इद्दत की मुद्दत में हुज्जत
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उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को तलाक देने की
घोषणा की कर दी। दिल्ली में जिस अधिकार रैली से उन्होंने दम देना शुरू किया
था, वह दम्भ पटना में जाकर प्रकट हुआ। कई दिनों के मंथन मंचन के बाद
आखिरकार रविवार को उन्होंने तलाक उवाच कर दिया। चूंकि तलाकखोरों की कौम को
नीतीश कुमार अपने दिल की गहराइयों से बेपनाह मोहब्बत करने का विश्वास
दिलाने में व्यस्त हैं इसलिए यह मानने में हर्ज नहीं कि वे मुस्लिम पर्सनल
लॉ के तलाक कानून को जानते ही होंगे।
मुस्लिम पर्सनल लॉ तलाक चाहने वालों को इद्दत की मुद्दत देता
है। कानून चाहता है कि इद्दत की मुद्दत में हुज्जत न हो इसलिए मियां-बीवी
को कुछ दिनों के लिए अलग-अलग रख दिया जाता है ताकि दोनों निकाह टूटने के
बाद नया साथी तलाश सकें। सो, जब दिल्ली में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा
दिए जाने की मांग को लेकर जद (यू) ने रामलीला मैदान पर भाजपा से हट कर रैली
की। जब जद (यू) की रैली के तत्काल बाद भाजपा की बिहार इकाई ने गुजरात के
मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रमुख आतिथ्य में ‘हुंकार’ रैली के आयोजन की
हुंकार भरी। जब जद (यू) की कार्यकारिणी ने भाजपा को दिसंबर २०१३ तक
प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से विमर्श कर
घोषित करने की मांग की। तब लगा था कि जद (यू) ने २०१० में बिहार विधानसभा
में भारी चुनावी सफलता के बाद ‘एकला चलो’ का जो मन बनाया था उसके अमलीकरण
के लिए तलाक की नोटिस भेज दी है।
इद्दत की मुद्दत
राजनीतिक विश्लेषक दिसंबर २०१३ की समयसीमा को इद्दत की मुद्दत मान रहे थे। पर जब गोवा की भाजपा कार्यकारिणी में राजग और भाजपा के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी के पेटदर्द के बावजूद भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘नमो, नमो’ का जाप करते हुए नरेंद्र मोदी को पार्टी के चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष नेतृत्व का सिरोपा बांधकर बनाया तो जद (यू) प्रवक्ताओं की हुज्जत शुरू हो गई। गोवा कार्यकारिणी में मोदी की ताजपोशी का उत्सव अभी चढ़ता कि लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा में बढ़ते व्यक्तिवादी एजेंडे के खिलाफ पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। भाजपा और संघ परिवार ने चिरौरी कर श्री आडवाणी को अभी पूरी तरह मनाया भी नहीं था कि श्री आडवाणी को नीतीश कुमार को मनाने के लिए फोन डायल करना पड़ा। आडवाणी तो मान गए, अब उनके ही घर में सुषमा स्वराज और अनंतकुमार की मौजूदगी में जब माननीय राजनाथ सिंह ने यह घोषणा कर ही दी है तो हम सबको उनकी बात न मानने का कोई कारण नहीं। नीतिश कुमार को आडवाणीजी के साथ-साथ माननीय राजनाथ ने भी मनाने का प्रयास किया। पर नीतिश कहने लगे -‘जीने की दुआ देते हो और मरने की दवा करते हो।’ तो कल्याण सिंह भी खिलखिला पड़े। जीने की दुआ सुनकर दूसरी बार भाजपा के दरवाजे खड़े हैं और उन्हें कोई मरने की भी दवा देने को तैयार नहीं। मरने से बचने के लिए नीतिश कुमार ने इद्दत की मुद्दत में भारी हुज्जत कर नया साथी तलाश लिया। चूंकि बिहार विधानसभा में अपनी सरकार को बचाने के लिए उन्हें भाजपा कोटे के मंत्रिमंडल का महज एक अंश खर्च करना है सो न सरकार खतरे में है, न बिहार।
