चुनाव में एक सौतेली कौम का दर्द
https://tehalkatodayindia.blogspot.com/2012/01/blog-post_10.html
जमशेद सिद्दीकी
मुल्क के एक कोने से ‘मुस्लिम-मुस्लिम’ आवाज़ आ रही है, चौकना लाज़मी है। यकीन करना मुश्किल है मगर आवाज़ जानी पहचानी है। एक मायूस, बदहवास और पिछड़ी कौम, जिसे सियासत से अगर कुछ हासिल हुआ तो सिर्फ 'हमदर्दी', कैसे यकीन कर ले की सियासी मौसम में ये पुकार उसकी तकदीर बदल सकती है।
‘आरक्षण का नारा’ और ‘चुनाव का वक़्त’ पुराने साथी हैं और इतिहास गवाह है की इनका साथ हमेशा रंग लाया है। लगभग 3 साल पहले अपने मनिफेस्तो में पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण का ज़िक्र करने वाली कांग्रेस अब तक सोती क्यों रही या , क्या ये नए सियासी समीकरण गढ़ने की एक नयी कोशिश है ? - पूछा जा सकता है। लेकिन मौक़ा एक कौम की तरक्की से जुड़े सवालों की ज़मीन तलाशने का है तो इस सवाल को नज़र अंदाज़ कर, आगे बढ़ा जा सकता है। किसी राज्य में 18.5% वोट की ताक़त सियासतदाओं को कुछ तो सोचने पर मजबूर करेगी ही, साथ ही तर्क ये भी दिया जा सकता है की, ' चुनाव के वक़्त ही क्यों' से ज्यादा प्रासंगिक 'चुनाव के बहाने ही सही' है - हाँ मगर , इस सियासी फैसले पर किसी की पीठ नहीं थपथपाई जा सकती।
हालांकि, इस मसले पर सियासी भौवें चढ़ना लाज़मी है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के कुछ अपने राजनितिक समीकरण हैं जो इस फैसले से बिगड़ सकते हैं आखिर सवाल उस कौम का है जो आज़ादी के बाद से ही वैश्वीकरण के माहौल में, भागते वक़्त के साथ रफ़्तार नहीं मिला सकी और एक बार जो पीछे छूटी तो छूटती ही चली गयी। इस कौम को न सिर्फ गैरों से धोखा मिला बल्कि अपने रहनुमाओं ने भी उलझा कर रख। आज के हालात देखें तो लगता है जैसे ये कौम एक सच्ची और इमानदार रहनुमाई की राह तकते-तकते सो गयी और पीछे छूट गयी, अपने वोट की ताक़त का सही इस्तमाल कभी तो इसने खुद नहीं किया और कभी करने नहीं दिया गया मगर वोट बैंक की फिक्र 5 साल में एक बार ही सही, हुकुमत और सियासत को इनकी तरफ मुस्कुरा कर देखने पर मजबूर कर ही देती है ,
मुलायम सिंह यादव की बातें और मायावती की केंद्र को चिट्ठियां इस बात की तस्दीक तो करती हैं की इस फैसले की ज़रुरत है, मगर बुनियादी तौर पर अमली जमा पहनाने के लिए कोई ठोस कोशिश नहीं करता। उनका फ़र्ज़, महज़ पिछड़े मुसलमानों के झंडे को उठाने की औपचारिकता से ही पूरा हो जाता लगता है, मगर हकीकत कहीं उदास है। एक कौम जिसकी आजादी के 64 साल बाद भी आधी से ज्यादा आबादी अनपढ़ और 1/3 बेरोजगार हैं, जो न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक रूप से भी समाज की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाई है, जो अपने विकास के लिए उतनी ही हक़दार है जितनी दूसरी पसमांदा कौमे, जिसके हालात बकौल सच्चर कमेटी दलित से भी ज्यादा खराब हैं, - अब अपना हक मांग रही है तो विरोध के तर्क सही नहीं हो सकते।
