वोटिंग मशीनों को हैक कर कोई चुनाव फिक्स कर दिया गया तो ?
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तहलका टुडे टीम
नई दिल्ली चुनाव आयोग को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की खामियों को दूर कर उसमें सुधार करना था, लेकिन जब शोधकर्ताओं ने ईवीएम की कमियों को उजागर किया तो आयोग उल्टे उन पर ही पिल पड़ा। क्या चुनाव आयोग किसी चीज पर परदा डालना है? इंजीनियर होने के नाते मुझे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में कुछ जाहिर खामियां नजर आती हैं।
कंप्यूटर पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने के अपने नुकसान हैं, क्योंकि वे गलतियां कर सकते हैं या उनके साथ छेड़खानी की जा सकती है। मुझे लगता है हमें अपना ‘लो-टेक बैकअप मैकेनिज्म’ भी तैयार रखना चाहिए। यही प्रणाली रेफ्रिजरेटर, माइक्रोवेव, एटीएम आदि में काम करती है।
टोयोटा का उदाहरण लें। पिछले साल जब टोयोटा को बाजार से अपनी कारें वापस बुलानी पड़ी थीं, तो इस गड़बड़ी के पीछे भी कमोबेश सॉफ्टवेयर आधारित सिस्टम की खामियां ही थीं। यही कारण है कि परमाणु ऊर्जा प्लांट जैसे महत्वपूर्ण संयंत्र कंप्यूटरों से ज्यादा भरोसा इलेक्ट्रो-मैकेनिकल सिस्टम पर करते हैं।
चूंकि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन एम्बेडेड सिस्टम के आधार पर काम करती हैं, इसलिए उनका इस्तेमाल करने के कुछ खतरे भी हैं। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वोटिंग मशीनों ने मतदान प्रणाली को सुचारु बना दिया है। पहला फायदा तो यही है कि वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल करने से ‘बूथ कैप्चरिंग’ का खतरा लगभग समाप्त हो जाता है।
इसके अलावा डिजिटल तकनीक के कारण ईवीएम में वोटों की गिनती काफी तेजी से की जा सकती है। साथ ही आंकड़े जुटाने और विश्लेषण करने का काम भी काफी आसान हो जाता है। लेिकन दुर्भाग्यवश ईवीएम की ये खूबियां ही उसकी खामियां भी हैं।
चूंकि ईवीएम में वोट का कोई भौतिक लेखा नहीं होता, इसलिए वोट देने के बाद उसे सत्यापित नहीं किया जा सकता। ऐसे में किसी भी सॉफ्टवेयर-सैवी अपराधी के लिए चुनावों को फिक्स करना मुश्किल नहीं है। इससे बचने और मतदान के सत्यापन के लिए ईवीएम में एटीएम की ही तर्ज पर कागजी स्लिप की व्यवस्था करना बेहद जरूरी है।
इस तरह की प्रणालियों को अधिक सुरक्षित बनाने के दो मुख्य आयाम हैं : पहला है जरूरी मानवीय हस्तक्षेप और दूसरा है प्रक्रियाओं के कई स्तर। कई प्रणालियां ऐसी हैं, जिन्हें अधिक से अधिक सुरक्षित और विश्वसनीय बनाने के लिए उनमें अनेक व्यक्तियों द्वारा सहयोग किया जाता है। इसके साथ ही गलतियों, चाहे वे जानबूझकर की गई हों या दुर्घटनावश हुई हों, से बचने के लिए प्रक्रियाओं के कई स्तरों से गुजरना भी जरूरी है। कोई भी जटिल प्रणाली केवल तभी ठीक तरह से काम कर सकती है, जब उसे संचालित करने वाले मनुष्य, उसकी तकनीकी पद्धति और उसकी कार्य प्रक्रियाएं सभी के बीच तालमेल हो।
बहरहाल, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की खामियां कई बार उजागर हुई हैं। यही वजह थी कि अमेरिका, जर्मनी और नीदरलैंड में उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जर्मनों ने पाया कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें संविधान का उल्लंघन कर रही हैं, क्योंकि मतदाता को यह प्रमाणित करना उसका दायित्व है कि उसका वोट दर्ज कर लिया गया है और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन इसकी गारंटी नहीं दे सकतीं।