राजनीतिक विश्लेषक दिसंबर २०१३ की समयसीमा को इद्दत की मुद्दत मान रहे थे। पर जब गोवा की भाजपा कार्यकारिणी में राजग और भाजपा के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी के पेटदर्द के बावजूद भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘नमो, नमो’ का जाप करते हुए नरेंद्र मोदी को पार्टी के चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष नेतृत्व का सिरोपा बांधकर बनाया तो जद (यू) प्रवक्ताओं की हुज्जत शुरू हो गई। गोवा कार्यकारिणी में मोदी की ताजपोशी का उत्सव अभी चढ़ता कि लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा में बढ़ते व्यक्तिवादी एजेंडे के खिलाफ पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। भाजपा और संघ परिवार ने चिरौरी कर श्री आडवाणी को अभी पूरी तरह मनाया भी नहीं था कि श्री आडवाणी को नीतीश कुमार को मनाने के लिए फोन डायल करना पड़ा। आडवाणी तो मान गए, अब उनके ही घर में सुषमा स्वराज और अनंतकुमार की मौजूदगी में जब माननीय राजनाथ सिंह ने यह घोषणा कर ही दी है तो हम सबको उनकी बात न मानने का कोई कारण नहीं। नीतिश कुमार को आडवाणीजी के साथ-साथ माननीय राजनाथ ने भी मनाने का प्रयास किया। पर नीतिश कहने लगे -‘जीने की दुआ देते हो और मरने की दवा करते हो।’ तो कल्याण सिंह भी खिलखिला पड़े। जीने की दुआ सुनकर दूसरी बार भाजपा के दरवाजे खड़े हैं और उन्हें कोई मरने की भी दवा देने को तैयार नहीं। मरने से बचने के लिए नीतिश कुमार ने इद्दत की मुद्दत में भारी हुज्जत कर नया साथी तलाश लिया। चूंकि बिहार विधानसभा में अपनी सरकार को बचाने के लिए उन्हें भाजपा कोटे के मंत्रिमंडल का महज एक अंश खर्च करना है सो न सरकार खतरे में है, न बिहार।
जवाब दे भाजपा
भाजपा का एक बड़ा वर्ग इस तलाक की खबर सुन कर नीतिश कुमार को ‘नमकहराम’ करार देने पर आमादा है। पहले इस वर्ग का गुस्सा शांत करना जरूरी है। जब २००९ में यही नीतीश कुमार अपने दो दशकों के मार्गदर्शक जॉर्ज फर्नांडिस को धकियाकर पार्टी से निकाल रहे थे तब उनके इस गुण को पहचानने का काम किसी भाजपाई ने क्यों नहीं किया? जब नरेंद्र मोदी के स्वागत का पोस्टर लग जाने पर नीतीश की नाक चढ़ती देख कर भाजपा को झुकना पड़ा तब किसी ने उनसे नमक का फर्ज अदा करने को क्यों नहीं कहा? पाकिस्तान के प्रति सार्वजनिक प्रेम प्रदर्शित कर और गुजरात सरकार की कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए सहायता राशि स्वीकारने से मना कर देने पर किसी संघी का राष्ट्रवाद क्यों नहीं जागा? जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का केन्द्र बिहार में खोलने का ऐलान होने लगा तो द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की जड़ मानने वाली संस्था पर संघ परिवार ने हिंदुत्व की हुंकार क्यों नहीं भरी? तब नागपुर सत्ता के सामने क्यों नतमस्तक हुआ? यदि इन सवालों का राष्ट्र के सामने ईमानदार जवाब देने की कूवत न बची हो तो राष्ट्रवाद की फर्जी लाठी भांजना बंद कर देना ही बेहतर होगा।
