राष्ट्रवाद का अमेरिकी संस्करण
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आम चुनाव में अभी भी छह आठ महीने से अधिक का
समय बचा हुआ है। लेकिन जिस तरह से राजनीतिक दलों ने अपनी अपनी तैयारी शुरू
कर दी है उससे आम चुनाव की आहट अभी से आनी शुरू हो गई है। आम चुनाव के इसी
माहौल के बीच नरेन्द्र मोदी का नाम कुछ इस तर्ज पर उछाला जा रहा है मानों
इस देश में दो ही वर्ग बचे हैं। एक वह जो मोदी समर्थक है और जो मोदी समर्थक
नहीं है वह मोदी विरोधी है। जिस भी व्यवस्था में जब आपको सिर्फ हां और ना
के बीच किसी एक का चुनाव करना होता है तो उस व्यवस्था को लोकतांत्रिक
व्यवस्था नहीं कह सकते हैं। नरेन्द्र मोदी के समर्थकों और भाजपा के कुछ
नेताओं द्वारा ऐसा ही माहौल बनाया जा रहा है कि अगर आप मोदी समर्थक हैं तो
राष्ट्रभक्त हैं और अगर आप मोदी का विरोध करते हैं तो राष्ट्र का विरोध
करते हैं। मोदी समर्थकों और राष्ट्रवादियों की यह अतिवादिता खुद उनके लिए
भी उतनी ही खतरनाक है जितनी कि इस देश के लिए। हद तो यह है कि अपनी मूर्खता
से मोदी समर्थन और विरोध का दायरा बढ़ाकर अमेरिका तक पहुंचा दिया है और
ऐसा पहली बार हो रहा है कि भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अमेरिका को
सीधे तौर हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। बजरंगमुनि का
विश्लेषण-
भारतीय जनता पार्टी आन्तरिक रुप से पॅूजीवाद की पक्षधर है।
किन्तु प्रत्यक्ष रुप से हमेशा ही अमेरिका या ब्रिटेन के विरुद्ध दिखना
चाहती है। पिछले नौ वर्षो के कांग्रेसी शासन काल में एक भी ऐसा अवसर नही
आया जिसमें भारतीय जनता पार्टी किसी भी रुप में अमेरिका की पक्षधर दिखी हो
या कम से कम तटस्थ दिखी हो। मनमोहन सिंह की सरकार ने कभी ऐसा नाटक नही
किया। उसने हमेशा ही स्वयं को अमेरिका के पक्ष में दिखाया। भारतीय जनता
पार्टी ने मनमोहन सिंह को इसी आरोप में घेरने की कोशिश की कि वे अमेंरिका
के पक्षधर है। साम्यवादियों ने भी कभी ऐसा नाटक नही किया जिसमें वे
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अमेरिका के समर्थन मे रहें हों या दिखे हों।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अमेरिका को लेकर हमेशा ही अपना दोहरा
चऱित्र दिखाया है। उसने तो मनमोहन सरकार को गिराने के लिये अमेरिका विरोध
नाम पर साम्यवादियों तक से हाथ मिला लिया। इनके प्रधानमंत्री पद के
उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी से लेकर एक साधारण कार्यकर्ता तक बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों का निरंतर विरोध करते दिखते है। यहां तक कि विरोध करते-करते ये
तोड़फोड़ तक उतर जाते है। नाटक के प्रत्यक्ष स्वरुप में ऐसा दिखता है कि
भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह अन्दर से बाहर तक अमेरिका के विरुद्ध है। उसी
भारतीय जनता पार्टी के संभावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी
को अमेरिका ने अमेरिका आने का वीजा देने से इन्कार कर दिया तो भाजपा से
लेकर नरेन्द्र मोदी तक ने अमेरिकी सांसदो की अन्दर-अन्दर खुशामद शुरु कर
दी। हद तो तब हुयी जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह
जी ने अमेरिका जाकर वहां के राष्ट्रपति ओबामा से होने वाली चर्चाओं में इस
निवेदन को शामिल करना उचित समझा कि अमेरिका मोदी को अमेरिका आने का विजा
देने पर विचार करे। इस निवेदन में राजनाथ सिंह जी को न भारत की राष्ट्रीयता
का अपमान दिखा न भारत के स्वाभिमान का, न अपने अमेरिका विरोधी चेहरे की
नकाब उतरने की चिंता हुई। यह बात अमेरिका में न कहकर भारत में मजबूती के
साथ कही जाती तब उतना बुरा नही था, जितना अमेरिका जाकर अमेरिकी प्रशासन के
सामने गिड़गिड़ाने पर हुआ। मोदी के इस अमेरिकी वीजा प्रसंग ने भारतीय जनता
पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचाया है।
