प्रेम व स्नेह का संकट





वर्ष २०१२ उत्सवों व खुशियों के साथ आरंभ हुआ। पिछले वर्षों की भांति इस वर्ष भी बच्चे सेन्टा क्लाज के उपहार में लीन व मगन हो गये और अधिकारियों ने भी पटाखे छोड़ाकर तथा बड़ी- बड़ी सड़कों पर लाइटिंग करके युरोप एवं पश्चिम के संकटग्रस्त वातावरण को कुछ समय के लिए सुन्दर व बेहतर बनाने का प्रयास किया परंतु संचार माध्यमों के हो- हल्ले के मध्य वे समाचार भी प्रकाशित हुए जिससे आत्मिक दृष्टि से २१वीं शताब्दी के मनुष्य के अकेले होने की याद आ गयी। युरोप में बड़ी आयु के लोगों के घरों से ऐसी तस्वीरें प्रकाशित हुईं जो अकेलेपन का दुख और उन माताओं की व्यथा सुना रही थीं जो अपने परिवार को देखने की अभिलाषा व कामना लिए हुए थी। इन लोगों ने नया वर्ष आरंभ होने से पहले ही कुछ कम्पनियों के खातों में पैसा डाल दिया था ताकि वे इन लोगों के लिए किराये पर बच्चे और लड़के भेज दें ताकि वे इस बहाने से कुछ समय के लिए ही कम से कम अकेलेपन के दुःख को भूल जायें। जवान लड़कियों ने एक ही रंग के वस्त्र धारण किये बड़ी आयु के लोगों के घरों में प्रवेश किया और वे बूढ़ी महिलाओं एवं बूढ़े पुरूषों के पास गयीं, उनसे हाथ मिलाया तथा दिखावटी व बनावटी हंसी के साथ उनके पास बैठ गयीं। यह समाचार इस बात का सूचक है कि हमारे संसार से व्यवहार का सूचक अर्थात प्रेम भावना मर चुकी है। आज का मनुष्य पहले से अधिक सभ्य और विकसित हो गया है तथा संचार माध्यमों से संपर्क विस्तृत हो गया है परंतु मनुष्यों के मध्य संपर्क कठिन, झूठ और आभासहीन व नीरस हो गया है।
बड़ी आयु से तात्पर्य वे लोग हैं जिन्होंने अपनी आयु का अधिकांश एवं महत्वपूर्ण भाग कार्य व परिश्रम में बिताया और बच्चों को बड़ा एवं पढ़ा लिखा कर समाज के हवाले कर दिया। अब जबकि उनकी शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमता कम हो गयी है तो उन्हें अपने बच्चों के प्रेम की अधिक आवश्यकता है। ज्ञान और दूसरी चीज़ों का अनुभव इन बूढ़े लोगों के साथ है। ये लोग यह चाहते हैं कि उन पर ध्यान दिया जाये, उन्हें समझा जाये और उनके सफेद बालों पर स्नेह का हाथ फिराया जाये। बूढ़े दादा- दादी अपने पोतों को प्यार भरी अपनी गोद में लेकर अपने बचपन की याद ताज़ा करना चाहते हैं। वे ऐसी चीज़ चाहते हैं जिसकी पूर्ति किराये पर लिये बच्चे नहीं कर सकते।
वास्तविकता यह है कि पश्चिमी सभ्यता ने मनुष्य की पवित्र प्रवृत्ति को पतन की कगार पर पहुंचा दिया है और व्यवहार के स्रोत को दूषित कर दिया है। परिणाम स्वरुप परिवार और उनके मध्य संबंध टूट गये हैं। जिस इकाई को समाज का आरंभिक आधार समझा जाता है, जिसे पवित्र क़ुरआन ने प्रेम एवं शांति का केन्द्र बताया है, जो महिला- पुरुष और परिवार के दूसरे सदस्यों को एक दूसरे से जोड़ता है अब उसमें कोई चीज़ व विशेषता नहीं बची है। अब भाई- बहन, निकट परिजन या दादा- दादी एवं पोतों के मध्य प्रेम व स्नेह का स्थान हितों ने ले लिया है। आत्ममुग्धता, विश्वास का मापदंड बन गयी है और उसने संबंधों को नीरस व प्राणहीन बना दिया है।
