टीपू कैसे बना सुल्तान?
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इतिहास में मैसूर सल्तनत के टीपू सुल्तान को समय से आगे जाकर सोचने और उसके अनुसार रणनीति बनाने के लिए जाना जाता है. युद्ध में विजय पाने के लिए टीपू सुल्तान भविष्य की ऐसी तकनीकि का प्रयोग करते थे जो दुश्मन के लिए भारी पड़ जाए. उनकी नेवी, उनका हथगोले और राकेट सब उन्हें समय से आगे रखते हैं. हम जिस टीपू की बात कर रहे हैं उसमें भी वही खूबियां हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि वह हमारे समय का टीपू है जिसे उत्तर प्रदेश की जनता ने सुल्तान बना दिया है. 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को मिली जबर्दस्त सफलता के पीछे जिस एक नौजवान अखिलेश यादव की नीतियों का नाम हर कोई ले है उनके घर का नाम टीपू है. सैफई के इस टीपू की उन नीतियों और रणनीतियों की पड़ताल अनिल पांडेय कर रहे हैं जिसने सैफई के इस टीपू को उत्तर प्रदेश का टीपू सुल्तान बना दिया है-
2007 के विधानसभा चुनाव में सपा की हार और और 2009 के लोकसभा उपचुनाव में फिरोजाबाद से अखिलेश की पत्नी डिप्पल यादव की करारी शिकस्त के बाद यह भविष्यवाणी की जाने लगी थी कि उत्तर प्रदेश में "मुलायमराज" का अंत हो चुका है. छह महीने पहले तक चुनावी पंडित और मीडिया के सर्वे चिल्ला-चिल्ला के कह रहे थे कि बसपा की सत्ता में वापसी हो रही है. वे बसपा का मुकाबला सपा से नहीं कांग्रेस से बता रहे थे. मीडिया राहुल गांधी के मुकाबले अखिलेश को "हारा हुआ प्यादा" मानकर कतई तवज्जो नहीं दे रहा था. लेकिन अखिलेश ने आज अकेले दम पर बाजी पलट दी है. मीडिया और चुनावी पंडितों के सुर अब बदल गए हैं. "गेमचेंजर" की संज्ञा देते हुए मीडिया दिग्गज अब उन्हें भावी मुख्यमंत्री के रूप में देख रहे हैं. आज की बात छोड़ भी दें तो फरवरी के आखिरी सप्ताह में टीवी के सभी बड़े पत्रकारों ने उन्हें न केवल अपने टीवा शो में बुलाया बल्कि खूब आवभगत भी की. प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस ने फरवरी के आखीर में "मोस्ट पावरफुल इंडियन्स इन 2012” नाम से देश के 20 प्रभावशाली लोगों की एक सूची जारी की, जिसमें समाजवाद के इस युवा नायक को भी शामिल किया गया है. समाजवाद के इस नए सितारे के आकाश में जगमगाने के पीछे के संघर्ष कहानी बड़ी लंबी है. इस कहानी की पटकथा करीब दो साल पहले ही लिख दी गई थी. अखिलेश की कड़ी मेहनत, कुशल रणनीति और चुनावी प्रबंधन ने हताश पार्टी को आज नंबर एक बनाकर खड़ा कर दिया है. 