इसी परिप्रेक्ष्य में हमें हाल ही में भारतीय ईवीएम के शोधकर्ता हरि प्रसाद को गिरफ्तार किए जाने की घटना को देखना चाहिए। भारतीय चुनाव आयोग का दावा था कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पूरी तरह सुरक्षित हैं और उनसे बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता।
लेकिन हरि प्रसाद और उनके सहयोगी शोधकर्ताओं ने इसे गलत साबित कर दिखाया। उन्होंने किसी अन्य हार्डवेयर पर इसे हैक करने का प्रदर्शन भी किया। इस पर चुनाव आयोग का कहना था कि चूंकि उन्होंने ईवीएम को नहीं, किसी अन्य हार्डवेयर को हैक किया था अत: इससे इर्वीएम की कथित खामियां सिद्ध नहीं होती हैं। इस पर शोधकर्ताओं ने अनुरोध किया कि उन्हें वास्तविक ईवीएम प्रदान की जाएं। चुनाव आयोग ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया।
आयोग का दावा था कि उनकी प्रक्रियाएं बेहद सुरक्षित हैं और वोटिंग मशीनों को भरोसेमंद अधिकारियों की निगरानी में उच्च सुरक्षा साधनों के साथ सील करके रखा जाता है। लेकिन सुरक्षा के ये तौर-तरीके अब बहुत पुराने मालूम होते हैं।
शोधकर्ताओं ने चुनाव आयोग के वेयरहाउस से एक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन प्राप्त की और दिखाया कि इसे बड़ी आसानी से हैक किया जा सकता है। उन्होंने रेडियो सक्रिय चिप का प्रयोग करके भी दिखाया, जो किसी भी ब्लूटुथ वाले सेलफोन की सहायता से वोटिंग मशीनों में हेरफेर कर सकती हैं।
दूसरी तरफ चुनाव आयोग की यह स्थिति थी कि उसे कई महीनों तक यह भी पता नहीं चल सका कि उसके स्टोर से वोटिंग मशीन गुम है। न ही उसके कंप्यूटर सुरक्षा विशेषज्ञ इस मामले में साफ तौर पर कुछ कह पा रहे थे।
मैंने हाल ही में हुई यूजनिक्स कांफ्रेंस के एक सत्र को गौर से देखा, जहां इस केस पर बहस की जा रही थी और दोनों पक्षों के प्रतिनिधि अपना पक्ष रख रहे थे। मुझे यह सुनकर बहुत दुख पहुंचा कि चुनाव आयोग को अपने जिन सुरक्षा मानकों पर इतना नाज था, उन्हें वह सत्यापित नहीं कर सका।
\होना तो यह चाहिए था कि हरि प्रसाद की जागरूकता और उनके नेक इरादों को देखते हुए उनके द्वारा दिए गए सुझावों का स्वागत किया जाता। लेकिन चुनाव आयोग ने दूसरी ही राह अख्तियार की। संविधान और जनतंत्र के व्यावहारिक स्वरूप के संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण केस था, लेकिन चुनाव आयोग ने इसमें अपनी सही भूमिका का निर्वाह नहीं किया। यह दुखद है कि समाज के एक अन्य स्तंभ मीडिया ने भी इस मामले में कुछ खास नहीं किया। अगर कुछ छिटपुट टिप्पणियों को छोड़ दिया जाए तो अंग्रेजी मीडिया ने अभी तक इस मामले को नजरअंदाज ही किया है।
मीडिया को समाज का पहरुआ माना जाता है, लेकिन इस मामले को नजरअंदाज कर वह अपना दायित्व नहीं निभा रहा है। यदि वोटिंग मशीनों को हैक कर कोई चुनाव फिक्स कर दिया गया तो यह एक संवैधानिक क्षति होगी।
इस मामले में सरकार से जवाबतलब नहीं करने से मीडिया की नैतिकता पर भी सवालिया निशान लगते हैं। स्वतंत्र संस्थाओं का यह दायित्व है कि वे कार्यपालिका को उसकी खामियां बताकर उनमें सुधार लाने की कोशिश करें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह चिंतनीय है। यह एक ऐसी राज्य व्यवस्था का परिचायक है, जिसकी मशीनरी बहुत सुचारु रूप से अपना काम नहीं कर रही है।
