मंजरनामा

https://tehalkatodayindia.blogspot.com/2010/09/blog-post_3602.html
यात्रा में बाज़ार
फ़ज़ल इमाम मल्लिक
एक बूढ़ी बीमार औरत। जो ठीक तरह से चल फिर भी नहीं सकती। घर के लोग उस बूढ़ी औरत को लेकर सशंकित रहते हैं और उसे अकेला नहीं छोड़ते। पर बाज़ार उस बूढ़ी औरत को बिस्तर से उठा कर शहर के शापिंग अड्डा में पहुंचा देता है। आदमी के जीवन में बाजार की घुसपैठ इस तेजी से हुई है कि उपभोक्ता हैरान भी है और परेशान भी कि आखिर वह इन दो आंखों से क्या-क्या देखे और सीमित साधनों के क्या-क्या ख़रीदे।शहर के उस बड़े से शापिंग माल (शापिंग अड्डा) सामानों की ख़रीदारी पर बुजुर्गो को एक खास दिन रियाअत देने का एलान करता है। नतीजा यह निकलता है कि बिस्तरों पर बीमार पडे़ बुजुर्गो का महत्व अचानक उनके घर वालों के लिए बढ़ जाता है। बुजुर्गों को झाड़पोंछ कर तैयार किया जाता है और फिर बाज़ार में उन्हें चलाने की होड़ लग जाती है। बाज़ार उन बुजुर्गो को उस शापिंग माल में ला खड़ा करता है, जहां हर माल पर छूट मिल रही है। जो बुजुर्ग कल तक घर वालों के लिए बोझ थे और अपने ही घर के किसी कोने में बेकार वस्तु की तरह पड़े रहते थे। शापिंग माल का एक एलान उन्हें रातोंरात काम की वस्तु में बदल देता है और उनके घरवाले उन्हें बाज़ार में बिकने के लिए छोड़ आते है। दरअसल बाज़ार आज तरह-तरह के चमत्कार कर रहा है और उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के तमाशे दिखा रहा है। किसी जादूगर की तरह अपनी झोलियों से लुभावनी स्कीमें निकालता है और लोगों को अपनी तरफ़ खींचता है। हम जिसे घर-परिवार समझते हैं, उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसे भी बाज़ार में बदल डाला है। कभी बाजार में हर माल बारह आने और सवा रूपया के हिसाब से बेच कर लोगों को आकर्षित किया जाता था। शापिंग मालों में गिट स्कीमों और एक के साथ एक फ्री के बढ़ते चलन और बाजार पर कब्जे के गलाकाटू होड़ ने इसे और व्यापक बना कर हमारे सामने रखा है। शापिंग मालों की संस्कृति ने बाजार को जिस तरीके से परिभाषित किया है वह अब डराने लगा है। क्योंकि धीरे-धीरे बाजार के इस खेल में रिटेल के बहाने वे लोग भी शामिल हो रहे हैं जिनका लक्ष्य लोगों की जेबों पर डाका डाल कर दुनिया को मुठ्ठी में करना है। गौतम घोष की फिल्म ‘यात्रा’में इस बाज़ार को देखा जा सकता है। यों भी सामाजिक सरोकार गौतक घोष की फिल्मों का मूल स्वर रहा है। वे उन गिने-चुने निर्देशकों में से हैं जिनके लिये फिल्म बनाना सिर्फ मनोरंजन नहीं है। बाजार और व्यवसायिक नजरिये से परे उन्होंने फिल्में एक मकसद के तहत बनाई और ज़ाहिर है कि उनके मकसद में बाजार और व्यवसाय शामिल नहीं रहा है। कला और समानांतर फिल्मों के दौर में 'पार'बना कर गौतम ने अपनी निर्देशकीय क्षमता से कायल किया था। दरअसल उस फिल्म में एक दलित की जिस पीड़ा को बडे़ परदे पर गौतम ने उतारा था उसने रातोंरात उन्हें गंभीर निर्देशकों की कतार में ला खड़ा किया था। गौतम घोष ने 'अंतरजलि यात्रा'और 'पतंग'से उन्होंने अपने निर्देशन कला को और विस्तार दिया। गौतम ने अपनी फिल्मों में उस आम आदमी के ही सच को सामने रखने की कोशिश की जो समाज में क़तार में सबसे पीछे खड़ा होता है। अपनी तीनों ही फिल्मों में उस आम आदमी के सपनों, उसकी जीजिविषा, उसकी मजबूरी, उसकी बेबसी, उसकी लाचारी और सपनों की टूटने की पीड़ा को ही गौतम घोष ने परदे पर उकेरा है। 