गुजरात जहां सड़कें हैं सड़कछाप
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मुहावरों की अपनी एक अदा होती है. उनसे सीधा न तो कुछ
होता है, न उम्मीद की जाती है. हमेशा थोड़ा आँका-बाँका यानी जो कह रहे हैं,
दरअसल वो नहीं कह रहे हैं.
मसलन सड़कछाप, जिसका सड़क से कोई मतलब नहीं होता. गो कि आप सड़क पर न हों तब भी सड़कछाप हो सकते हैं.
पर तब क्या करें जब सड़क ही सड़कछाप
हो. एक भी कल सीधी न हो. झटके लगते हों. कार का अलाइनमेंट बिगड़ जाता हो.
घर से दूध लेकर निकलें, तो बाज़ार पहुँचने तक दही बन जाए. जैसे किसी ने
बिलोया हो.
ये उस समय और अखरता है जब चर्चा अतिचर्चित गुजरात
की हो. जिसके क़िस्से कहे-सुने जाते हों. उन चमचमाती तेज़ रफ़्तार सड़कों
को विकास का पैमाना बताया जाता हो.
ऐसे में जब रफ़्तार घटकर 20 किलोमीटर प्रतिघंटा रह
जाए. लाज़िमी है दूरियां ज़रूरत से ज़्यादा लंबी और नक़्शे से बाहर फैलती
दिखाई देती हैं.
विकास का पैमाना
ऐसा नहीं कि गुजरात की सारी सड़कें ख़राब ही हों. कुछ अच्छी हैं, बल्कि इतनी अच्छी कि वाहन क़रीब-क़रीब फ़िसलते हुए चलते हैं.
सागरनामा
आम धारणा रही है कि दूरदराज़ के
प्रांतों की किस्मत की कुंजी दिल्ली या केंद्र के हाथ में है. पिछले 30 साल
में कई चुनावी समर कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय
ने पाया है कि भारतीय राजनीति की कहानी अब इससे आगे बढ़ गई है. असल चुनावी
अखाड़ा, उसके मुख्य पात्र और हाशिये पर नज़र आने वाले वोटर अब बदल चुके
हैं. जैसे 'द हिंदूज़' की अमरीकी लेखक वेंडी डोनिगर कहती हैं- 'भारत में एक
केंद्र नहीं है. कभी था ही नहीं. भारत के कई केंद्र हैं और हर केंद्र की
अपनी परिधि है. एक केंद्र की परिधि पर नज़र आने वाला, दरअसल ख़ुद भी केंद्र
में हो सकता है जिसकी अपनी परिधि हो.'
चुनावी नतीजों, क्षेत्रीय दलों को मिली सफलता, केंद्र की सत्ता में छोटे दलों और गठबंधनों की भूमिका स्पष्ट है. भारत के पश्चिमी तट गुजरात से शुरू करके महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र और ओडिशा से होते हुए पश्चिम बंगाल में सतह के नीचे की लहरों, प्रत्यक्ष और परोक्ष मुद्दों, वोटरों की आकांक्षाओं और सत्ता की लालसा लिए मुख्य पात्रों पर पैनी नज़र डाल रहे हैं.
चुनावी नतीजों, क्षेत्रीय दलों को मिली सफलता, केंद्र की सत्ता में छोटे दलों और गठबंधनों की भूमिका स्पष्ट है. भारत के पश्चिमी तट गुजरात से शुरू करके महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र और ओडिशा से होते हुए पश्चिम बंगाल में सतह के नीचे की लहरों, प्रत्यक्ष और परोक्ष मुद्दों, वोटरों की आकांक्षाओं और सत्ता की लालसा लिए मुख्य पात्रों पर पैनी नज़र डाल रहे हैं.
रफ़्तार सौ किलोमीटर प्रतिघंटा से ज़्यादा हो सकती
है और मीलों-मील रास्ता बताने वाले साइनबोर्ड के अलावा कोई नहीं दिखता,
जिससे भटकने पर रास्ता पूछा जा सके.
बनासकांठा से गुजरात में दाख़िल होने पर लंबे वक़्त तक राजस्थान और गुजरात की सड़कों में ज़्यादा फ़र्क नहीं दिखा.
दोनों अच्छी थीं, लेकिन कुछ फ़ासला तय करते ही
गुजरात की सड़कों की चमक आँखें चुंधिया देती है. बहुत व्यवस्थित,
साफ़-सुथरी और अत्याधुनिक तकनीक से आपको लगातार जोड़े हुए.
हालत यह कि एक ग़लत मोड़ चुना तो 40 किलोमीटर तक वापसी की राह न मिले. क़रीब-क़रीब ऐसी ही सड़क राजकोट से पोरबंदर के बीच भी है.
एक तरह से कहें, तो राजस्थान में चौमू के मोड़ के
बाद पोरबंदर तक लगभग एक हज़ार किलोमीटर की सड़क व्यवधान रहित ही होती, अगर
बीच में राधनपुर से समी और सरा होते हुए मोरबी का रास्ता न पकड़ लिया होता.
दो गुजरात
वहीं इन सड़कों और उनके क़िस्सों की कलई खुल जाती
है. ऐसा लगता है कि गुजरात में दो गुजरात हैं. एक समृद्ध और रसूख़दार शहरों
के बीच तो दूसरा अपेक्षाकृत कमज़ोर और विपन्न गाँवों के मध्य.
ये क़िस्सा पहले दिन की यात्रा का था. दूसरे दिन
जब उम्मीद थी कि सड़कें ठीक होंगी क्योंकि उन्हें सोमनाथ होकर गुज़रना था,
कलई दोबारा खुल गई. पोरबंदर से मांगरोल तक सड़क इकहरी ही थी, पर उस पर चलने
में दोहरा नहीं होना पड़ता था.
लेकिन बस वहीं तक. मांगरोल से सोमनाथ, सोमनाथ से ऊना और ऊना से तलाजा तक यात्रा का एक ही स्थायी भाव था-खीझना.
इसे केवल संयोग कहा जा सकता है कि तलाजा से भावनगर की सड़क अचानक सुधर गई जैसे किसी बड़े शहर ने कहा हो कि मेरे पास आना तो सीधे आना.
सड़कों का काम केवल यात्रा सुनिश्चित करना नहीं
होता, व्यापार भी होता है. यों भी कह सकते हैं कि जो सड़कें बड़े व्यापारिक
केंद्रों को जोड़ती हैं, वे सभ्य और सुसंस्कृत हैं.
गाँववाली गँवई ही रह गईं. सड़कों ने गुजरात में
निश्चित तौर पर मिलों को जोड़ दिया है. दिलों को जोड़ना उनका काम था नहीं
और किसी ने इस ओर तवज्जो भी नहीं दी.