क्या राजनीतिक हाशिए पर हैं 20 करोड़ दलित?

 रिज़वान मुस्तफा 
दिल्ली -भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक़ दलितों की संख्या 20.14 करोड़ है. यानी जनसंख्या के मामले में वो दुनिया के सिर्फ़ पांच देशों से पीछे हैं. फिर भी उनके मुद्दे सियासी चर्चा और चुनावी वादों में ज़्यादा नहीं दिख रहे हैं.
मौजूदा आम चुनाव बेशक कुछ सियासी चेहरों के इर्द गिर्द सिमट गया है लेकिन इस बीच भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी, महिलाओं की सुरक्षा, विकास और सुशासन जैसे शब्द भी बार-बार सुनाई पड़ रहे हैं.
लेकिन क्या जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को ख़त्म करना टीवी पर होने वाली चुनावी बहसों और राजनीतिक घोषणापत्रों का हिस्सा है.
इसी भेदभाव को दलित अपने सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक उत्थान और विकास के लिए सबसे बड़ी बाधा मानते हैं.
दिल्ली की जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं कि दलित एजेंडा भारतीय राजनीतिक के फलक से बीते दस साल में ग़ायब हो गया है.
वो कहते हैं, “यूपीए सरकार के शासनकाल में सच्चर कमिटी की ख़ूब चर्चा रही कि सबसे पिछड़े मुस्लिम समुदाय के लोग हैं. खूब बयान आए. वहीं दलित समाज ने प्रोन्नति में आरक्षण मांगा तो वो नहीं मिला.”

भेदभाव

20 करोड़ की आबादी और लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में आरक्षित 15 प्रतिशत सीटों पर चुने जाने वाले सदस्य किसी भी राजनीतिक पार्टी का भाग्य बदल सकते हैं, बावजूद इसके दलितों का बड़ा तबक़ा अपना भाग्य नहीं बदल पाया है.
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया कहते हैं कि दलितों को आगे बढ़ाने के लिए किए गए प्रयासों के बावजूद उनकी बुनियादी समस्याएं अब भी बनी हुई हैं.
उनके अनुसार, “आज भी दिल्ली जैसे शहर में शिकायत मिलती है कि दलित समुदाय के दुल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया गया, ओडिशा में दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है, कर्नाटक और तमिलनाडु में ग्रामीण इलाक़ों के होटलों पर अनुसूचित जाति के लोगों के लिए अलग से बर्तन रखे जाते हैं. तो स्थिति तो ख़राब है.”
पुनिया कहते हैं कि कुछ समय पहले जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में कहा कि सामाजिक और आर्थिक ग़ैर-बराबरी भारत के लिए चुनौती है तो पुनिया ने उन्हें याद दिलाया कि ठीक यही शब्द डॉ. अम्बेडकर ने 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में कहे थे.
तो फिर बदला क्या. हाल ही में भाजपा में शामिल हुए दलित नेता उदित राज कहते हैं कि दलितों और पिछड़ों की ज़िंदगी में जो भी बदलाव आए हैं, वो सिर्फ़ आरक्षण की वजह से हैं.
वो कहते हैं, “ये तो मजबूरी है कि आरक्षण के चलते दलितों को सरकारी नौकरियों और राजनीति में इन लोगों को जगह देनी पड़ी है. अगर सुरक्षित सीटों न होती तो क्या दलित और शोषित लोगों की संसद और विधानसभाओं में भागीदारी हो पाती.”

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