2007 के विधानसभा चुनाव में हारने के बाद सत्ता से बेदखल हुई सपा को उस समय तगड़ा झटका लगा जब 2009 के लोकसभा उपचुनाव में मुलायम सिंह की की बहू डिप्पल यादव को कांग्रेस के राज बब्बर से जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी. बेनी प्रसाद वर्मा सहित पार्टी के कई दिग्गज नेता सपा के भविष्य को अंधकारमय बताते हुए मुलायम का साथ जोड़ कर दूसरी पार्टियों में जाने लगे. कार्यकर्ता निराश हो कर घर बैठने लगे तो नेताओं में दूसरी पार्टियों में जाने की भगदड़ मच गई. तभी अखिलेश ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कमान संभाली और पार्टी को 2012 में सत्ता में पहुंचाने का बीड़ा उठाया. अखिलेश यादव के एक करीबी बताते हैं, "अखिलेश जी ने व्यापक रूप से पार्टी की नीतियों, खामियों और सांगठनिक ढांचे का अध्ययन किया. पार्टी की खामियों के साथ-साथ उन मुद्दों की पहचान की, जो पार्टी के खिलाफ जाते थे. इसके बाद नए सिरे से पार्टी का संगठन तैयार किया गया, जिसमें जुझारू और जमीनी नेताओं को महत्व दिया गया. अमर सिंह और दूसरे बाहुबली नेताओं की वजह से जिन जमीनी और दमदार नेताओं को दरकिनार कर दिया गया था, उन्हें फिर से सक्रिय किया गया. बड़े पैमाने पर युवाओं और छात्र संघ से निकले नेताओं को न केवल अखिलेश ने महत्व दिया बल्कि पार्टी में जिम्मेदारी भी दी. जिससे पार्टी में नई ऊर्जा का संचार हुआ.” अखिलेश की नजर सूबे के डेढ़ करोड़ युवा मतदाताओं पर भी थी, जो पहली बार वोटर बने थे. उन्हें पता था कि ये युवा मतदाता पार्टी की किस्मत सवार सकते हैं. इसके लिए सपा ने खास रणनीति के तहत अपने युवा संगठन को इस काम में लगाया है. सपा के चार यूथ विंग हैं. समाजवादी युवजन सभा, छात्र सभा, लोहिया वाहिनी और मुलायम सिंह यूथ बिग्रेट. पहली बार पार्टी के यूथ विंग को चुनाव में खासा महत्व मिला और चुनाव में वह पार्टी के मुख्य संगठन के समानान्तर काम करता रहा. यूथ विंग के पदाधिकारियों सहित 500 तेजतर्रार युवाओं की एक टीम तैयार की कई. जिसके हाथ में अखिलेश की जनसभाओं से लेकर चुनवा प्रचार की पूरी कमान थी. बूथ स्तर तक की निगरानी इन युवाओं के हाथ में थी. चारों यूथ विंग के राष्ट्रीय पदाधिकारियों को मंडल का प्रभारी बनाया गया तो प्रदेश स्तर के पदाधिकारियों को जिले का. सपा के यूथ विंग समाजवादी युवजन सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और अखिलेश के चुनावी अभियान के प्रभारी डा संजय लाठर कहते हैं, "अखिलेश जी के साथ 500 नौजवानों की फौज चलती थी, जो जनसभाओं में 'क्राउड मैनेजमेंट' से लेकर 'सिक्योरिटी मैनेजमेंट' तक काम करती. हम काम को छोटे छोटे हिस्सों में बांट देते और इसकी जिम्मेदारी अलग अलग लोगों को दी जाती. मसलन रैली स्थल कहां होना चाहिए, ताकी चुनावी माहौल बन सके. लाउडस्पीकर कहां लगे कि आवाज न गूंजे, मंच कहां बनाया जाए कि ज्यादा से ज्यादा लोग मंच के वक्ताओं को देख सकें. बीबीएम (ब्लैकबेरी मैसेंजर) और वाइसनोट के जरिए हम लगातार एक दूसरे के संपर्क में रहते.”
