ईरान को अभयदान
https://tehalkatodayindia.blogspot.com/2013/11/blog-post_29.html
शेष नारायण सिंह
पश्चिम एशिया के कुछ देशों की तरह ईरान को भी काबू में करने की अमरीकी विदेशनीति की योजना को अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अलविदा कह दिया है और ईरान के साथ परमाणु मसले पर जिनेवा में सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्यों और जर्मनी के विदेश मंत्रियों के बीच एक समझौता हो गया है. रविवार आधी रात के बात सभी संबद्ध पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया. अमरीका, फ्रांस, चीन, रूस, ब्रिटेन और जर्मनी के साथ ईरान के इस समझौते ने पश्चिम एशिया की राजनीति को एक नई राह पर डाल दिया है.
अमरीका की सरकार और समाज में मौजूद इजरायल के एजेंट और तेल अवीव की इजरायली सरकार इस डील से बहुत नाराज़ हैं. जबकि ईरान की सरकार ने इस सौदे का स्वागत किया है. ईरान की ओर से बातचीत में शामिल उनके विदेशमंत्री, मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने कहा कि इस समझौते के बाद एक ऐसी समस्या से जान छुड़ाने का मौक़ा मिलेगा जिसमें पड़ना ही नहीं चाहिए था. समझौते के बारे में तरह तरह की व्याख्याएं की जा रही हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि जहां ईरान की नीयत पर अमरीका सहित उसके समर्थक देश वर्षों से शक करते रहे हैं, आज उनके बीच एक समझौता हो गया है. समझौते के बाद ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा कि इस समझौते में ईरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम जारी रखने के अधिकार को मान्यता दी गयी है. उन्होंने कहा कि जिसको जो जी चाहे मतलब निकालने दीजिए लेकिन समझौते में साफ़ लिखा है कि ईरान का परमाणु संवर्धन कार्यक्रम चलता रहेगा लेकिन अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी ने कहा कि कि ऐसा नहीं हैं. ईरान के परमाणु कार्यक्रम को बतौर अधिकार मान्यता नहीं दी गयी है. उनको आपसी बातचीत के बाद ही परमाणु कार्यक्रम जारी रखने का अधिकार है.
जिनेवा में जिस समझौते पर दस्तखत हुए हैं वह अंतरिम समझौता है जो जून तक के लिए मान्य है. इस बीच अमरीका और उसके साथियों को ईरान के साथ एक स्थायी इंतजाम करना पडेगा. अगर ज़रूरी हुआ तो मौजूदा समझौते को कुछ और समय दिया जा सकता है. बहरहाल अमरीका और ईरान दोनों ही देशों को अपने लोगों के बीच समझौते तो स्वीकार्य बनाना है इसलिए उसकी अपने हिसाब से राजनीतिक व्याख्या की जाएगी. बाकी दुनिया को इसमें केवल यह रूचि है कि अमरीकी जिद के चलते जो तनाव की स्थिति बनी हुई थी फिलहाल उस पर एक विराम लग गया है और शान्ति की संभावना बढ़ गयी है. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का दावा है कि इस समझौते के बाद दुनिया अधिक सुरक्षित हो जायेगी. अब इस बात की जांच की जा सकती है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही जारी रख सकेगा, उससे हथियार नहीं बनाए जा सकेगें.
इस समझौते से भारत को भी कुछ उम्मीदें हैं. सरकारी तौर पर बताया गया है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अज़ीज़ और ईरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ के बीच तेहरान में हुई बात चीत से पता चला है कि ईरान से पाकिस्तान के रास्ते भारत आने वाले पाइपलाइन के प्रोजेक्ट पर फ़ौरन काम शुरू हो जाएगा. अमरीकी अड़चन के कारण इसपर काम नहीं हो रहा था. इस पाइपलाइन से ईरान के पेट्रोलियम उत्पाद भारत पंहुचने में सुविधा होगी और भारत को बहुत बड़ी बचत होगी. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था को भी बहुत मदद मिलेगी हालांकि पाकिस्तान के पास पाइपलाइन बनाने के लिए धन की कमी है और उसने ईरान से दो अरब अमरीकी डालर का कर्ज माँगा है लेकिन एक बार राजनीतिक परेशानियों के हट जाने के बाद यह समस्या भी आसान हो जायेगी.
ईरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है. अब अमरीका और उसके साथी देशों की समझ में आ गया है कि ईरान को दौन्दियाया नहीं जा सकता और शान्ति की तरफ केवल कूटनीतिक बातचीत के सहारे ही चला जा सकता है. इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से ईरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी के देश के हौसले को नहीं रोक पाईं. बहरहाल आखीर में उनकी समझ में आ गया कि ईरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए, उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए. अब अमरीका और उसके साथी देशों की कोशिश यही होनी चाहिए कि इस अंतरिम समझौते को स्थायी रूप देने के उपाय करें . हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा. सभी देश इस चक्कर में हैं कि ईरान से रास्ता खुलने के बाद ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जाये होगा लेकिन फिलहाल तो अमरीका को उस धन को ईरान को वापस देना है जो उसने पाबंदियों के बहाने दुनिया के कई देशों की बैंकों में ज़ब्त करवा रखा है.
