न चिता जली न चिंता मिटी

उन विधवाओं को भला कौन समझाए कि अब वे अपने सुहाग की चिर निशानी अपने माथे का सिंदूर पौंछ दें, उस मंगलसूत्र को निकाल कर फेंक डाले जिसे उन्होंने पति के साथ सात फेरे लेते वक्त पहना था। अब उनका पति कभी लौट कर नहीं आने वाला। हर एक आहट उन्हें अपने पति के लौट आने का एहसास दिलाती हैं। उन्हें यकीन है कि शायद उनके पति भी अपनी जान बचाने को जंगलों में भागे हों व अभी तक कहीं जीवित हों। अगर वे अपने पति का शव देख लेती तो भी वे मान लेती लेकिन उखीमठ तहसील की एक हजार विधवाओं में से किसी के घर भी तो चिता नहीं जली है।
वह मेरे लिए शायद मेरी जिंदगी का सबसे कठिन वक्त था जब मैं केदारनाथ त्रासदी के बाद गुप्तकाशी स्थित अपने पैतृक गांव रुद्रपुर पहुंचा। एक साथ दस घरों के चिराग बुझ चुके थे। मेरे लिए परिवार की उन महिलाओं को देख पाना भी मुश्किल था, जो इस त्रासदी में विधवा बन चुकी थीं। लेकिन संवेदनशीलता व कुछ हद तक सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करने मुझे उन्हें सांत्वना देने जाना ही था। मेरे ताऊजी का पुत्र जगदीश शुक्ला भी केदारनाथ में मचे ताण्डव में अपनी जा गवां चुका था।  मैं अपने बड़े भाई जगदीश शुक्ला की पत्नी बबली के पास पहुंचा। काफी देर तक खामोश बैठा रहा। मुझे यह समझ नहीं आया कि मुझे क्या कहना चाहिए। क्या मैं यह कहूं कि अब वे धैर्य से काम लें व अपने छोटे छोटे बच्चांे को देखें। भाई हमें छोड़ कर चला गया है। या फिर मुझे यह कहना चाहिए कि सरकार की खोजबीन जारी है, वे जरूर मिल जाएंगे। जबकि मुझे पता था कि उन्हें मलबे में दफन होते मेरे परिवार के अन्य लोगों ने देख लिया था। मुझसे कुछ न कहा गया। लगभग आधा घण्टा में यूं ही बैठा रहा। परिवार के अन्य लोग भी बेसुध से वहां बैठे थे। आखिर भाभी बोल पड़ीं। राकेश, क्या तेरे भाई मर गए। मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। मैं कैसे कह सकता था कि हां, अब भाई न रहे। अब तुम भी अपनी कलाइयां सूनी कर डालो। मै कैसे घर में यह कहता कि अब क्रिया की रस्में शुरू करते हुए उनकी तेरहवीं की तैयारी करो।
यह स्थिति सिर्फ मेरे परिवार में ही नहीं थी। गांव के उन सभी दस घरों में मैं गया जहां ऐसा वज्रपात हुआ था। शून्य को ताकती उन विधवाओं को देखकर कलेजा बाहर निकलने को था। जो लोग सांत्वना देने भी पहुंच रहे थे उनकी स्थिति भी कमोबेश मेरे जैसी ही थी। वह रो रही थी, लेकिन दिलासा देने के लिए किसी पास शब्द न थे। उखीमठ तहसील में एक हजार से अधिक औरतें विधवाएं बनी लेकिन चिता एक भी न जली। केदारनाथ त्रासदी में मारे गए किसी भी व्यक्ति का शव उसके घर नहीं पहुंचा। न हीं किसी ने उस शव को देखा। ऐसे में उनकी जीवन संगिनियां कैसे मान लें कि उनका पति मर चुका है। भगवान केदारनाथ पर उनकी अगाध श्रद्धा अब भी कह रही है कि उनके साथ ऐसा अन्याय नहीं हो सकता। उनकी हर प्रार्थना में बस यही है कि उनके पति सकुशल घर पहुंच जाएं। सरकारी नुमाइंदों ने केदारनाथ में चिताएं जरूर जलाईं, मगर किसकी जलाई यह उन्हें भी पता न था। स्वयं सरकार अब तक उन्हें मृत नहीं मान रही। मुख्यमंत्री कहते हैं कि पांच हजार से अधिक लोग इस त्रासदी में लापता हुए हैं। आवश्यक मुआवजा तो परिवार वालों को दिया जाएगा। लेकिन अभी उन्हें मृत नहीं माना जा सकता। सरकार खोजबीन जारी रखेगी। तो सरकार आप ही उन घरों में जाएं व समझाएं कि धैर्य रखें। हमारी खोजबीन जारी है। अभी अपने माथे के सिंदूर को न पौंछे, उनके पति मिल जाएंगे। प्रकृति के इस क्रूर मजाक के बाद यह सरकारी मजाक उन विधवाओं के घावों पर मरहम का काम करेगा या फिर उनकी असहनीय पीड़ा को और अधिक बढ़ायेगा, यह अभी इस प्रदेश के नीति नियंताओं ने शायद सोचा ही नहीं।

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