'पार'में वह आदमी एक दलित था तो 'अंतरजलि यात्रा'में वह आदमी चांडाल के रूप में हमारे सामने आता है। 'पंतग'में उसका किरदार बदल जाता है और वह झीलकट बन कर परदे पर आता है। पर इन तीनों ही फिल्मों के किरदार हमारी उस सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था का किसी न किसी रूप में शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं। गौतम घोष ‘यात्रा’में भी उस आम आदमी और उसके सपनों को लेकर ही हमारे सामने हैं। पर पिछली फिल्मों से थोड़ी अलग राह उन्होंने अपनाई है। उन्होंने अपनी इस ताज़ा फिल्म में रोमानियत के नाजुक एहसासों को भी दशर्कों के सामने रखा है। हालांकि इसमें कई जगह वे थोड़ा भ्रमित भी दिखे हैं लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म को फिर वे एक क्लासिक मोड़ पर ले जाकर खत्म करते हैं। यात्रा में बाजारवाद को बहुत ही शिद्दत से गौतम घोष ने उठाया है। कहानी यों तो लाजवंती के सुख-दुख, खुशी-ग़म को केंद्र में रख कर ही गौतम ने लिखी है लेकिन बाज़ार में बदलती दुनिया का जिक्र, उसकी खूबी-ख़ामियों का ज़िक्र शिद्दत के साथ उन्होंने की हैं। चूंकि कहानी, संवाद, फोटोग्राफी और पटकथा भी गौतम घोष की ही है इसलिए उन्होंने कई जगह कैमरे से अपनी बात कही है तो कहीं संवादों के जरिए जीवन में फैले स्याह-सफ़ेद रंगों को दशर्कों के सामने रखा है। बाज़ार ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है और रिटेल स्टोरों का मायाजाल व डिस्काउंटों की चकाचैंध ने हर वर्ग का प्रभावित किया है। चैनलों और अशलील एसएमएस के बाज़ार को भी गौतम घोष ने छुआ है और बाज़ार के फैलते इस जाल को वे बहुत ही सलीके़ से हमारे सामने रखते हैं। चैनलों की मारामारी और समाचारों में अधकचरे तरीके़ से सच को परोसने की होड ने जिस तरह ख़बरों को भी बाज़ार का एक हिस्सा बना डाला है, गौतम उस पर बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ अपनी बात रखी हैै। हालांकि अज़ीज़ मिर्जा ने शाहरुख खान की होम प्रोडक्शन की पहली फ़ि ल्म ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ में चैनलों की मारामारी को बहुत ही विस्तार से सामने रखा था। पर उसमें भव्यता के साथ चैनलों के जिस बाज़ार को दिखाया गया है, ‘यात्रा’ में बिना चीख़े-चिल्लाए इस सच को सामने रखा गया है। दशर्थ जोगलेकर (नाना पाटेकर) साहित्यकार हैं और उनके ताजा उपन्यास 'जनाज़ा'पर बड़ा सम्मान मिलता है। लाजवंती से लाजो बाई (रेखा) की इस यात्रा में कई किरदार पड़ाव की तरह आते हैं और यात्रा को आगे बढ़ाते हैं। लाजवंती को केंद्र में रख कर लिखे उपन्यास 'जनाज़ा'की चर्चा दशर्थ अपनी दिल्ली की यात्रा के दौरान युवा फिल्मकार मोहन से करता है। पेशे से तवायफ लाजवंती को किन्हीं कारणों से बनारस छोड़ कर आदिलाबाद में ठिकाना बनाना पड़ता है। अपने वजूद व नृत्य-संगीत को बचाने के लिए ज़मींदार (जीवा) की वह रखेल बन जाती