सड़ते अनाज की आग में जलती जनता


सतीश सिंह
लगता है कि विवाद और शरद पवार के बीच चोली-दामन का रिश्ता कायम हो गया है। ताजा विवाद 12 अगस्त को सर्वोच्च न्यायलय के द्वारा भारतीय खाद्य निगम के गोदामों के अंदर और बाहर सड़ते हुए अनाजों को गरीबों के बीच मुफ्त उपलब्ध करवाने के आदेश के बाबत है। दिलचस्प बात यह है कि शरद पवार सर्वोच्च न्यायलय के इस आदेश को समझ ही नहीं सके जिसके कारण पुनः 31 अगस्त को सर्वोच्च न्यायलय ने सड़ते अनाज के मामले की सुनवाई करते हुए कहा है कि 12 अगस्त का उनका निर्णय आदेश था, न कि सुझाव। जब एक कैबिनट मंत्री को अदालत की भाषा समझ में नहीं आ रही है तो आम आदमी का क्या होगा?
सच कहा जाए तो श्री शरद पवार थेथर किस्म के मंत्री हैं। उनको आसानी से कोई चीज समझ में नहीं आती है। 12 अगस्त के अदालत के आदेश के आलोक में उन्होंने कहा था कि सड़ते हुए या सड़े हुए अनाज को बांटना संभव नहीं है। इसी कारण 31 अगस्त को न्यायधीश दलवीर भंडारी और न्यायधीश दीपक वर्मा की खंडपीठ को अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल मोहन पाराशरन से कहना पड़ा कि मंत्री महोदय अदालत के आदेश को गलत तरीके से पारिभाषित नहीं करें। अदालत की इस फटकार के बाद श्री शरद पवार को सबकुछ साफ-साफ समझ में आ गया। अब वे अदालत के आदेश को अमलीजामा पहनाने के लिए तैयार हैं। ज्ञातव्य है कि कुछ दिनों से अदालत लगातार भारतीय खाद्य निगम के गोदामों के बाहर लाखों टन सड़ते अनाज पर अपनी पैनी नजर रखे हुए है। 27 जुलाई, 2010 को सर्वोच्च न्यायलय ने कहा था कि जिस देष में हजारों लोग भूखे मर रहे हैं वहाँ अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है। पुनष्चः 12 अगस्त को सर्वोच्च अदालत ने कहा कि अनाज को सड़ाने की बजाए केन्द्र सरकार गरीब और भूखे लोगों के बीच इसकी निःशुल्क आर्पूित सुनिश्चित करे। इसके लिए केन्द्र हर राज्य में एक बड़ा गोदाम बनाये।
31 अगस्त के अपने आदेश में सर्वोच्च अदालत ने मंत्री महोदय श्री शरद पवार को फटकार लगाने के अलावा यह भी कहा कि सरकार को उतना ही अनाज खरीदना चाहिए जितना की गोदामों में सही तरह से रखा जा सके। अपने आदेश में अदालत ने पुनष्चः कहा कि सरकार बीपीएल, एपीएल और अंत्योदय अन्न योजना के पात्र परिवारों का 2010 के आंकड़ों के आधार पर सर्वे करवाये। साथ ही हर राज्य में बड़े गोदाम की जगह हर जिले में बड़ा गोदाम बनाया जाए। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों के बाहर अनाज तो सड़ ही रहा है। अब पंजाब से खबर है कि वहाँ मीलों के बाहर पीएयू 201 किस्म के 40 लाख टन चावल खुले में पड़े हैं। केन्द्रीय स्वास्थ मंत्रालय के द्वारा इस किस्म के चावल की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाने के बाद केन्द्रीय खाद्य एवं सार्वजनिक मंत्रालय इस चावल को खरीदने से कतरा रहा है। अगर यह चावल भी भारतीय खाद्य निगम के गोदामों के बाहर रखे अनाज की तरह सड़ता है तो उसके लिए कौन जिम्मेवार होगा ?
पड़ताल से स्पष्ट है कि सस्ते अनाज को खुले बाजार में बेचने के मुद्दे पर खाद्य मंत्रालय देश को गुमराह करने का काम कर रहा है। सच तो यह है कि पहले राज्यों के लिए जो कोटा तय किया गया था, उसमें से बचे अनाज को खुले बाजार की डायरेक्ट बिक्री योजना के तहत राज्यों में ग्राहकों को बेचा जा रहा है। दरअसल सस्ते अनाज की बिक्री पॉलिसी में कोई बदलाव नहीं हुआ है। बावजूद इसके राज्यों ने अपने निर्धारित कोटे के अनाज को नहीं उठाया।