नई दिल्ली चुनाव आयोग को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की खामियों को दूर कर उसमें सुधार करना था, लेकिन जब शोधकर्ताओं ने ईवीएम की कमियों को उजागर किया तो आयोग उल्टे उन पर ही पिल पड़ा। क्या चुनाव आयोग किसी चीज पर परदा डालना है? इंजीनियर होने के नाते मुझे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में कुछ जाहिर खामियां नजर आती हैं।
कंप्यूटर पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने के अपने नुकसान हैं, क्योंकि वे गलतियां कर सकते हैं या उनके साथ छेड़खानी की जा सकती है। मुझे लगता है हमें अपना ‘लो-टेक बैकअप मैकेनिज्म’ भी तैयार रखना चाहिए। यही प्रणाली रेफ्रिजरेटर, माइक्रोवेव, एटीएम आदि में काम करती है।
टोयोटा का उदाहरण लें। पिछले साल जब टोयोटा को बाजार से अपनी कारें वापस बुलानी पड़ी थीं, तो इस गड़बड़ी के पीछे भी कमोबेश सॉफ्टवेयर आधारित सिस्टम की खामियां ही थीं। यही कारण है कि परमाणु ऊर्जा प्लांट जैसे महत्वपूर्ण संयंत्र कंप्यूटरों से ज्यादा भरोसा इलेक्ट्रो-मैकेनिकल सिस्टम पर करते हैं।
चूंकि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन एम्बेडेड सिस्टम के आधार पर काम करती हैं, इसलिए उनका इस्तेमाल करने के कुछ खतरे भी हैं। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वोटिंग मशीनों ने मतदान प्रणाली को सुचारु बना दिया है। पहला फायदा तो यही है कि वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल करने से ‘बूथ कैप्चरिंग’ का खतरा लगभग समाप्त हो जाता है।
इसके अलावा डिजिटल तकनीक के कारण ईवीएम में वोटों की गिनती काफी तेजी से की जा सकती है। साथ ही आंकड़े जुटाने और विश्लेषण करने का काम भी काफी आसान हो जाता है। लेिकन दुर्भाग्यवश ईवीएम की ये खूबियां ही उसकी खामियां भी हैं।
चूंकि ईवीएम में वोट का कोई भौतिक लेखा नहीं होता, इसलिए वोट देने के बाद उसे सत्यापित नहीं किया जा सकता। ऐसे में किसी भी सॉफ्टवेयर-सैवी अपराधी के लिए चुनावों को फिक्स करना मुश्किल नहीं है। इससे बचने और मतदान के सत्यापन के लिए ईवीएम में एटीएम की ही तर्ज पर कागजी स्लिप की व्यवस्था करना बेहद जरूरी है।
इस तरह की प्रणालियों को अधिक सुरक्षित बनाने के दो मुख्य आयाम हैं : पहला है जरूरी मानवीय हस्तक्षेप और दूसरा है प्रक्रियाओं के कई स्तर। कई प्रणालियां ऐसी हैं, जिन्हें अधिक से अधिक सुरक्षित और विश्वसनीय बनाने के लिए उनमें अनेक व्यक्तियों द्वारा सहयोग किया जाता है। इसके साथ ही गलतियों, चाहे वे जानबूझकर की गई हों या दुर्घटनावश हुई हों, से बचने के लिए प्रक्रियाओं के कई स्तरों से गुजरना भी जरूरी है। कोई भी जटिल प्रणाली केवल तभी ठीक तरह से काम कर सकती है, जब उसे संचालित करने वाले मनुष्य, उसकी तकनीकी पद्धति और उसकी कार्य प्रक्रियाएं सभी के बीच तालमेल हो।
बहरहाल, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की खामियां कई बार उजागर हुई हैं। यही वजह थी कि अमेरिका, जर्मनी और नीदरलैंड में उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जर्मनों ने पाया कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें संविधान का उल्लंघन कर रही हैं, क्योंकि मतदाता को यह प्रमाणित करना उसका दायित्व है कि उसका वोट दर्ज कर लिया गया है और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन इसकी गारंटी नहीं दे सकतीं।
