नीलामी के बाजार में गांधी

गिरिराज किशोर 
चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय से फोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि पिछली इक्कीस मई को मुलाक्स में गांधी की जिस स्मृति-सामग्री की नीलामी हुई उसे फिर उसी भारतीय ने खरीदा, जिसने सत्रह अप्रैल की नीलामी में उनका रक्त-अवशेष और स्मृति-सामग्री खरीदी थी। इक्कीस मई को हुई नीलामी में उनकी रामायण, दो चादरें, चमड़े की चप्पल, लालटेन, माला (?), काठ की मूर्ति, पेंटिंग, तार, वीडियो, उनके खून की स्लाइडें, पत्र आदि सम्मिलित थे।
नीलामी से पहले इसकी सूचना मैंने सोनिया गांधी और संस्कृति मंत्री को दे दी थी। संस्कृति मंत्री को मैंने इसलिए लिखा था कि 10 जुलाई, 2012 के पत्र में सोनियाजी ने लिखा था कि संस्कृति मंत्रालय इस तरह की नीलामी के लिए कानून बना रहा है। मैं सोचता था कि दस महीनों में कुछ तो हुआ होगा, पर न उत्तर आया और न कोई कार्रवाई हुई। मैंने सोचा नए राष्ट्रपतिजी अपने भाषणों में गांधीजी का नाम सम्मान से लेते हैं, इसलिए मैंने उन्हें भी पत्र लिखा। वहां से भी कोई जवाब नहीं आया।
इस बात से जरूर संतोष हुआ कि इस बार भी मोरारकाजी ने देश की इज्जत तो बचाई ही, अपने और देशवासियों के गांधीजी के प्रति  सम्मान की भी रक्षा की। जो लोग यह कहते हैं कि उनकी स्मृतियां देश में रहें या विदेश में, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता२, उनको भी जवाब मिला कि ऐसे भी लोग हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई से गांधी की स्मृतियों को देश में रख कर उनसे आने वाली पीढ़ी को जोड़े रखना चाहते हैं। आज नहीं तो कल ऐसे लोगों को देश याद रखेगा।
इससे पहले सत्रह अप्रैल और बारह दिसंबर, 2012 को गांधीजी के दो पत्र और भारतीय संविधान की एक प्रति नीलाम हुई थी। पत्रों में गुरुदेव के बड़े भाई को लिखा एक पत्र भी शामिल था, जिसकी सूचना भी मैंने सरकार को दी थी। दिसंबर, 2012 से लेकर अब तक तीन बार गांधीजी से जुड़ी वस्तुओं की नीलामी हो चुकी है। सरकार केवल एक, कैलनबैक-गांधी के पत्रों की नीलामी, सोनियाजी के हस्तक्षेप के कारण बचा पाई थी। बार-बार इस सवाल को उठाना सरकार और उन लोगों के लिए असुविधाजनक लगना स्वाभाविक है, जो विदेश में होने वाली नीलामी प्रक्रिया को सही मानते हैं। पिछली बार किसी संयुक्त सचिव ने कहा था कि हम गांधी को कब तक बचाते रहेंगे। क्या अहमन्यता है! जिस गांधी का देश को अंग्रेजों से बचाने में सबसे बड़ा योगदान है, उस गांधी को नौकरशाह बचाएंगे? कहीं यह सरकार की बड़बड़ाहट की प्रतिध्वनि तो नहीं है?
इक्कीस मई की नीलामी में मोरारकाजी ने जो सामग्री खरीदी, ताज्जुब की बात है कि उसमें (चौथी दुनिया के अनुसार) गांधीजी के खून की वे स्लाइडें नहीं हैं, जो 1924 में हुए उनके एपेंडिक्स के आॅपरेशन के समय बनी थीं। न चादरों का उल्लेख है। सत्ताईस जून को गांधी शांति प्रतिष्ठान में राधा बहन द्वारा बुलाई गई बैठक में मैंने यह सवाल उठाया था कि आखिर रक्त स्लाइडों, चादरों और माला को किसने प्रमाणित किया कि ये गांधीजी की हैं। यह तकनीकी सवाल भी है और एंटीक्स की तरह जाली चीजें बाजार में आ रही हैं तो उस आधार पर उनकी पड़ताल की जरूरत की तरफ भी इशारा करता है।
बापू के बारे में माला जपने या पहनने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। कस्तूरबा शायद माला जपती थीं। चादरों की बात भी सवाल खड़ा करती है। बापू अग्राही थे। तारा गांधीजी ने भी उपरोक्त मीटिंग में बताया था कि बा और बापू तीन जोड़ी कपड़े रखते थे। फिर दो चादरों का स्रोत क्या हो सकता है?
