस तरफ शिफ्ट हो रहे हैं।
बरमूडा ट्राएंगल
एक अर्से से यूपी असेंबली इलेक्शन को लेकर यह उत्सुकता बनी हुई है कि यहां का वोटर जातीय ध्रुवीकरण से बाहर कब निकलेगा। पिछले चुनाव में उसने ऐसा किया , लेकिन उसके वोटिंग पैटर्न की जातीय व्याख्या ही की गई। फिर 2009 के आम चुनाव में उसने कांग्रेस को चौथे से उठाकर दूसरे दूसरे नंबर पर पहुंचा दिया , जिसकी कल्पना खुद कांग्रेस ने भी नहीं की थी। खुद को जातीय जकड़न से बाहर दिखाने और अपनी रोजी - रोटी व जिंदगी के दीगर सवालों को सामने लाने के लिए इससे ज्यादा वह क्या कर सकता है ? ठोस रूप से चुनावी नतीजे पर बात करें तो यह एसपी , बीएसपी और कांग्रेस के त्रिकोण जैसा नजर आ रहा है। ऐसे में सिर्फ दुआ मांगी जा सकती है कि यह नब्बे के दशक वाले एसपी - बीएसपी - बीजेपी त्रिकोण का दोहराव न साबित हो , जिसे अविकास और दिशाभ्रम के अंधकूप की तरह ही याद किया जाता है।