भाजपा का एक बड़ा वर्ग इस तलाक की खबर सुन कर नीतिश कुमार को ‘नमकहराम’ करार देने पर आमादा है। पहले इस वर्ग का गुस्सा शांत करना जरूरी है। जब २००९ में यही नीतीश कुमार अपने दो दशकों के मार्गदर्शक जॉर्ज फर्नांडिस को धकियाकर पार्टी से निकाल रहे थे तब उनके इस गुण को पहचानने का काम किसी भाजपाई ने क्यों नहीं किया? जब नरेंद्र मोदी के स्वागत का पोस्टर लग जाने पर नीतीश की नाक चढ़ती देख कर भाजपा को झुकना पड़ा तब किसी ने उनसे नमक का फर्ज अदा करने को क्यों नहीं कहा? पाकिस्तान के प्रति सार्वजनिक प्रेम प्रदर्शित कर और गुजरात सरकार की कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए सहायता राशि स्वीकारने से मना कर देने पर किसी संघी का राष्ट्रवाद क्यों नहीं जागा? जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का केन्द्र बिहार में खोलने का ऐलान होने लगा तो द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की जड़ मानने वाली संस्था पर संघ परिवार ने हिंदुत्व की हुंकार क्यों नहीं भरी? तब नागपुर सत्ता के सामने क्यों नतमस्तक हुआ? यदि इन सवालों का राष्ट्र के सामने ईमानदार जवाब देने की कूवत न बची हो तो राष्ट्रवाद की फर्जी लाठी भांजना बंद कर देना ही बेहतर होगा।
बुद्धिवादी जमात
खैर, भाजपा को तलाक कहा जा चुका है। अब इस तलाक से क्या भाजपा हिंदुत्व पर लौट आएगी? वैसे स्वयंसेवकों की जानकारी के लिए बता दें कि नीतिश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस को ‘हिंदुत्व’ से परहेज नहीं हुआ करता था। बात १९९३ की है। मुंबई दंगे हुए थे। जॉर्ज फर्नांडिस, मृणाल गोरे आदि आए दिन शिवसेनाप्रमुख पर तोहमतें लगा रहे थे। छद्म सेकुलरों की ‘बुद्धिवादी’ जमात ने हिंदू होने पर शर्म महसूस कराने का अभियान छेड़ा। तब शिवसेनाप्रमुख ने मुसलमानों से कहा था -‘इन झूठे बुद्धिवादियों को अपना हितैषी मत मानो। ये सिर्फ तुम्हारे वोट के चक्कर में नेहरूवाद झाड़ रहे हैं, जैसे ही इन्हें पता लगेगा कि हिंदूवादियों की सरकार बनने वाली है, ये वहां पूंछ हिलाने लगेंगे।’ तब एकबारगी लगता था कि इतनी जल्दी यह बारी समाजवादी सेकुलरों पर नहीं आएगी। जब अप्रैल-मई १९९६ में लोकसभा के आम चुनाव हुए तो हम लोगों का आकलन गलत साबित हुआ था और शिवसेनाप्रमुख की भविष्यवाणी सटीक। इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी भले ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित हुए थे, पर भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में कश्मीर संबंधी संविधान की धारा ३७० का विरोध, समान नागरिक कानून और अयोध्या में भव्य राम मंदिर का संकल्प शेष था। इन तीनों मुद्दों पर १९८० और १९९० के दशक में भाजपा का सबसे प्रखर विरोध करने वालों में जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार थे। जॉर्ज ने तो १९७९ में आरएसएस