मौजूदा समझौते के बाद ईरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा. दस्तावेज़ में लिखा है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा. ईरान की इस बात को संपन्न देश नज़रंदाज़ नहीं कर सके कि संपन्न दुनिया में बिजली की बड़ी ज़रूरत परमाणु संयत्रों से ही पूरी की जाती है और समझौते में शामिल सभी देशो के अलावा अर्जेंटीना, ब्राजील, भारत, जापान, नीदरलैंड्स, उत्तरी कोरिया, इजरायल और पाकिस्तान के पास भी पार्माणु संवर्धन के कार्यक्रम चल रहे हैं. ईरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा. ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है. ईरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है. उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है. इसके बदले में अमरीका, फ्रांस, चीन, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन ने ईरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें. ईरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी.
सुरक्षा परिषद में भी ईरान के खिलाफ कोई पाबंदी का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा. ओबामा की सरकार भी ईरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता ईरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं. अमरीका में कुछ लोग यह दावा कर रहे हैं कि पाबंदियों के चलते ही ईरान की हुकूमत बातचीत करने पर राजी हुई है लेकिन उनकी बात बिलकुल गलत है. ईरान ने अपनी शर्तों पर बातचीत का रुख अपनाया है. जिस परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए सारी पाबंदियां लगाई जा रही थीं वह अब पूरा सफल कार्यक्रम है और नए समझौते में उसको बाकायदा मान्यता दी गयी है.
अमरीका में इस समझौते के खिलाफ इजरायली लाबी की तरफ से किलेबंदी शुरू हो गयी है. लेकिन राष्ट्रपति बराक ओबामा भी उनको सस्ते नहीं छोड़ रहे हैं. उन्होंने कहा कि बड़ी बड़ी बातें करना राजनीतिक लिहाज़ से तो ठीक लग सकता है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के मुद्दे पर अमरीकी कांग्रेस और सेनेट के नेताओं को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए .उन्होने कहा कि कूटनीतिक तरीकों से दुनिया की सुरक्षा का बंदोबस्त करने की कोशिश को खत्म नहीं किया जाना चाहिए. अमरीका में हथियारों और इजरायली लाबी के लोगों की कोशिश है कि पश्चिम एशिया में शान्ति न पैदा हो लेकिन ओबामा की सरकार भी इस बात पर आमादा है कि शान्ति हर कीमत पर लानी है. अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी भी समझौते के लिए जिनेवा में मौजूद थे और अब वे वाशिंगटन में हैं और अमरीकी संसद के सदस्यों से बातचीत का सिलसिला शुरू कर चुके हैं. छुट्टियों के बाद ९ दिसंबर को कांग्रेस का सत्र फिर से शुरू होगा और उसी दिन से ओबामा सरकार के अधिकारी काम पर लग जायेगें.
इस समझौते के रास्ते में सबसे बड़ा अडंगा अमेरिकन इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी नाम की इजरायली लॉबी, की तरफ से आने वाला है. यह अमरीका में इजरायली हितों की सबसे ताक़तवर लाबी है. अब इनको यह तो मालूम ही है कि बराक ओबामा जब समझौता कर आये हैं तो उसको पलटा तो नहीं जा सकता लेकिन यह ज़रूर निश्चित किया जा सकता है कि उसमें भारी अडचने पैदा की जाएँ. इस काम पर यह लाबी लग चुकी है और कोशिश की जा रही है कि संसद की तरफ से ऐसी शर्तें लगवा दें कि बात गड़बड़ा जाये. लेकिन अमरीकी सरकार इस लाबी को भी औकात बताने के मूड में है. बराक ओबामा भी कुछ ऐसा कर गुजरना चाहते हैं जिस से उनको आने वाली सदियों में याद किया जाए. वे अमरीकी लाबी समूहों को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि उनको अब फिर से राष्ट्रपति पद के चुनाव का मैदान में नहीं उतरना है. इसलिए वे इस लाबी की उन कोशिशों को धता बता रहे हैं जिसमें मांग की जा रही है कि अगर ईरान की तरफ से समझौते की शर्तों को लागू करने में कोई ढील बरती गयी तो और भी सख्त पाबंदियां लगा दी जाएँ .लेकिन ओबामा की सरकार का मानना है कि अब तक पाबंदियां लगाकर देख लिया है. आने वाले वक़्त में भी पाबंदियों के नतीजे शान्ति और सुरक्षा के हित में नहीं होंगें.
अब समझौता हो गया है और सब को अपने हिसाब से अपनी जनता को समझाना है. ईरान के नेता कह रहे हैं कि इस से तेल के निर्यात का मौक़ा मिलेगा और ज़ब्त धन वापस मिलेगा जबकि साउदी अरब की सरकार ने उम्मीद जताई है कि अभी तो यह शुरुआत है , बाद में ईरान के परमाणु कार्यक्रम को काबू में किया जा सकेगा. बहरहाल एक अहम समझौता हो गया है और अब सुरक्षा और शान्ति का व्याकरण में एक नई इबारत लिख दी गयी है.