इसी परिप्रेक्ष्य में हमें हाल ही में भारतीय ईवीएम के शोधकर्ता हरि प्रसाद को गिरफ्तार किए जाने की घटना को देखना चाहिए। भारतीय चुनाव आयोग का दावा था कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पूरी तरह सुरक्षित हैं और उनसे बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता।
लेकिन हरि प्रसाद और उनके सहयोगी शोधकर्ताओं ने इसे गलत साबित कर दिखाया। उन्होंने किसी अन्य हार्डवेयर पर इसे हैक करने का प्रदर्शन भी किया। इस पर चुनाव आयोग का कहना था कि चूंकि उन्होंने ईवीएम को नहीं, किसी अन्य हार्डवेयर को हैक किया था अत: इससे इर्वीएम की कथित खामियां सिद्ध नहीं होती हैं। इस पर शोधकर्ताओं ने अनुरोध किया कि उन्हें वास्तविक ईवीएम प्रदान की जाएं। चुनाव आयोग ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया।
आयोग का दावा था कि उनकी प्रक्रियाएं बेहद सुरक्षित हैं और वोटिंग मशीनों को भरोसेमंद अधिकारियों की निगरानी में उच्च सुरक्षा साधनों के साथ सील करके रखा जाता है। लेकिन सुरक्षा के ये तौर-तरीके अब बहुत पुराने मालूम होते हैं।
शोधकर्ताओं ने चुनाव आयोग के वेयरहाउस से एक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन प्राप्त की और दिखाया कि इसे बड़ी आसानी से हैक किया जा सकता है। उन्होंने रेडियो सक्रिय चिप का प्रयोग करके भी दिखाया, जो किसी भी ब्लूटुथ वाले सेलफोन की सहायता से वोटिंग मशीनों में हेरफेर कर सकती हैं।
दूसरी तरफ चुनाव आयोग की यह स्थिति थी कि उसे कई महीनों तक यह भी पता नहीं चल सका कि उसके स्टोर से वोटिंग मशीन गुम है। न ही उसके कंप्यूटर सुरक्षा विशेषज्ञ इस मामले में साफ तौर पर कुछ कह पा रहे थे।
मैंने हाल ही में हुई यूजनिक्स कांफ्रेंस के एक सत्र को गौर से देखा, जहां इस केस पर बहस की जा रही थी और दोनों पक्षों के प्रतिनिधि अपना पक्ष रख रहे थे। मुझे यह सुनकर बहुत दुख पहुंचा कि चुनाव आयोग को अपने जिन सुरक्षा मानकों पर इतना नाज था, उन्हें वह सत्यापित नहीं कर सका।
\होना तो यह चाहिए था कि हरि प्रसाद की जागरूकता और उनके नेक इरादों को देखते हुए उनके द्वारा दिए गए सुझावों का स्वागत किया जाता। लेकिन चुनाव आयोग ने दूसरी ही राह अख्तियार की। संविधान और जनतंत्र के व्यावहारिक स्वरूप के संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण केस था, लेकिन चुनाव आयोग ने इसमें अपनी सही भूमिका का निर्वाह नहीं किया। यह दुखद है कि समाज के एक अन्य स्तंभ मीडिया ने भी इस मामले में कुछ खास नहीं किया। अगर कुछ छिटपुट टिप्पणियों को छोड़ दिया जाए तो अंग्रेजी मीडिया ने अभी तक इस मामले को नजरअंदाज ही किया है।
मीडिया को समाज का पहरुआ माना जाता है, लेकिन इस मामले को नजरअंदाज कर वह अपना दायित्व नहीं निभा रहा है। यदि वोटिंग मशीनों को हैक कर कोई चुनाव फिक्स कर दिया गया तो यह एक संवैधानिक क्षति होगी।
इस मामले में सरकार से जवाबतलब नहीं करने से मीडिया की नैतिकता पर भी सवालिया निशान लगते हैं। स्वतंत्र संस्थाओं का यह दायित्व है कि वे कार्यपालिका को उसकी खामियां बताकर उनमें सुधार लाने की कोशिश करें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह चिंतनीय है। यह एक ऐसी राज्य व्यवस्था का परिचायक है, जिसकी मशीनरी बहुत सुचारु रूप से अपना काम नहीं कर रही है।