सांगठनिक ढ़ाचा तैयार करने के बाद अखिलेश ने "ब्रेन" की तलाश शुरु की, ताकि पार्टी की रणनीति और चुनावी योजनाओं का मजबूत खाका तैयार किया जा सके. इसके लिए उन्होंने देश और विदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों से उच्च अद्ययन करने वाले नौजवानों और प्रोफेशनलों की एक फौज तैयार की. जिसमें क्रैब्रिज विश्वविद्यालय से पीचएडी करने वाले अभिषेक मिश्रा, आईआईटी, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर संजीव यादव, वर्ल्ड बैंक में कंसलटेंट मेहुल जैन, हार्वर्ड विश्वविद्यालय से डेवलपमेंटल इश्यू पर उच्च अध्ययन करने वाले विनोद यादव जैसे दर्जनों युवक शामिल थे. अखिलेश ने बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की चुनावी रणनीति और विकास कार्यों का गहराई से अध्ययन किया. विश्वविख्यात अर्थशात्री अमर्त्य सेन के साथ काम कर चुके 35 वर्षीय विनोद यादव कहते हैं, "अखिलेश भैया उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य को बदलना चाहते थे. उनकी कोशिश थी की मतदाताओं की जाति-धर्म और संप्रदाय के आधार पर वोट देने की परपंरागत मानसिकता को बदल कर उसे विकास की तरफ उन्मुख किया जाए. इसके लिए उन्होंने अध्ययन किया और रणनीति बनाई. इसमें वे सफल भी रहे. सपा ने अपने पूरे चुनाव अभियान में विकास को ही केंद्र बिंदू में रखा.” इतना ही नहीं अखिलेश ने तो सरकार बनाने के बाद की योजनाओं को भी अंजाम दे दिया है. अपराध और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए थानों को सीसीटीवी कैमरे में कैद किया जाएगा तो प्रशासनिक कार्यालयों को इंटनेट के जरिए लाइव करने का खाका तैयार कर लिया गया है. विनोद यादव बताते हैं, "अखिलेश जी ने उत्तर प्रदेश के विकास का एक रोडमेप तैयार किया है कि कैसे छोटे-छोटे निवेश के जरिए लोगों को बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक लाभ पहुंचाया जा सके.”
अखिलेश ने सपा की कमियों के विश्लेषण में पाया कि पार्टी की छवि खासकर शहरी और पढ़े लिखे लोगों में पुरानी सोच और गुंडों-बदमाशों की पार्टी की है. सपा एक ऐसी पार्टी है जो तकनीक और आधुनिकता की विरोधी है. अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस छवि को बदलने की थी. अखिलेश यादव कहते हैं, "हमारे बारे में यह धारणा बना दी गई थी कि हम तकनीक खासकर कंप्यूटर और अंग्रेजी विरोधी है. जबकि ऐसा नहीं था. हमने मशीन और कंप्यूटर का विरोध इसलिए किया था कि इसकी वजह से बुनकर, चिकन कढ़ाई और जरी का काम करने वाले लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे. अंग्रेजी जहां जरूरी है वहां इस्तेमाल होना चाहिए, लेकिन ज्यादा से ज्यादा अपनी मातृभाषा को बढ़ावा मिलना चाहिए. 10वीं और 12वीं के छात्रों को हमने जो लैपटाप देने की घोषणा की है उसमें अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और उर्दू के भी की बोर्ड होंगे.” अखिलेश ने इस छवि से उबरने की रणनीति तैयार की. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के जन्म दिन 22 नवंबर, 2011 को अंग्रेजी के सबसे प्रतिष्ठत अखबार द टाइम्स आफ इंडिया में सपा का एक विज्ञापन छपता है, जिसमें अखिलेश को छोड़ कर पार्टी के करीब सभी बड़े नेताओं की फोटो के साथ सपा की वेबसाइट, फेसबुक और ट्वीटर के यूआरएल के अलावा पार्टी के कालसेंटर का नंबर प्रकाशित होता है. इस विज्ञापन में मुलायम सिंह लोगों से पार्टी से जुड़ने के लिए अंग्रेजी में "कम एंड ज्वाइन अस" की अपील करते हैं. यह विज्ञापन सपा के लिए टर्निंग प्वाइट था. जाहिर है यह विज्ञापन शहरी युवाओं के लिए था. इस विज्ञापन के जरिए यह संदेश देने की कोशिश की गई की सपा