और जनता पार्टी की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर मधु लिमये के कहने पर मोरारजी देसाई की सरकार भी गिराई थी। जब १९९६ में समाजवादी नेतृत्व ने भांपा कि भाजपा ही देश में सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरने जा रही है तो उन्हें भाजपा से बिहार और उत्तर प्रदेश में गठबंधन करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। तब जॉर्ज और नीतिश कुमार ने समता पार्टी बनाई थी। तब मुस्लिम समुदाय में कल्याण सिंह और लालकृष्ण आडवाणी आज के नरेंद्र मोदी की तुलना में कई गुना बड़े खलनायक थे।
खैर, भाजपा को तलाक कहा जा चुका है। अब इस तलाक से क्या भाजपा हिंदुत्व पर लौट आएगी? वैसे स्वयंसेवकों की जानकारी के लिए बता दें कि नीतिश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस को ‘हिंदुत्व’ से परहेज नहीं हुआ करता था। बात १९९३ की है। मुंबई दंगे हुए थे। जॉर्ज फर्नांडिस, मृणाल गोरे आदि आए दिन शिवसेनाप्रमुख पर तोहमतें लगा रहे थे। छद्म सेकुलरों की ‘बुद्धिवादी’ जमात ने हिंदू होने पर शर्म महसूस कराने का अभियान छेड़ा। तब शिवसेनाप्रमुख ने मुसलमानों से कहा था -‘इन झूठे बुद्धिवादियों को अपना हितैषी मत मानो। ये सिर्फ तुम्हारे वोट के चक्कर में नेहरूवाद झाड़ रहे हैं, जैसे ही इन्हें पता लगेगा कि हिंदूवादियों की सरकार बनने वाली है, ये वहां पूंछ हिलाने लगेंगे।’ तब एकबारगी लगता था कि इतनी जल्दी यह बारी समाजवादी सेकुलरों पर नहीं आएगी। जब अप्रैल-मई १९९६ में लोकसभा के आम चुनाव हुए तो हम लोगों का आकलन गलत साबित हुआ था और शिवसेनाप्रमुख की भविष्यवाणी सटीक। इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी भले ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित हुए थे, पर भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में कश्मीर संबंधी संविधान की धारा ३७० का विरोध, समान नागरिक कानून और अयोध्या में भव्य राम मंदिर का संकल्प शेष था। इन तीनों मुद्दों पर १९८० और १९९० के दशक में भाजपा का सबसे प्रखर विरोध करने वालों में जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार थे। जॉर्ज ने तो १९७९ में आरएसएस और जनता पार्टी की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर मधु लिमये के कहने पर मोरारजी देसाई की सरकार भी गिराई थी। जब १९९६ में समाजवादी नेतृत्व ने भांपा कि भाजपा ही देश में सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरने जा रही है तो उन्हें भाजपा से बिहार और उत्तर प्रदेश में गठबंधन करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। तब जॉर्ज और नीतिश कुमार ने समता पार्टी बनाई थी। तब मुस्लिम समुदाय में कल्याण सिंह और लालकृष्ण आडवाणी आज के नरेंद्र मोदी की तुलना में कई गुना बड़े खलनायक थे।
समझौते में संकोच नहीं