मगर सम्प्रदायिकता से अपने घर चलाने वाली कुछ सियासी पार्टियाँ इसे देश की ‘एकता पर प्रहार’ के रूप में देख रही हैं, उनका कहना है की OBC के 27% आरक्षण में अगर मुस्लिम पसमांदा के लिए 'quota within quota' की व्यवस्था की गयी , तो तय अनुपात बिगड़ जाएगा, जिससे हिन्दू OBC और मुस्लिम OBC के बीच तनाव हो सकता है, हालांकि ये एक कोरी बकवास है बल्कि ये हिन्दू OBC को उकसाने का प्रयास है। चौकाने वाली बात ये है की सांप्रदायिक सौहार्द की फिक्र उस विपक्षी दल को हो रही है जिसकी ‘सांप्रदायिक सौहार्द की करतूत 1992 में पूरी दुनिया ने देखा था। इसी राजनीतिक जमात के एक नेता जो मध्य प्रदेश के CM भी थे, सच्चर कमेटी की सिफारिशों के खिलाफ थे - जिनका तर्क था – ‘इससे देश बट जाएगा’। राजनाथ सिंह जो आगामी चुनाव में अच्छे अंको से पास होने के लिए मेहनत कर रहे हैं , ये कहने से गुरेज़ नहीं करते की 'मुस्लिम OBC आरक्षण दो मज़हब के बीच तनाव बढ़ा सकता है और तो और सियासी मजबूरी की पराकाष्ठा देखिये की, मुख्तार अब्बास नकवी जैसे नेता जो खुद मुस्लिम समाज की ज़मीनी सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ हैं, पार्टी की विचारधारा के दबाव में आव-बाव बक रहे हैं, तर्क उनका भी वही है - 'देश बट जाएगा', मगर कैसे? इसका जवाब उनकी किसी जेब में नहीं है।
एक गुज़रे हुए ज़माने में ‘India Shining’ का खोखला नारा गूंजा था, जिसकी पोल खुद बा खुद खुल भी गयी थी। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विकास की धारा चौतरफा दिशा में नहीं बही थी और ‘वोट बैंक पोलिटिक्स’ को आधार बना कर भेद-भाव किया गया था। यकीनन मुस्लिम समाज के आज के हालात उस दौर से बेहतर हैं मगर आज फिर से वही लोग उस कौम के रास्ते में खड़े हैं, जो उसका नाम सुनते ही नाक-भौ सिकोड़ने लगते हैं।
भारतीय संविधान साफ़ तौर पर कहता है की समाज में आरक्षण सिर्फ सामाजिक और आर्थिक आधार पर हो सकता है, धार्मिक नहीं। ऐसे में, अब तक मुस्लिम मुआशिरे के आर्थिक और सामाजिक स्तर को नज़र अंदाज़ करके सौतेला व्यवहार क्यों किया गया?? विरोध के तर्क क्या हैं? जवाबदेही किसकी है? क्या हालात ऐसे ही उलझे रहेंगे? इस कौम के ऐसे ही कुछ मासूम सवालों का जवाब कौन देगा? ये अभी तय होना बाक़ी है लेकिन हुक्मरानो ओर सियासतदारों को ये भी भूलना नहीं चाहिए की बगावत, की रौशिनी ज़ुल्म के अँधेरे को चीरना भी जानती है और तख़्त ओ ताज उछालना भी।
मुल्क के एक कोने से ‘मुस्लिम-मुस्लिम’ आवाज़ आ रही है, चौकना लाज़मी है। यकीन करना मुश्किल है मगर आवाज़ जानी पहचानी है। एक मायूस, बदहवास और पिछड़ी कौम, जिसे सियासत से अगर कुछ हासिल हुआ तो सिर्फ 'हमदर्दी', कैसे यकीन कर ले की सियासी मौसम में ये पुकार उसकी तकदीर बदल सकती है।