आधुनिक पार्टी है. डा. संजय लाठर कहते हैं, "अंग्रेजी अखबार ही हमारे विरोध में लिखते थे कि हम अंग्रेजी और कंप्यूटर विरोधी हैं. इस विज्ञापन के जरिए हमारे बारे में चर्चा और बहस छिड गई. जब तक यह बहस शांत होती, हमने अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया. जिसमें छात्रों को कंप्यूटर देने की बात कर हमने यह संदेश देने की पुख्ता कोशिश की कि सपा आधुनिकता विरोधी नहीं है.” जाहिर है विज्ञापन और घोषणापत्र की टाइमिंग बिल्कुल सटीक थी. ऐसा रणनीति के तहत किया गया था. इसके बाद कैंब्रिज से पढ़ाई करने वाले अभिषेक मिश्र और लंदन विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने वाली जुही सिंह जैसे उच्च शिक्षित दर्जनों युवाओं को चुनाव मैदान में उतार कर सपा ने पढ़े लिखे नौजवानों का पार्टी की तरफ ध्यान खींचा. जबकि बाहुबली डीपी यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाकर यह संदेश देने की भी कोशिश की कि सपा में गुंडों-बदमाशों का कोई काम नहीं है. गांवों में सपा का मजबूत आधार है, लेकिन शहरों में वह कमजोर रही है. अखिलेश ने शहरी सीटों पर करीब 122 उच्च शिक्षित युवाओं को प्रत्याशी बना कर कांग्रेस और भाजपा के पारंपरिक शहरी वोट बैंक में जबरदस्त सेंध लगाने की कोशिश की है. अखिलेश जब यह सब बदलाव कर रहे थे, तब पार्टी के तमाम बड़े नेता इसे पार्टी सुप्रीमों के लाड़ले बेटे की बचकाना हरकते करार दे रहे थे. उन्हें तब लग रहा था कि यह बेकार की कवायत है. इससे तो कुछ होना जाना नहीं है. लेकिन सच यह है कि अखिलेश एक मंझे हुए नेता साबित हुए. सपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "हमारी सोच गलत साबित हुई. आज सूबे में सपा की लहर है. अखिलेश ने अकेले बलबूते पार्टी को सरकार में ला दिया है. सचमुच यह 'वनमैन शो' है.”
करीब दो साल पहले अखिलेश ने उत्तर प्रदेश में दो दशक में हुए विधानसभा चुनावों के मुद्दों, नतीजों और विभिन्न राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति का अध्ययन किया. इसके अलावा उन्होंने पता लगाया कि सपा की कमजोर बेल्ट कहां है? कमजोर होने की वजह क्या है? उनकी समस्याएं और स्थानीय मुद्दे क्या हैं. जिलावार ही नहीं, गांवों तक का डाटा तैयार कराया. किस गांव में किस जाति के कितने वोट हैं. कितने सपा को मिलते हैं और कितना विरोधियों को. कहां से वोट बैंक में सेंध लगाना है और कैसे, इसका पूरा खाका तैयार किया गया. डाटा एनालिसिस के आधार पर नतीजा निकला की पिछले एक दशक में सपा की सीटें कम-ज्यादा हुई हैं लेकिन उसका वोट बैंक नहीं घटा है. लिहाजा, जहां जहां सपा मजबूत है अगर उन विधानसभा क्षेत्रों में अपने पारंपरिक वोट बैंक में अगर 5000 की बढ़ोत्तरी की जाए तो सपा करीब 250 सीटों पर नतीजा अपने पक्ष में कर सकती है. इस आधार पर हर विधानसभा में पार्टी के वोट बैंक में 10,000 की बढ़ोत्तरी का लक्ष्य रखा गया. डा. संजय लाठर कहते हैं, "अखिलेश जी ने साल भर पहले ही महान सेनापति नैपोलियन की तरह चुनावी रणनीति की रूप रेखा तैयार कर ली थी. क्या मुद्दे होंगे, उनको कैसे और कब उठाना है, प्रचार अभियान कैसे चलाना है, चुनावी नारे क्या होंगे, साइकिल यात्रा का रूट क्या होगा, यह सब बहुत पहले से तय था.” यह भी योजना बनी कि जनता की नजरों में सपा को बसपा का विकल्प साबित करना होगा. ताकि एंटीइनकैबेंसी वोटों को पार्टी की झोली में डाला जा सके. सपा रणनीतिकारों ने तय किया गया कि जनता की नजर में सपा को बसपा का विकल्प साबित करने कि लए मायावती सरकार पर जम हर हल्ला बोलना होगा. लिहाजा, बसपा के खिलाफ हर महीने प्रदेश भर में जिलास्तर पर 4-5 धरने-प्रदर्शन जरूर किए जाए.