क्या मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले ही
इस तरह की दादागिरी मोदी को प्रधानमंत्री बनने में सहायक होगी? क्या
गुजरात में ऐसी ही दादागिरी के बल पर चुनाव जीते गये? यदि ऐसा हुआ तो
गुजरात के जीते गये चुनाव भी हमारे लिए चिंता का विषय है। मैं नरेन्द्र
मोदी का प्रशंसक इसलिए रहा हूं क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उच्श्रृखंलता पर
लगाम लगायी, किन्तु यदि मेरे मन में जरा भी यह भाव पैदा हुआ कि यह
उच्श्रृंखलता मोदी समर्थको की उच्श्रृंखलता में सहायक है तो मैं अपने अब
तक के एकपक्षीय मोदी सर्मथन के लिए देश से क्षमा मांग लॅूगा।
किन्तु यह बीमारी भारतीय जनता पार्टी की एकतरफा नही है। भारत के 65
सांसदों ने एक चिट्ठी लिखकर अमेरिका से गुप्त रुप से निवेदन किया है कि
मोदी को अमेरिका का वीजा न दिया जाय। ऐसे मोदी विरोधी पत्र का नेतृत्व एक
मुस्लिम सांसद ने किया। एक ऐसे सांसद ने ऐसे लोगो के हस्ताक्षर करवाए जो
आमतौर पर अमेरिका विरोधी के रूप में जाने जाते है। यहां तक कि उसमें
साम्यवादी नेता सीताराम येचुरी तक के हस्ताक्षर का दावा किया गया। सीताराम
येचुरी मोदी विरोधी होने की अपेक्षा अमेरिका विरोधी अधिक जाने जाते है।
दूसरी ओर तथाकथित मुस्लिम सांसद भी ये दावा करते है कि वे अमेरिका विरोधी
है। ऐसे अमेरिका विरोधी सांसदों द्वारा अमेरिका से इस प्रकार निवेदन करना
इनकी पोल खोलता है। चिठ्ठी गुप्त रूप से लिखी गयी थी, लेकिन प्रत्यक्ष हो
गयी तो अब ये अमेरिका विरोध का नाटक करने वाले अपनी-अपनी सफाई के लिए कह
रहे है कि उनके हस्ताक्षर जाली है। हस्ताक्षर कराने वाले अब भी दावा कर रहे
है कि उनके हस्ताक्षर असली है और ये सांसद सफाई दे रहे है कि हस्ताक्षर
नकली है। सब जानते है कि भारत में नकली हस्ताक्षर करना या हस्ताक्षर करके
इन्कार कर देना संप्रभु सांसदों के लिए किसी तरह खतरें की घंटी नही है।
चाहे नकली हो या असली लेकिन ये सांसद जनता की नजरों से बेदाग नही बच सकते।
वे तो बिल्कुल नही जिन्होंने अमेरिका विरोंधी होते हुए ये हस्ताक्षर कराकर
अमेरिका से निवेदन किया।
भारत में सम्मानित विद्वान अमर्त्य सेन ने अपना मत व्यक्त किया कि
नरेन्द्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री नही होना चाहिए। निजी तौर पर
अमर्त्य सेन के विचारों का पक्षधर या प्रशंसक न होते हुए भी उस भाषा और
तरीके का समर्थन नहीं किया जा सकता जिस भाषा में मोदीवादियों ने अमर्त्य
सेन को जवाब दिया है। यह पूरी तरह से इनके दिवालियेपन का सबूत है। अमर्त्य
सेन ने जो कहा वह अभिव्यक्ति की सीमाओं के अन्दर था। लेकिन जिस तरह से
मोदियावादियों ने उनके खिलाफ दुष्प्रचार किया वह अभिव्यक्ति की सीमाओं का
पूरी तरह से अनादर है। अभिव्यक्ति की आजादी को गुण्डागर्दी से दबाने का यह
संघ परिवार का पहला उदाहरण नही है। गुजरात के चुनाव में भी मेघा पाटकर के
साथ तथा कुछ अन्य गांधीवादियों के साथ ऐसा व्यवहार हो चुका है। नरेन्द्र
मोदी ने गुजरात में जिस तरह मुस्लिम संगठनों का घमंड को चकनाचूर किया उसने
मोदी को इतना आगे बढ़ा दिया। इसका यह अर्थ नही है कि मुस्लिम गुण्डों की
जगह अब हिन्दू गुण्डे अपना राज चलाएंगे। जिस तरह एक भाजपा नेता ने चुनाव
बाद अमर्त्य सेन का भारत रत्न छीन लेने की धमकी दी अथवा कुछ तथाकथित मोदी
प्रशंसकों ने अमर्त्य सेन की फिल्मी बेटी का चरित्र हनन करना शुरू किया यह
तो देश के लिए अभिव्यक्ति की आजादी पर एक बड़े खतरें के रुप में दिखाई दे
रहा है। यदि ऐसी गुण्ड़ागर्दी जारी रहती है तो अमर्त्य सेन से आगे बढ़कर
मैं खुद ऐसे मोदी समर्थक गुण्डो का विरोध करुंगा। मोदी को स्वयं आगे आकर इस
मुद्दे पर कुछ कहना चाहिए था, जो न कहकर उन्होंने भयंकर भूल की है।
भारतीय जनता पार्टी के अन्दर भी कुछ उथल पुथल जारी है। मध्य प्रदेश के