‘आरक्षण का नारा’ और ‘चुनाव का वक़्त’ पुराने साथी हैं और इतिहास गवाह है की इनका साथ हमेशा रंग लाया है। लगभग 3 साल पहले अपने मनिफेस्तो में पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण का ज़िक्र करने वाली कांग्रेस अब तक सोती क्यों रही या , क्या ये नए सियासी समीकरण गढ़ने की एक नयी कोशिश है ? - पूछा जा सकता है। लेकिन मौक़ा एक कौम की तरक्की से जुड़े सवालों की ज़मीन तलाशने का है तो इस सवाल को नज़र अंदाज़ कर, आगे बढ़ा जा सकता है। किसी राज्य में 18.5% वोट की ताक़त सियासतदाओं को कुछ तो सोचने पर मजबूर करेगी ही, साथ ही तर्क ये भी दिया जा सकता है की, ' चुनाव के वक़्त ही क्यों' से ज्यादा प्रासंगिक 'चुनाव के बहाने ही सही' है - हाँ मगर , इस सियासी फैसले पर किसी की पीठ नहीं थपथपाई जा सकती।
हालांकि, इस मसले पर सियासी भौवें चढ़ना लाज़मी है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के कुछ अपने राजनितिक समीकरण हैं जो इस फैसले से बिगड़ सकते हैं आखिर सवाल उस कौम का है जो आज़ादी के बाद से ही वैश्वीकरण के माहौल में, भागते वक़्त के साथ रफ़्तार नहीं मिला सकी और एक बार जो पीछे छूटी तो छूटती ही चली गयी। इस कौम को न सिर्फ गैरों से धोखा मिला बल्कि अपने रहनुमाओं ने भी उलझा कर रख। आज के हालात देखें तो लगता है जैसे ये कौम एक सच्ची और इमानदार रहनुमाई की राह तकते-तकते सो गयी और पीछे छूट गयी, अपने वोट की ताक़त का सही इस्तमाल कभी तो इसने खुद नहीं किया और कभी करने नहीं दिया गया मगर वोट बैंक की फिक्र 5 साल में एक बार ही सही, हुकुमत और सियासत को इनकी तरफ मुस्कुरा कर देखने पर मजबूर कर ही देती है ,
“हर मोड़ पर मिल जाते हैं हमदर्द हज़ार, शायद तेरी बस्ती में अदाकार बहुत हैं“
मुस्लिम वोट बैंक जो आज उत्तर प्रदेश की 139 विधान सभा सीटों पर 20% और 40 सीटों पर 50% तक की भागीदारी रखता है, हमेशा उदासीनता का शिकार रहा है । इतिहास भी इससे कुछ ख़ास जुदा नहीं है, 1950 में हिन्दू अनुसूचित जाति आरक्षण के ‘Presidential orders’ के 6 साल बाद भी जब पुनर्विचार हुआ तब भी हाशिये पर पड़ी इस कौम को किसी प्रकार के लाभ से दूर रखा गया, हालांकि सिख-दलितों को सूची में शामिल कर लिया गया। इतिहास 1979 में दोहराया गया, तब तक मुल्क के हालात तो काफी हद तक बदल चुके थे मगर मुस्लिम समाज उसी मोड़ पर खड़ा था जहाँ वो आजादी से पहले अपनी ज़मीन तलाश रहा था मगर एक बार फिर उसे नज़र अंदाज़ कर सिर्फ बौध -दलितों पर ही महेरबानी की गयी, जिसका विरोध उसने कभी नहीं किया ।आज के हालात चीख-चीख कर मुस्लिम समाज की पसमांदा कौमो के विकास के लिए आर्थिक और सामाजिक मदद की दुहाई दे रहे हैं। ख़ास कर उस वक़्त जब दूसरे मज़ाहिब की पिछड़ी जातियों को इसका लाभ मिल रहा है तब ये सवाल अपने अस्तित्व की तलाश और निष्ठा से करता है की सिर्फ मुस्लिम समाज इससे वंचित क्यों? हालांकि वक़्त बदला है और दबी ज़बान में ही सही इस विषय पर सियासी गलियारों में सुगबुगाहट होने लगी है, जो बेशक अच्छे संकेत है।