आडवाणी की उपस्थिति और कल्याण सिंह की प्रशासनिक समझौतापरस्ती से अयोध्या में बाबरी विध्वंस का आरोप था। इस विध्वंस के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। इन दंगों का दोष १९९३-९६ तक जॉर्ज और नीतिश, कल्याण सिंह और आडवाणी पर ही लगाया करते थे। किन्तु जब उन्होंने पाया कि सत्ता की माध्यम भाजपा ही हो सकती है तो कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व में भी नीतिश कुमार को यूपी में भाजपा से चुनावी समझौता करने में कोई संकोच नहीं हुआ था। जॉर्ज फर्नांडिस ने उन्हीं आडवाणी से सीटों पर समझौते किए थे जिसको वे १९९२-९३ के सांप्रदायिक उत्पात की जड़ करार दिया करते थे। खैर, १९९८ में जब भाजपा के नेतृत्व वाली स्थिर सरकार की बात आई और भाजपा-शिवसेना-शिरोमणि अकाली दल और समता पार्टी के अलावा अन्य दलों के समर्थन की आवश्यकता पड़ी तब जॉर्ज फर्नांडिस के संयोजन में जो राजग बना उसके न्यूनतम साझा कार्यक्रम से भाजपा के हिंदुत्व के तीनों मुद्दे स्थगित कर दिए गए। सो, पहले यह जान लें कि नीतिश कुमार जब भाजपा के कमल पर मोहित हुए थे तब उनकी समता पार्टी ने भाजपा के हिंदुत्व का विरोध नहीं किया था। तभी नीतिश की पार्टी को पहली बार बिहार में ६ और यूपी में १ लोकसभा सीटें जीतने में सफलता मिली थी। कुछ सेकुलरों के साथ-साथ कुछ भाजपाई भी तर्क देते हैं कि विवादित मुद्दों को स्थगित करने से भाजपा की सीट संख्या बढ़ गई। यह दावा छलावा है।
आडवाणी की उपस्थिति और कल्याण सिंह की प्रशासनिक समझौतापरस्ती से अयोध्या में बाबरी विध्वंस का आरोप था। इस विध्वंस के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। इन दंगों का दोष १९९३-९६ तक जॉर्ज और नीतिश, कल्याण सिंह और आडवाणी पर ही लगाया करते थे। किन्तु जब उन्होंने पाया कि सत्ता की माध्यम भाजपा ही हो सकती है तो कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व में भी नीतिश कुमार को यूपी में भाजपा से चुनावी समझौता करने में कोई संकोच नहीं हुआ था। जॉर्ज फर्नांडिस ने उन्हीं आडवाणी से सीटों पर समझौते किए थे जिसको वे १९९२-९३ के सांप्रदायिक उत्पात की जड़ करार दिया करते थे। खैर, १९९८ में जब भाजपा के नेतृत्व वाली स्थिर सरकार की बात आई और भाजपा-शिवसेना-शिरोमणि अकाली दल और समता पार्टी के अलावा अन्य दलों के समर्थन की आवश्यकता पड़ी तब जॉर्ज फर्नांडिस के संयोजन में जो राजग बना उसके न्यूनतम साझा कार्यक्रम से भाजपा के हिंदुत्व के तीनों मुद्दे स्थगित कर दिए गए। सो, पहले यह जान लें कि नीतिश कुमार जब भाजपा के कमल पर मोहित हुए थे तब उनकी समता पार्टी ने भाजपा के हिंदुत्व का विरोध नहीं किया था। तभी नीतिश की पार्टी को पहली बार बिहार में ६ और यूपी में १ लोकसभा सीटें जीतने में सफलता मिली थी। कुछ सेकुलरों के साथ-साथ कुछ भाजपाई भी तर्क देते हैं कि विवादित मुद्दों को स्थगित करने से भाजपा की सीट संख्या बढ़ गई। यह दावा छलावा है।
अबकी बारी अटल बिहारी