है। लेकिन उसका मोह तब भंग होता है जब एक दिन अपने व्यवसायिक हितों के लिए ज़मीनदार लाजवंती को कुछ अफसरों के आगे परोसना चाहता है लाजवंती न सिर्फ इसका विरोध करती है बल्कि उसका घर छोड़ कर भी निकल जाती है। पर ज़मींदार लाजवंती को रास्ते में ही पकड़ लेता है और अपने उन अफ़सरों दोस्तों को उसके साथ बलात्कार के लिये प्रेरित करता है। लुटी-पिटी लाजवंती को अगले दिन सुबह स्कूल मास्टर सतीश यानी दशर्थ सहारा देता है और उसे घर ले जाता है। सतीश की पत्नी (दीप्ति नवल) और बेटे व बेटी का साथ पाकर लाजवंती धीरे-धीरे अपने ग़म को भूल जाती है। लेकिन एक रात जमींदार के लोग वहां पहुंच जाते हैं और तब लाजवंती को सतीश हैदराबाद लेकर चला जाता है। संगीत से लगाव होने की वजह से सतीश लाजवंती के यहां अक्सर जाने लगता है। पत्नी के साथ उसका मनमुटाव तो होता है लेकिन बाद में वह पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ लेखन से जुड़ जाता है और एक अच्छा कहानीकार बन जाता है। पर इन सबके बीच उसके भीतर लाजवंती कहीं न कहीं जिं़दा रहती है और उसे लिखने के लिए प्रेरित भी करती है। घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों के बीच लाजो मास्टर सतीश की जिं़दगी को नए अर्थ देती है। दशर्थ जोगलेकर संबंधों की इस डोर को तोड़ने की कोशिश भी नहीं करते। 'जनाज़ा'में इस सच को वे बार-बार रेखांकित करते हैं। दरअसल गौतम इन किरदारों के ज़रिए हमें रोमान और फंतासी की एक ऐसी दुनिया में ले जातें हैं जहां समने हैं, ख़ुशियां हैं, दुख हैं, समाज है और इन सबके बीच विकराल रूप धारण किये बाजार है जो हमसे हमारे समने, हमारी मुस्कुराहटें, हमारी हंसी, हमारे सुख-दुख छीन कर ले जा रहा है और दे जा रहा है एक ऐसी काली-अंधेरी दुनिया जहां सेंसेक्स गिरता-उतरता है। दशर्थ जोेगेलकर भी दुनिया को बाज़ार में बदलते देख कर चिंतित है और इस बदलती दुनिया को केंद्र में रख कर वह अगला उपन्यास 'बाज़ार'ही लिखना चाहता था, पर मौत ने उसे मोहलत नहीं दी।दशर्थ सम्मान पाने के बाद वह उस लाजवंती यानी लाजो के पास फिर पहुंचता है जो समय के साथ मिस लीला बन चुकी थीं और कथक की यह बेहतरीन नृत्यांगना भी उसी बाजार के रंग-ढंग में ढल जाती हैं और 'कहीं आर, कहीं पार'जैसे खुबसुरत गीत की रिमिक्स पर कमर हिलाती हैं। पेट भरने के लिए आख़िरकार बाज़ार की तरह ही तो चलना पड़ता है, लाजवंती ने भी ऐसा ही किया। हालांकि दशर्थ को अपने घर देख कर जज़्बाती रेखा की अदाकारी और नृत्य में उनका आंगिक अभिनय, नफासत और नज़ाकत 'उमराव जान'की याद ताज़ा कर देता है। उम्र के इस पड़ाव पर भी रेखा खूबसूरत तो दिखती ही हैं, अभिनय भी कमाल का किया है। नाना पाटेकर को लंबे समय बाद एक यादगार भूमिका मिली है और वे मायूस नहीं करते। दीप्ति नवल के हिस्से में जितने भी दृश्य आए, उन्होंने अपना होना साबित किया। ख़्य्याम के संगीत के सरगम ज्यादा सुरीले और मधुर हैं) मजरूह, नक्श लायलपुरी, अहमद वसी और क़ादिर पिया के गीतों को सुनना अच्छा लगता है। भारतीय सिनेमा में सत्यजीत राय, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, कुमार शाहनी की परंपरा को ही गौतम घोष ने आगे बढ़ाया।