सपना बन जाएगी दाल-रोटी

सुभाष चंद्र कुशवाहा

कभी जमाखोरी के खिलाफ कुछ दिन छापे मरवाकर, तो कभी किसी खास चीज के निर्यात प्रतिबंध और आयात छूट से समस्या का हल निकालने की कोशिश करते हैं। वोट बैंक खिसकने के डर के बावजूद वे कृषि व्यवहमारे नेता स्वयं कह रहे हैं कि महंगाई नियंत्रण के लिए उनके पास कोई जादुई छड़ी नहीं है। वे कभी प्याज, तो कभी लहसुन और कभी आलू, टमाटर या अंडे के ऊंचे दामों को मीडिया की उपज बताकर कन्नी काट जाते हैं, तो कभी महंगाई का दोष गठबंधन की राजनीति पर मढ़कर हाथ खड़े कर देते हैं। स्था चौपट करने वाली नीतियों की समीक्षा से कतराते हैं। 

विगत एक दशक से कृषि क्षेत्र पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि के चलते हमारा खाद्यान्न उत्पादन घटा है। उन कंपनियों के दबाव में लिए जाने वाले फैसलों, कृषि क्षेत्रों की उपेक्षा और पारंपरिक बीजों के बजाय हमारे मौसम के लिए अनुपयुक्त मोनसेंटो, डूपोंट और साइजेंटा जैसी कुछ बड़ी बीज कंपनियों के दबाव में हाइब्रीड बीजों के उपयोग के कारण किसानों की हालत लगातार खराब होती जा रही है। एक तरफ हमारे तमाम छोटे कृषि अनुसंधान केंद्र बेकार होते जा रहे हैं, दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में अनुसंधान के लिए अमेरिका के साथ एक हजार करोड़ रुपये का समझौता किया गया है। इस समझौते के तहत हमारे कृषि वैज्ञानिक अमेरिकियों से ज्ञान हासिल करेंगे। यह समझौता लागू करने वाली समिति में अमेरिका की वॉल मार्ट और मोनसेंटो जैसी कंपनियों के लोग हैं। जाहिर है, ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने हितों के अनुकूल ही कृषि ज्ञान देंगी।

अमेरिका और यूरोप की कोशिश है कि भारत में कृषि लागत बढ़ा दी जाए, किसानों को दी जा रही सबसिडी खत्म कर दी जाए और इसे आयातित खाद्यान्न पर निर्भर कर अपने कृषि उत्पादों को यहां खपाया जाए। लाभ के लिए खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों का होना जरूरी है, इसलिए महंगाई तो बढ़ाई ही जाएगी। उर्वरक कारखाने बंद करना और गैर खाद्यान्न फसलों का उत्पादन बढ़ाना इसी का उदाहरण है।
कृषि तकनीक के मामले में हम पिछड़ते जा रहे हैं। देश के कुल रोजगार का ५७ प्रतिशत हिस्सा कृषि और कृषि आधारित क्षेत्रों पर आश्रित है। औद्योगिक विकास के तमाम दावों के बावजूद अब भी कुल राष्ट्रीय आय का चौथाई हिस्सा इन्हीं क्षेत्रों से प्राप्त होता है। कई वर्षों से आर्थिक विकास छह से आठ प्रतिशत की दर से बढ़ने का दावा किया जा रहा है, जबकि हमारी कृषि उत्पादकता लगातार घट रही है।

अजीब विडंबना है कि विश्व व्यापार संगठन के दबाव में हमारे यहां किसानों को दी जा रही सबसिडी घटाई जा रही है, जबकि अमेरिका, यूरोप और चीन जैसे देशों ने अपने किसानों की सबसिडी बढ़ाई है। विगत दस वर्षों में अपने यहां जनसंख्या में जहां २१.३३ प्रतिशत वृद्धि हुई है, वहीं प्रति व्यक्ति चावल की उपलब्धता में ६.१३ प्रतिशत, गेहूं की उपलब्धता में २५.६ प्रतिशत और दाल की मात्रा में ३६.५ प्रतिशत की कमी आई है। यही स्थिति रही, तो गरीबों के लिए दाल-रोटी सपना हो जाएगी। एक तरफ निरंतर अमीरी बढ़ेगी, तो दूसरी ओर कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या भी बढ़ेगी।

ऐसे में, बगैर विलंब किए विश्व व्यापार संगठन के दबावों को नकारने एवं कृषि शिक्षा, शोध एवं संरक्षण की दिशा में ठोस कार्य करने की जरूरत है। हम पेट्रो उत्पादों का ठेका जहां निजी हाथों में देते जा रहे हैं, वहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार का बहाना बनाकर तेल कंपनियों का घाटा कम करने के लिए पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाते जा रहे हैं। इससे महंगाई पर चौतरफा प्रभाव पड़ता है। क्या कभी हमने किसानों की लागत और आय के अंतर को भी पाटने की योजना बनाई है? मनरेगा जैसी योजनाओं से भी कृषि मजदूरों का अकाल पैदा हुआ है। कृषि कार्यों के लिए किसानों को मजदूर नहीं मिल पाते हैं। जिस देश में छोटे-छोटे खेत मशीनी खेती के लिए अनुपयुक्त हाें, वहां कृषि मजदूरों की जरूरत बनी ही रहेगी। खाद्यान्न भंडारण की दिशा में ठोस कार्य नहीं होने से भी खाद्यान्न बरबाद होते हैं। विगत वर्ष लाखों टन अनाज सही रख-रखाव न होने के कारण सड़ गए। हमें अनाजों के उत्पादन को बढ़ाने के साथ-साथ उसके उचित प्रबंधन पर भी ध्यान देना पड़ेगा। सुगम सिंचाई, सस्ते खाद-बीजों की उपलब्धता और किसान के हितों का संरक्षण जब तक हमारी प्राथमिकता में नहीं होंगे, महंगाई डायन यों ही पीछा करती रहेगी

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