भाजपा को १९९६ में १६१ और १९९८ में १८१ सीटों पर सफलता मिली। इन चुनावों तक भाजपा के घोषणापत्र, प्रचार साहित्य और नेताओं के चुनावी भाषणों में हिंदुत्व न केवल जिंदा था बल्कि जवान था। तब अकेले उत्तर प्रदेश से भाजपा के ५८ सांसद चुने गए थे। भाजपा ने १९९८ में हिंदुत्व को हाशिए पर रखा तो तेरह माह बाद गिरी सरकार की सहानुभूति भी यूपी में भाजपा को भरभरा कर गिरने से रोक नहीं पाई। १९९९ के लोकसभा चुनावों में यूपी में भाजपा ५८ से गिरकर २९ रह गई थी। जबकि १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने परमाणु परीक्षण किया था और कारगिल विजय की चुनावी ब्रांडिंग करने तथा सिर्फ एक वोट से गिरी सरकार के लिए अपना एक वोट ‘अबकी बारी अटल बिहारी’ को ही देने का अभियान तत्कालीन चुनाव अभियान समिति ने प्रमोद महाजन के नेतृत्व में सफलतापूर्वक चलाया था। १९९९ से आज दिन तक भाजपा का हिंदुत्व स्थगित है। भाजपा १९९९ में १९९८ के १८१ के आंकड़े में सिर्फ १ सीट बढ़ा पाई थी वह भी तब जब उसके चुनाव पूर्व गठबंधन साथियों की संख्या में खासा इजाफा हो चुका था। २००४ और २००९ में वह प्रखर राष्ट्रवाद से दूर रही तो उसके सीटों की संख्या पहले १३८ हुई, फिर ११६ पर जा रुकी। नीतिश कुमार अकेले बिहार में १९९६ के ६ से २००९ में २० तक पहुंच गए। इस सेकुलरवाद का फायदा किसको हुआ? भाजपा को या नीतिश कुमार को? जिस भाजपा के पास यूपी से ५८ लोकसभा सदस्य थे बीते २ चुनावों में वह गिरते-पड़ते दहाई के आंकड़े पर आती है और लटक जाती है। जब भाजपा के पास हिंदुत्व था तब उसने गांधी परिवार की अमेठी सीट भी १९९८ में छीन ली थी। अमेठी से भाजपा के संजय सिंह सांसद थे तो रायबरेली से उनके सहअभियुक्त अखिलेश सिंह के भाई अशोक सिंह।
भाजपा को १९९६ में १६१ और १९९८ में १८१ सीटों पर सफलता मिली। इन चुनावों तक भाजपा के घोषणापत्र, प्रचार साहित्य और नेताओं के चुनावी भाषणों में हिंदुत्व न केवल जिंदा था बल्कि जवान था। तब अकेले उत्तर प्रदेश से भाजपा के ५८ सांसद चुने गए थे। भाजपा ने १९९८ में हिंदुत्व को हाशिए पर रखा तो तेरह माह बाद गिरी सरकार की सहानुभूति भी यूपी में भाजपा को भरभरा कर गिरने से रोक नहीं पाई। १९९९ के लोकसभा चुनावों में यूपी में भाजपा ५८ से गिरकर २९ रह गई थी। जबकि १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने परमाणु परीक्षण किया था और कारगिल विजय की चुनावी ब्रांडिंग करने तथा सिर्फ एक वोट से गिरी सरकार के लिए अपना एक वोट ‘अबकी बारी अटल बिहारी’ को ही देने का अभियान तत्कालीन चुनाव अभियान समिति ने प्रमोद महाजन के नेतृत्व में सफलतापूर्वक चलाया था। १९९९ से आज दिन तक भाजपा का हिंदुत्व स्थगित है। भाजपा १९९९ में १९९८ के १८१ के आंकड़े में सिर्फ १ सीट बढ़ा पाई थी वह भी तब जब उसके चुनाव पूर्व गठबंधन साथियों की संख्या में खासा इजाफा हो चुका था। २००४ और २००९ में वह प्रखर राष्ट्रवाद से दूर रही तो उसके सीटों की संख्या पहले १३८ हुई, फिर ११६ पर जा रुकी। नीतिश कुमार अकेले बिहार में १९९६ के ६ से २००९ में २० तक पहुंच गए। इस सेकुलरवाद का फायदा किसको हुआ? भाजपा को या नीतिश कुमार को? जिस भाजपा के पास यूपी से ५८ लोकसभा सदस्य थे बीते २ चुनावों में वह गिरते-पड़ते दहाई के आंकड़े पर आती है और लटक जाती है। जब भाजपा के पास हिंदुत्व था तब उसने गांधी परिवार की अमेठी सीट भी १९९८ में छीन ली थी। अमेठी से भाजपा के संजय सिंह सांसद थे तो रायबरेली से उनके सहअभियुक्त अखिलेश सिंह के भाई अशोक सिंह।
खुशी से खुशफहमी!