दरअसल 1,200 रुपये क्विंटल की दर पर देश में गेहूँ के बिक्री के लिए कई बार मांग की जा चुकी है, फिर भी सरकार इस कीमत पर गेहूँ को बेचना नहीं चाहती है। सरकार व्यापारी नहीं है, पर वह एक व्यापारी की तरह जरुर व्यवहार कर रही है। इसका मूल कारण खुले बाजार में गेहूँ की कीमत का ज्यादा होना है। जबकि सरकार को यह समझना चाहिए कि सांप की तरह कुंडली मार कर अनाजों पर बैठने से मंहगाई और भी बेलगाम होगी। भारत एक लोकतांत्रिक और कल्याणकारी देश है। लिहाजा यहाँ के सरकार को एक पूँजीपति की तरह कार्य नहीं करना चाहिए। अब जब पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है तब ईजीओएम की बैठक में 25 लाख टन अतिरिक्त अनाज 6 महीने के अंदर राज्यों को बीपीएल की दर में उपलब्ध करवाने का फैसला किया गया है। उल्लेखनीय है कि अभी भी सरकार मुफ्त में अनाज नहीं बांटना चाहती है।
इस पूरे मामले में हम भारतीय खाद्य निगम की कार्यप्रणाली को क्लीनचिट नहीं दे सकते हैं। यह ठीक है कि भारतीय खाद्य निगम खाद्य मंत्रालय के अंतगर्त काम करता है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि निगम के कार्यो का प्रबंधन मंत्रालय की जिम्मेदारी है। निगम के गोदामों में क्या हो रहा इस पर नजर रखने का काम निगम को ही करना चाहिए ? इस काम को करने में निगम पूरी तरह से असफल रहा है। सूत्रों के अनुसार आज भी निगम के बहुत सारे गोदाम निजी कंपनियों को किराये पर दिये हुए हैं। ऐसी स्थिति सचमुच अफसोसजनक है।
अब सवाल यह है कि गरीबों के बीच निःशुल्क अनाज का वितरण कैसे किया जाए? सरकार के पास अभी तक गरीबों की संख्या का सही-सही आंकड़ा नहीं है। अभी भी गरीबों के आंकड़े के बाबत केन्द्र और राज्य सरकार के दावों में बहुत बड़ा फर्क है। ऐसे में अनाजों का वितरण किसके बीच किया जाएगा? यह सरकार के लिए यक्षप्रश्न के समान है। सबसे महत्वपूर्ण बात यहाँ पर यह है कि यदि सरकार तत्काल गोदामों के बाहर रखे अनाजों को जरुरतमंदों के बीच बांटना शुरु नहीं करती है तो सड़ने के बाद अनाजों को जानवरों के चारे के तौर पर विदेश भेजना पड़ेगा।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारा निवर्त्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली दोषपूर्ण है। बावजूद इसके हम तेंदुलकर समिति के सिफारिशों को मानक मानकर गरीबों के बीच निःशुल्क अनाजों को बांट सकते हैं। मीड डे मिल के रुप में भी सड़ते अनाजों का उपयोग किया जा सकता है। सड़ते अनाज के मुद्दे पर सरकार कठघरे में है। फिर भी सरकार का इस मामले में संवेदनहीन होना आश्चर्यजनक है। क्या सरकार नीरो या वाजिद अली शाह की भूमिका को फिर से दोहराना चाहती है ?

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