मेरी बात यह कह कर बर्खास्त कर दी गई थी कि बाजार नकली चीजों की कीमत कभी नहीं लगाता। वास्तव में ब्रांड असली-नकली की पहचान दरकिनार कर देता है। गांधीजी भी विदेशी बाजार के लिए ब्रांड हो गए हैं।
सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल गांधीजी के रक्त की स्लाइडों के बारे में ‘चौथी दुनिया’ में उठाया गया है। मोरारकाजी ने जो सामान मई में खरीदा था, उसमें स्लाइडें सम्मिलित नहीं थीं। उसके बारे में यह तो अखबार में मिलता है कि उसका मूल्य दस हजार डॉलर निर्धारित किया गया था, लेकिन बिकीं सात हजार डॉलर में। लेने से पहले लोगों में हिचक थी। पर गांधी का नाम जुड़ा होने के कारण खरीद ली गर्इं। किसने खरीदीं यह अभी तक रहस्य बना है।
उक्त अखबार में यह शंका उठाई गई है कि ‘अगर यह ब्लड सैंपल किसी क्लोनिंग लेबोरेटरी के हाथ लग जाए और वह गांधीजी की क्लोनिंग शुरू कर दे तो क्या होगा? अब तो यह कोई वैज्ञानिक ही बता सकता है कि इस ब्लड सैंपल से डीएनए निकाल कर क्या-क्या किया जा सकता है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया
जा सकता कि इसका गलत इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।’
सरकार इस तरह की नाजुक स्थितियों को या तो समझती नहीं या समझना नहीं चाहती। यह तो मैं पहले भी लिख चुका हूं कि गांधी को हाशिये पर धकेलने की साजिश तेजी से चल रही है। अगर क्लोनिंग हो गई तो बहुत-से गांधी सड़कों पर टहलते मिलेंगे। किसकी जिम्मेदारी होगी?
जब यूपीए अध्यक्ष द्वारा लिखित आश्वासन दिया जा चुका है कि संस्कृति मंत्रालय इस तरह की नीलामियों के बारे में कानून बना रहा है तो आखिर क्या कारण है कि अब तक उसका कोई नतीजा सामने नहीं आया? गांधी के नाम के साथ कई स्तरों की राजनीति हो रही है। भाजपा के अग्रज नेता का सात जुलाई के अखबार में वक्तव्य छपा है कि देश के महापुरुषों के नाम पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। पहले वाम पार्टियां और दक्षिणपंथी गांधी के साथ राजनीति ही नहीं करते, अपशब्द भी कहते थे। अब लगता है, मध्यरेखिय पार्टी भी वही कर रही है, जिसका अस्तित्व उन्हीं की वजह से है।
अगले साल होने वाले चुनाव को ध्यान में रख कर जाति, धर्म, मंदिर, मस्जिद की राजनीति हो रही है। केदारनाथ मंदिर के निर्माण की जिम्मेदारी उन लोगों द्वारा लिए जाने की कोशिश, जो सब श्रद्धालुओं और यात्रियों को डूबने के लिए छोड़ कर अपने प्रदेश के लोगों को वहां से निकाल कर रफूचक्कर हो गए थे, चिंताजनक है। अरे, अपने संसाधन ही छोड़ जाते!
