...लेकिन मुसलमानों का वोट कभी मुस्लिम चेहरे पर नहीं गया
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-कौम का नेता साबित करने की होड़ मची है मुस्लिम नेताओं में
नदीम
लखनऊ:मौलाना
बुखारी हों या
फिर आजम खां, बेशक
उन्हें यह
दावा करने से
कोई नहीं रोक
सकता कि
विधानसभा
चुनाव में
समाजवादी
पार्टी को वोट
देने का
मुसलमानों का
जो एकतरफा
रूझान था, उसकी वजह
वो ही थे
लेकिन अगर
चुनावी
नतीजों का
रेकार्ड देखा
जाए तो पता
चलता है कि
मुस्लिम वोट
कभी मुस्लिम
चेहरे पर नहीं
गए। मुस्लिम
नेतृत्व पर
भरोसा करने के
बजाय
मुसलमानों ने
हमेशा गैर
मुस्लिम
लीडरशिप पर
ज्यादा भरोसा
किया, वह
चाहे
हेमवतीनंदन
बहुगुणा हों,
वीपी
सिंह या फिर
मुलायम सिंह
यादव।
2012 के
ही चुनाव
नतीजों पर नजर
डाली जाए तो
तस्वीर साफ-साफ
दिखती है। जिस
चुनाव में
सबसे ज्यादा 68
मुस्लिम
विधायक चुनाव
जीते हैं, उसी
चुनाव में
मुस्लिम
कयादत वाली
पार्टियों को
मुंह की खानी
पड़ी है।
मुसलमानों को
आतंकी साबित
करने की
विचारधारा के
खिलाफ बनी
उलेमा कौंसिल
जैसी पार्टी
को भी मुस्लिम
मतदाताओं ने
बुरी तरह से
नकार दिया।
उलेमा कौंसिल
ने सर्वाधिक
मुस्लिम
आबादी वाली 64 सीटों
पर अपने
उम्मीदवार
उतारे थे
लेकिन सभी सीटों
पर उसकी जमानत
जब्त हो गई।
सिर्फ और सिर्फ
0.21
प्रतिशत वोट
मिले। डा.
अयूब के
नेतृत्व में पीस
पार्टी बनी।
खुद को
मुसलमानों के
हक के लिए
लडऩे वाली
एकमात्र
पार्टी साबित
करने के लिए
कोई कोर-कसर
बाकी नहीं रखी
गई लेकिन
नतीजा क्या
रहा लेकिन 208
उम्मीदवारों
से केवल चार
उम्मीदवार ही
जीत पाए, इनमें से
एक रायबरेली
से अखिलेश
सिंह भी शामिल
हैं
जिन्होंने
पिछला चुनाव
निर्दलीय
उम्मीदवार के
रूप में जीता
था और इससे
पूर्व वह
कांग्रेस के
टिकट पर चुनाव
जीतते रहे
हैं। इंडियन
मुस्लिम
यूनियन लीग ने
भी उप्र में
मुसलमानों पर
भरोसा कर दांव
लगाया लेकिन
कहीं की नहीं
रहीं। रामपुर
जैसे मुस्लिम बहुल
विधानसभा
क्षेत्र में
लीग के
उम्मीदवार को
सिर्फ 1500 वोट मिले।
सभी दस की दस
सीटों पर
जमानत जब्त हो
गई। मुस्लिम
हुकूक के लिए
लडऩे का दावा
करते हुए
इत्तेहाद
मिल्लत कौंसिल
बनी। बरेली
मंडल की 18 सीटों पर
अपने
उम्मीदवार
उतारे लेकिन
आधा फीसदी वोट
भी नहीं बटोर
पाई। एक सीट
जिस पर उसे कामयाबी
मिली, वह
शहजिल इस्लाम
की थी, जो
पिछली बसपा
सरकार में
मंत्री थे, बसपा ने
उनका टिकट काट
दिया तो
उन्होंने
मिल्लत
कौंसिल से
टिकट ले लिया
था। मौलाना
बुखारी जिनका
यह दावा है कि
उप्र के
मुसलमानों ने
उनके कहने पर
समाजवादी
पार्टी को वोट
दिया, उनके
दामाद
समाजवादी
पार्टी के
टिकट पर बेहट जैसी
मुस्लिम
बाहुल सीट से
बुरी तरह
चुनाव हार गए।
बात
अकेले सिर्फ
एक चुनाव की
नहीं है।
2007 के
चुनाव के
नतीजे भी
देखिए।
यूनाईटेड
डेमोक्रेटिक
फ्रंट बना था।
मौलाना
बुखारी इस
फ्रंट के
संरक्षक थे। 54 सीटों
पर इस फ्रंट
ने उम्मीदवार
उतारे थे, उनमें से 51 सीटों
पर उसके
उम्मीदवारों
की जमानत जब्त
हो गई।
एकमात्र सीट
पर जो जीत
मिली इस फ्रंट
को, वह
थी हाजी याकूब
कुरैशी की सीट
जो मंत्री थे,
पूर्ववर्ती