मुलायम सिंह यादव की बातें और मायावती की केंद्र को चिट्ठियां इस बात की तस्दीक तो करती हैं की इस फैसले की ज़रुरत है, मगर बुनियादी तौर पर अमली जमा पहनाने के लिए कोई ठोस कोशिश नहीं करता। उनका फ़र्ज़, महज़ पिछड़े मुसलमानों के झंडे को उठाने की औपचारिकता से ही पूरा हो जाता लगता है, मगर हकीकत कहीं उदास है। एक कौम जिसकी आजादी के 64 साल बाद भी आधी से ज्यादा आबादी अनपढ़ और 1/3 बेरोजगार हैं, जो न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक रूप से भी समाज की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाई है, जो अपने विकास के लिए उतनी ही हक़दार है जितनी दूसरी पसमांदा कौमे, जिसके हालात बकौल सच्चर कमेटी दलित से भी ज्यादा खराब हैं, - अब अपना हक मांग रही है तो विरोध के तर्क सही नहीं हो सकते।
मगर सम्प्रदायिकता से अपने घर चलाने वाली कुछ सियासी पार्टियाँ इसे देश की ‘एकता पर प्रहार’ के रूप में देख रही हैं, उनका कहना है की OBC के 27% आरक्षण में अगर मुस्लिम पसमांदा के लिए 'quota within quota' की व्यवस्था की गयी , तो तय अनुपात बिगड़ जाएगा, जिससे हिन्दू OBC और मुस्लिम OBC के बीच तनाव हो सकता है, हालांकि ये एक कोरी बकवास है बल्कि ये हिन्दू OBC को उकसाने का प्रयास है। चौकाने वाली बात ये है की सांप्रदायिक सौहार्द की फिक्र उस विपक्षी दल को हो रही है जिसकी ‘सांप्रदायिक सौहार्द की करतूत 1992 में पूरी दुनिया ने देखा था। इसी राजनीतिक जमात के एक नेता जो मध्य प्रदेश के CM भी थे, सच्चर कमेटी की सिफारिशों के खिलाफ थे - जिनका तर्क था – ‘इससे देश बट जाएगा’। राजनाथ सिंह जो आगामी चुनाव में अच्छे अंको से पास होने के लिए मेहनत कर रहे हैं , ये कहने से गुरेज़ नहीं करते की 'मुस्लिम OBC आरक्षण दो मज़हब के बीच तनाव बढ़ा सकता है और तो और सियासी मजबूरी की पराकाष्ठा देखिये की, मुख्तार अब्बास नकवी जैसे नेता जो खुद मुस्लिम समाज की ज़मीनी सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ हैं, पार्टी की विचारधारा के दबाव में आव-बाव बक रहे हैं, तर्क उनका भी वही है - 'देश बट जाएगा', मगर कैसे? इसका जवाब उनकी किसी जेब में नहीं है।
एक गुज़रे हुए ज़माने में ‘India Shining’ का खोखला नारा गूंजा था, जिसकी पोल खुद बा खुद खुल भी गयी थी। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विकास की धारा चौतरफा दिशा में नहीं बही थी और ‘वोट बैंक पोलिटिक्स’ को आधार बना कर भेद-भाव किया गया था। यकीनन मुस्लिम समाज के आज के हालात उस दौर से बेहतर हैं मगर आज फिर से वही लोग उस कौम के रास्ते में खड़े हैं, जो उसका नाम सुनते ही नाक-भौ सिकोड़ने लगते हैं।
भारतीय संविधान साफ़ तौर पर कहता है की समाज में आरक्षण सिर्फ सामाजिक और आर्थिक आधार पर हो सकता है, धार्मिक नहीं। ऐसे में, अब तक मुस्लिम मुआशिरे के आर्थिक और सामाजिक स्तर को नज़र अंदाज़ करके सौतेला व्यवहार क्यों किया गया?? विरोध के तर्क क्या हैं? जवाबदेही किसकी है? क्या हालात ऐसे ही उलझे रहेंगे? इस कौम के ऐसे ही कुछ मासूम सवालों का जवाब कौन देगा? ये अभी तय होना बाक़ी है लेकिन हुक्मरानो ओर सियासतदारों को ये भी भूलना नहीं चाहिए की बगावत, की रौशिनी ज़ुल्म के अँधेरे को चीरना भी जानती है और तख़्त ओ ताज उछालना भी।