मुसीबत के समय अगर कोई अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर लेकर चला जाए और संबंधियों के बच्चों को छोड़ जाए तो उसे इस सवाल का जवाब देना पड़ता है कि उसने ऐसा क्यों किया। इसी तरह भारत भी कभी यह सवाल पूछेगा कि तुमने यह सौतेलापन क्यों किया, जैसे तुम्हारे बच्चे वे थे वैसे ही सारे देश के लोग बच्चे हैं।
आगे चल कर ऐसे ही लोगों को एक राजनीतिक दल देश का भाग्यविधाता बनाने का जुगाड़ कर रहा है। ऐसे ही लोग गांधी से बड़ा पटेल को, मूर्ति के आकार द्वारा, बनाने का सपना देख रहे हैं। शायद पटेल में कुछ लोग अपनी तस्वीर देखते हैं। पटेल की आत्मा उससे सुखी नहीं होगी। उन्होंने उम्र में गांधी के लगभग समान होते हुए भी, उन्हें सदा बापू ही कहा।
राजनीति गांधी के सम्मान को नीलाम कर रही है। जिसके नाम से देश आज बाहर भी जाना जाता है उसकी स्मृति को बचाने की चिंता किसी को नहीं। इंग्लैंड की सरकार से बात करने की बात भी किसी के दिमाग में नहीं आती। कम से कम ये नीलाम करने वाली एजेंसियां अपनी सरकार के माध्यम से भारत सरकार से पहले बात ही कर लें। ये पेंटिंग नहीं हैं, जिन्हें सजावट और कलाविद्ता का माध्यम समझा जाता है। यह देश की अस्मिता से जुड़ा सवाल भी है। अस्मिता का महत्त्व एक जनतंत्र को तो समझना चाहिए।
मैं पेंशनयाफ्ता व्यक्ति हूं, लेखक हूं, कलम से आवाज उठा सकता हूं। बस! अगर सरकारें और दल लैपटॉप, साइकिल, चूल्हे लालीपॉप की तरह बांट रहे हैं और इस तरह के उपायों से वोट बटोर सकते हैं, तो क्या उनके पास गांधी और महान लोगों की स्मृतियां बचाने के लिए पैसा नहीं है? यह कैसी बात है? अब समय आ गया है कि जनता सामाजिक ट्रस्ट बना कर भले ही दो-दो, चार-चार रुपए इकट्ठे करे और ऐसी सब नीलामियों में हिस्सेदारी करके अस्मिता की रक्षा करे।
हमारे देश की स्मृतियां अंग्रेजों के जमाने में लूट के जरिए बाहर गर्इं। अब जब देश आजाद है तो बापू और ऐसे देश के नायकों की स्मृतियों को कौन बाहर भेज रहा है? खाद्य सुरक्षा का अध्यादेश जारी किया जा सकता है, तो संस्कृति मंत्रालय, यूपीए अध्यक्ष के लिखित आश्वासन के बावजूद, गांधी की स्मृतियों की नीलामी के बारे में कोई कानून क्यों नहीं बना सकता! सांसद भ्रष्टाचार के मुद््दे पर हफ्तों संसद की कार्यवाही बाधित कर सकते हैं, मगर देश की अस्मिता का सवाल न मंत्रालयों के लिए महत्त्वपूर्ण है, न सांसदों के लिए। अब तो देश के उद्योगपति भी इन सवालों से सरोकार नहीं रखते।
पहले देश में घनश्यामदास बिड़ला, जमनालाल बजाज और जमशेदजी टाटा जैसे बड़े उद्योगपति देश के सम्मान की चिंता करते थे। अब तो उद्योगपति इस चिंता में मुब्तिला रहते हैं कि कितने सांसद उनकी जेब में हैं। एक बार विजय माल्या जरूर इस काम के लिए आगे आए थे या पिछली दो बार से मोरारकाजी, गांधीजी की स्मृतियों और अवशेषों को बचाने में लगे हैं। वे अकेले कब तक करेंगे? ऐसे कामों के लिए मुझे नहीं लगता कि देश, सरकार, राजनेताओं और पूंजीपतियों पर निर्भर रह सकता है। जनता को अपने संसाधन विकसित करने होंगे। देश का वर्तमान वातावरण अनिश्चय और चालबाजी का शिकार होता जा रहा है। इसे बदलना होगा।

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