आज भाजपा अपने हिंदुत्व के नए ब्रांड एंबेसेडर नरेंद्र मोदी को यूपी न ले आए तो उसे लखनऊ की सीट जीतने में भी संदेह है। सो, इतना तो तय है कि सेकुलर एजेंडा स्वीकारने से भाजपा को सत्ता भले कहीं मिल गई हो उसका राजनीतिक विस्तार कत्तई नहीं हुआ। उसका वैचारिक-सामाजिक और सांगठनिक संकुचन ही हुआ। इसलिए नीतीश कुमार के तलाक पर उसे वास्तव में खुश होना चाहिए। हां, ध्यान रहे कि यदि वह हिंदुत्व के वास्तववादी स्वरूप का प्रसार नहीं कर पाती तो खुशी खुशफहमी में तब्दील हो जाएगी। तमाम चैनलों के सर्वेक्षण कह रहे हैं कि मोदीयुक्त भाजपा नीतिश के बिना बिहार में ‘स्वीप’ करनेवाली है। यह चमत्कार मोदी के हिंदुत्व का होगा या विकास का? यदि विकास मुद्दा है तो नीतिश के पास भी प्रचार करने के लिए बिहार जीडीपी की वृद्धि दर के जादुई आंकड़े हैं। यदि हिंदुत्व है तो वह कौन-सा है? वही जिसके सारथी कभी लालकृष्ण आडवाणी हुआ करते थे? राजनाथ सिंह कहते हैं कि हिंदुत्व प्रचार में हमारा मुद्दा नहीं होगा। राम मंदिर निर्माण हमारे एजेंडे में नहीं। तो क्या कश्मीर संबंधी धारा ३७० की मांग या समान नागरिक कानून भाजपा के एजेंडे में लौटेंगे? क्या मोदी यह विश्वास दिला पाएंगे कि ६ वर्षों तक सतत सरकार में बैठकर अटलजी-आडवाणीजी जिन मुद्दों से कन्नी काटते रहे उसे वे साकार कर देंगे? यदि मोदी का हिंदुत्व इससे कुछ हटकर है तो वह क्या है?
आज भाजपा अपने हिंदुत्व के नए ब्रांड एंबेसेडर नरेंद्र मोदी को यूपी न ले आए तो उसे लखनऊ की सीट जीतने में भी संदेह है। सो, इतना तो तय है कि सेकुलर एजेंडा स्वीकारने से भाजपा को सत्ता भले कहीं मिल गई हो उसका राजनीतिक विस्तार कत्तई नहीं हुआ। उसका वैचारिक-सामाजिक और सांगठनिक संकुचन ही हुआ। इसलिए नीतीश कुमार के तलाक पर उसे वास्तव में खुश होना चाहिए। हां, ध्यान रहे कि यदि वह हिंदुत्व के वास्तववादी स्वरूप का प्रसार नहीं कर पाती तो खुशी खुशफहमी में तब्दील हो जाएगी। तमाम चैनलों के सर्वेक्षण कह रहे हैं कि मोदीयुक्त भाजपा नीतिश के बिना बिहार में ‘स्वीप’ करनेवाली है। यह चमत्कार मोदी के हिंदुत्व का होगा या विकास का? यदि विकास मुद्दा है तो नीतिश के पास भी प्रचार करने के लिए बिहार जीडीपी की वृद्धि दर के जादुई आंकड़े हैं। यदि हिंदुत्व है तो वह कौन-सा है? वही जिसके सारथी कभी लालकृष्ण आडवाणी हुआ करते थे? राजनाथ सिंह कहते हैं कि हिंदुत्व प्रचार में हमारा मुद्दा नहीं होगा। राम मंदिर निर्माण हमारे एजेंडे में नहीं। तो क्या कश्मीर संबंधी धारा ३७० की मांग या समान नागरिक कानून भाजपा के एजेंडे में लौटेंगे? क्या मोदी यह विश्वास दिला पाएंगे कि ६ वर्षों तक सतत सरकार में बैठकर अटलजी-आडवाणीजी जिन मुद्दों से कन्नी काटते रहे उसे वे साकार कर देंगे? यदि मोदी का हिंदुत्व इससे कुछ हटकर है तो वह क्या है?
‘नमो भाजपा, नमो-नमो!’