सरकार में।
इसके अलावा
मुस्लिम यूनियन
लीग, आल
इंडिया
माइनारटीज
फोरम, इत्तेहाद
मिल्लत
कौंसिल, इस्लाम
पार्टी हिंद,
मोमिन
कांफ्रेंस ने
भी मुसलमानों
पर अपना हक
जताते हुए
अपने-अपने
उम्मीदवार
उतारे थे लेकिन
इन पार्टियों
का एक भी
उम्मीदवार
अपनी जमानत
बचाने में
कामयाब नहीं
हुआ।
वर्ष
2002 के
चुनाव में भी
मुस्लिम
विधानसभा
क्षेत्रों
में मुस्लिम
यूनियन लीग के
18
उम्मीदवार
उतरे थे और इन
सभी की जमानत
जब्त हो गई।
नेशनल
लोकतांत्रिक
पार्टी ने 130
उम्मीदवार
उतारे थे, इनमें से 126 की
जमानत जब्त हो
गई। मोमिन
कांफ्रेंस ने
भी 20
उम्मीदवार
उतारे थे
लेकिन इस
पार्टी का भी
कोई
उम्मीदवार
अपनी जमानत
नहीं बचा
पाया। ऐसा ही
पूर्व के भी
सभी चुनावों
में होता रहा
है।
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क्या धार्मिक नेताओं की राजनीति में दखलअंदाजी उचित है?
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- ट्रैक
से हटना
न्यायोचित
नहीं है। अगर
बुखारी साहब
पूरी
कम्यूनिटी की
बात कर रहे
होते तो उसमें
कोई बुराई
नहीं थी।
धार्मिक
नेताओं का काम
ही होता है
कम्युनिटी की
भलाई के लिए
सोचना और उस
पर अमल कराना
लेकिन
कम्युनिटी के
नाम पर पर्सनल
एजेंडा आगे कर
दिया जाए तो
मैं उसे किसी
भी सूरत में
उचित नहीं
मानता। दूसरे
नीयत भी देखी
जाती है। अगर
हम कम्युनिटी
के कल्याण के
लिए
प्रतिबद्ध
हैं तो हमारी
प्रतिबद्धता
निरंतरता में
दिखनी चाहिए।
ऐसा नहीं होना
चाहिए कि हम
किसी की हुकुमत
तो चुप्पी साध
लें। दूसरी
हुकुमत में कम्युनिटी
के नाम पर
अपना एजेंडा
आगे कर दें।
बात बन जाए तो
फिर चुप्पी।
डा.अकील
अहमद
विभागाध्यक्ष,
लखनऊ
विवि
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दखल
अंदाजी पर रोक
तो कोई नहीं
है लेकिन इसे
उचित नहीं
माना जा सकता।
अब जैसे
मौलाना बुखारी
का मसला है, वह इतनी
बड़े ओहदे पर
हैं लेकिन वह
राजनीतिकों
की मानिंद
व्यवहार कर
रहे हैं जो
उनके ओहदे के
हिसाब से शोभा
नहीं देता।
बेहतर होगा कि
बुखारी साहब
को अगर
मुसलमानों के
हक के लिए
इतना ही खुलकर
लडऩा है तो वह
समाजवादी
पार्टी के
ओहदेदार बन
जाएं। पार्टी
के अंदर रहकर
वह और ज्यादा
अच्छे तरीके
से मुसलमानों
की बात रख
सकते हैं।
वैसे जहां तक
मैं समझता हूं
कि किसे
मंत्री बनाना
है, किसे
नहीं, यह
मुख्यमंत्री
का
विशेषाधिकार
होता है और पार्टी
से टिकट देने
का अधिकार
पार्टी
प्रमुख में
निहित होता
है।
मुश्ताक
अहमद
सिद्दीकी
वरिष्ठ
अधिवक्ता
हाइकोर्ट
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मौलाना
बुखारी का
रवैया कतई
उचित नहीं है।
इससे
मुसलमानों को
होशियार रहना
चाहिए और खास
तौर से मुलायम
सिंह यादव को
भी। इसकी
प्रतिक्रिया
होगी। आप एक
धार्मिक नेता
के दबाव में
अपने फैसले
बदलने लगेंगे
तो कट्टरवाद
को बढ़ावा
मिलेगा।
मुल्क में और
खास तौर से
उप्र में
नब्बे के दशक
जैसे हालात
फिर पैदा हो
जाएंगे, यह
मुसलमानों के
लिए कतई उचित
नहीं है। कौम
के नाम पर
सियासत करने
वाले धार्मिक
नेताओं से मुसलमानों
को बचना
चाहिए।
मुनव्वर
राना
प्रख्यात
शायर