सपा ने चुनाव से करीब नौ महीने पहले ही अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी थी. पार्टी के इतिहास में पहली बार कॉरपोरेट स्टाइल में उम्मीदवारों के चयन के लिए साक्षात्कार का आयोजन किया गया. अखिलेश ने चुनाव घोषणा के काफी पहले क्रांतिरथ और साइकिल यात्रा के जरिए पूरे प्रदेश का दौरा करने की योजना बनाई, ताकि कार्यकर्ताओं में जोश भरा जा सके. साइकिल यात्रा उन जगहों पर की, जहां सपा सबसे कमजोर थी. नोएडा से आगरा की 200 किमी की साइकिल यात्रा इसका उदाहरण है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस गन्ना बेल्ट में सपा का कोई विधायक तो दूर, संगठन तक नहीं था. अखिलेश ने प्रदेश के किसी भी नेता से कहीं ज्यादा यात्रा और सभाए की. करीब 10,000 किमी रथ यात्रा और करीब 2,000 किमी साइकिल यात्रा की. एक एक दिन में 12-12 सभाओं को संवोधित किया. रथयात्रा के जरिए अखिलेश ने प्रत्याशियों की ताकत का भी जायजा लिया. जहां पार्टी प्रत्याशी कमजोर दिखा, वहां फौरन उसे बदल दिया गया. यात्रा के दौरान करीब तीन दर्जन कमजोर प्रत्याशियों के टिकट बदल दिए गए.
बूथ कमेटी चुनावी प्रबंधन की रीढ़ होती है. अखिलेश ने प्रयास कर साल भर पहले ही बूथ कमेटियों का गठन किया. बूथ कमेटी के सदस्यों को बाकायदा ट्रेनिंग दी गई. उन्हें सपाई वोटरों को सूचीबद्ध करने और उन्हें बूथ तक लाकर वोट डलवाने की जिम्मेदारी दी गई. सपा का दावा है कि उसकी वजह से ही मतदान का प्रतिशत बढ़ा है. संजय लाठर कहते हैं, "हमारे पास बूथ कमेटी के एक एक सदस्य का डाटा है. पहले चरण के मतदान के पहले जब बारिश शुरु हुई तो फौरन हमने अपने बूथ कमेटियों के सदस्यों को आगाह किया कि ऐसे हालात में वाहनों का इंतजाम कर अपने वोट बैंक को मतदान केंद्र तक पहुंचाएं. नतीजा शाम तक अच्छा खासा मतदान हुआ.” लाठर आगे कहते हैं, "बूथ कमेटी के जरिए मतदान की शाम हमें यह रिपोर्ट मिल जाती है कि हमें कहां कितने वोट मिले और कहां हम जीत रहे हैं.”
अब जबकि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत से आगे निकल चुकी है, तब हम कह सकते हैं कि समाजवाद के सौरमंडल पर उभरे इस नये सितारे ने अपनी कुशल रणनीति के चलते विरोधियों को जमीन दिखा दिया है. आगे अखिलेश क्या करेंगे उसका अंदाज इसी से लग सकता है कि भारी विजय के तत्काल बाद उन्होंने मीडिया से यह कहने में देर नहीं लगाई कि प्रदेश में बदले की राजनीति नहीं की जाएगी. भले ही बुतों का विरोध करके वे सत्ता में आये हों लेकिन मायावती के वे बुत बने रहेंगे जो मायावती की हार के कारणों में से एक हैं. उम्मीद की साइकिल आगे बढ़ चुकी है.