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मोदी के नाम पर मध्य प्रदेश विधानसभा
चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया। मध्य प्रदेश के चुनाव में वे मोदी को
छोड़कर अन्य राष्ट्रीय स्तर के भाजपा के नेताओं के नाम का उपयोग कर रहे है।
किन्तु मोदी के नाम से परहेज कर रहे है। अभी एक सर्वेक्षण में भी यह बात
सामने आयी है कि शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेष में मोदी से बहुत आगे है।
उसी तरह जिस तरह गुजरात में नरेन्द्र मोदी। इसलिए संभव है कि शिवराज सिंह
चौहान में भी महत्वाकांक्षा जगी हो अथवा उन्हें नरेन्द्र मोदी में कुछ
लोकतांत्रिक विचारों की कमी दिखती हो।
जो भी हो सारे देश का राजनैतिक वातावरण मोदी के पक्ष और विपक्ष पर आकर
सिमट गया है। इस चर्चा में सबसे अधिक मोदी के विरोध में मुस्लिम धर्म
प्रमुखों अथवा मुस्लिम राजनेताओं की उछलकूद दिखती है। अभी-अभी बाटला हाउस
इन्काउटर के न्यायिक नतीजें सामने आये और इसके बाद भी कांग्रेस के महासचिव
दिग्विजय सिंह को शर्म महसूस नही हुई जो इस एन्काउन्टर को फर्जी करार दे
रहे थे। आज भी अनेक निर्लज टीवी पर आकर उस आतंकवादी को निर्दोष कहते रहते
है। आतंकवादी के वकील उसके परिवार के लोग अथवा कुछ इष्ट मित्र उसे निर्दोष
कहें तो बात समझ में आती है। यदि उसके संगठन के साथी भी इसे निर्दोष कहें
तो ऐसे कहने वालो को क्षमा किया जा सकता है। किन्तु यदि कुछ अपवादों को
छोंड़कर आम मुसलमान उसके पक्ष में आवाज उठाने लगे तो ऐसा महसूस होता है कि
आज देश में मोदी जैसे प्रधानमंत्री की ही आवश्यकता है। यह प्रश्न अवश्य
विचारणीय है कि अधिकांश आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होते है? तथा ऐसे
आतंकवादी को पहचानते समय निर्दोष मुसलमानों से भी पूछताछ की जाये तो इससे
आम मुसलमानों को कष्ट क्यों होता है?
भारत के आम मुसलमानों को यह साफ कहना होगा कि वे आतंकवाद विरोधी सरकारी
गतिविधियों के समर्थक है, तटस्थ समीक्षक है, या विरोधी? यदि वे विरोधी है
तो नरेन्द्र मोदी सरीखे किसी समाधान की आवश्यकता महसूस होती है। बाटला हाउस
एन्काउन्टर में आम मुसलमानों की भूमिका न प्रसंशक की रही है, न तटस्थ
समीक्षक की बल्कि वह तो आतंकवाद समर्थक की ही ज्यादा दिखी है। यदि
आतंकवादियो में 90 प्रतिशत तक मुसलमानों की संख्या है तो जेलों में बंद
परीक्षण कालीन संदेहास्पद आतंकवादी नागरिकों में से भी निर्दोष मुसलमानों
की संख्या अधिक होना स्वाभाविक है। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से
यदि कोई रोक सकेगा तो वह है एकमात्र नरेन्द्र मोदी की तानाशाही का आभास और
यदि नरेन्द्र मोदी को कोई प्रधानमंत्री बना सकेगा तो वह है मुसलमानो का
विरोध में बढ़ चढकर हिस्सा लेना। आज नरेन्द्र मोदी के मामले में स्पष्ट है
कि नरेन्द्र मोदी का चुनाव जीतना़ देश की आवष्यकता है क्योंकि देश में
संगठित गिरोंहो पर लगाम लगाने वाला और कोई नही दिखता है। लेकिन इस सच का
दूसरा पहलू यह भी है कि नरेन्द्र मोदी के चुनाव जीतने का अर्थ है भारत में
भविष्य में कभी चुनाव नहीं होने तक की संभावनाओ का खतरा। यदि हमारे समक्ष
इस्लामिक उश्रृंखलता तथा अपराध वृद्धि के निवारण का समाधान दिखता है तो
दूसरी ओर हिन्दुत्व के नाम पर बढती उश्रृंखलता का खतरा भी खड़ा है। हमारे
सामने तानाशाही और सुव्यवस्था के बीच कोई एक मार्ग चुनने का संकट आ पड़ा
है।
फिर भी ये सब बातें हमारे अपने बीच की हैं। मोदी का समर्थन या विरोध यह
भारत का आंतरिक मामला हैं, जिसे हम मिल बैठकर सुलझा लेगें, किन्तु इस मामले
को अमेरिका में उठाकर राजनाथ सिंह अथवा 65 सांसदो ने जो भूल की है वह कोई
साधारण अपराध नही है। इसकी गंभीरता हमारे लिए चिंता का विषय है और भारत के
लोगों को इस बात से खुश होना चाहिए कि तथाकथित राष्ट्रवादियों और सेकुलर
समाज के अमेरिकी विरोध का नकली नकाब हट रहा है।