हम हिंदुत्व के सवाल न भी पूछें तो जनता तो यह जानना चाहेगी कि भाजपा की आर्थिक नीति क्या होगी? अटलजीवाली, आडवाणीजी वाली या संघ परिवार वाली? अटलजी की सरकार ने उदार आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया था, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के दरवाजे खोले थे, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का विनिवेश किया था, पेंशन उदारीकरण पर उनके कार्यकाल में काम हुआ था। आडवाणीजी के नेतृत्व में भाजपा २००४-२०१३ तक मनमोहन सिंह सरकार की इन्हीं नीतियों का विरोध कर रही है। संघ परिवार तो स्वदेशी समर्थक रहा है। फिर वह बहुराष्ट्रीय और विदेशी के मुद्दे पर कहां होगा? क्या नरेंद्र मोदी इन तीनों स्थितियों की बजाय कोई चौथा आर्थिक फॉर्मूला लाएंगे? मोदी की वैदेशिक नीति क्या होगी? क्या वह अटलजी की लाहौर यात्रा और आडवाणीजी के ‘जिन्नाजाप’ के खिलाफ खड़े होंगे? आडवाणीजी परमाणु समझौते के बाद अमेरिका विरोधी वैदेशिक नीति प्रदर्शित करते रहे हैं। मोदी कहां होंगे? नीतीश की बजाय मिडल क्लास वोटर इन सवालों में ज्यादा रुचि रखता है। जब इन सवालों के संतोषजनक जवाब भाजपा का कैडर जनता तक पहुंचा पाएगा तो भाजपा का घोड़ा फिर ११६ से १८२ पहुंच जाएगा। जब उसके पास सरकार बनाने की ताकत होगी तो जैसा शिवसेनाप्रमुख कह गए हैं सेकुलर अपनी टोपी उतार कर ‘नमो भाजपा, नमो-नमो!’ कहने में संकोच नहीं करेंगे। एक नीतिश जा रहे हैं, दस नीतिश लौट आएंगे।
हम हिंदुत्व के सवाल न भी पूछें तो जनता तो यह जानना चाहेगी कि भाजपा की आर्थिक नीति क्या होगी? अटलजीवाली, आडवाणीजी वाली या संघ परिवार वाली? अटलजी की सरकार ने उदार आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया था, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के दरवाजे खोले थे, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का विनिवेश किया था, पेंशन उदारीकरण पर उनके कार्यकाल में काम हुआ था। आडवाणीजी के नेतृत्व में भाजपा २००४-२०१३ तक मनमोहन सिंह सरकार की इन्हीं नीतियों का विरोध कर रही है। संघ परिवार तो स्वदेशी समर्थक रहा है। फिर वह बहुराष्ट्रीय और विदेशी के मुद्दे पर कहां होगा? क्या नरेंद्र मोदी इन तीनों स्थितियों की बजाय कोई चौथा आर्थिक फॉर्मूला लाएंगे? मोदी की वैदेशिक नीति क्या होगी? क्या वह अटलजी की लाहौर यात्रा और आडवाणीजी के ‘जिन्नाजाप’ के खिलाफ खड़े होंगे? आडवाणीजी परमाणु समझौते के बाद अमेरिका विरोधी वैदेशिक नीति प्रदर्शित करते रहे हैं। मोदी कहां होंगे? नीतीश की बजाय मिडल क्लास वोटर इन सवालों में ज्यादा रुचि रखता है। जब इन सवालों के संतोषजनक जवाब भाजपा का कैडर जनता तक पहुंचा पाएगा तो भाजपा का घोड़ा फिर ११६ से १८२ पहुंच जाएगा। जब उसके पास सरकार बनाने की ताकत होगी तो जैसा शिवसेनाप्रमुख कह गए हैं सेकुलर अपनी टोपी उतार कर ‘नमो भाजपा, नमो-नमो!’ कहने में संकोच नहीं करेंगे। एक नीतिश जा रहे हैं, दस नीतिश लौट आएंगे।