प्रतिदिन विश्व के कोने- कोने से खेदजनक समाचार सुनाई देते हैं जो इस अध्यात्म एवं नैतिकता के पतन के सूचक हैं। कुछ मां-बाप की ओर से बच्चों का बेचा जाना और "परिवार रहित बच्चे" शीर्षक के अंतर्गत बच्चों का माता-पिता के प्रेम से वंचित रहना और पश्चिमी समाजों में लोगों को कोई महत्व न दिया जाना वह चीज़ है जिसका परिणाम आत्मिक बीमारी, थकावट, हिंसा और अवसाद आदि का फैल जाना है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पश्चिम के लोग जो जानवरों पर बहुत अधिक ध्यान दे रहे हैं उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि कोई स्थान तो हो जहां मनुष्य सच्चाई, प्रेम और वफादारी जैसी चीज़ को सामने वाले पक्ष से प्राप्त करे। एक रिपोर्ट में आया है कि फ्रांस में पालतू कुत्तों की संख्या ७० तक पहुंच गयी है। यह
जानवर अपने मालिकों के साथ इस प्रकार से रहते हैं कि मानो वे उनके निकट संबंधी हैं। पेरिस में जानवरों की रखवाली करने वाली एक इकाई के जिम्मेदार ने इस बहुत निकट संबंध के बारे में कहा" लोग यह चाहते हैं कि वे किसी से प्रेम करें और उनसे भी कोई प्रेम करे परंतु लोगों के मध्य कोई ऐसा नहीं है जो उनसे प्रेम करे और वे भी किसी से प्रेम करें"
अमेरिकी लेखक व पत्रकार chris hedges भी पश्चिमी समाज को बड़ी नैतिक एवं आध्यात्मिक कठिनाइयों की भंवर में फंसा देखता है कि जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पतन की ओर अग्रसर है और उसके मूल्य नष्ट हो चुके हैं। chris hedges के अनुसार अमेरिका के लोग वे राष्ट्र हैं जो अपने रास्ते से भटक गये हैं। उपभोक्तावाद केवल उन पर शासन कर रहा है। अच्छे कार्यों पर ध्यान ही नहीं देते, वह एक एसे अमेरिकी नायक के प्रेमी हैं जिसका वास्तविकता में कोई आधार नहीं है"
वह आगे कहता है" जो समाज वास्तविकता एवं कल्पना में अंतर नहीं कर सकते उनका अंत हो जायेगा। यदि बड़े साम्राज्यों के अंतिम काल को देखें तो रोम, उसमानी, आस्ट्रिया और हंगरी साम्राज्यवाद न केवल व्यवहार व नैतिकता में कमज़ोरी के साक्षी हैं बल्कि एक प्रकार से वास्तविकता एवं कल्पना में अंतर करने में अक्षमता के साक्षी होंगे। अब हमारे जीवन का मापदंड परिवर्तित हो रहा है"
सामाजिक मामलों के एक अध्ययन व शोधकर्ता एलेक्स कोलविन कहते हैं" १९वीं शताब्दी में धर्मविरोधी कुछ विचारक मनुष्य और ब्रह्मांड के अर्थ को विस्तृत करने के प्रयास में थे और इस संबंध में उन्होंने कई विचार प्रस्तुत किये तथा उनकी समीक्षा की जिससे आधुनिक मनुष्य और महान ईश्वर के मध्य दूरी की बहस और ज़ोर पकड़ गयी तथा नैतिकता की वास्तविकताओं को समझने में मनुष्य संदेह में पड़ गया और जैसे ही यह विचार व विश्वास प्रचलित हो गये लोगों में प्रेम व स्नेह की भावना भी कमज़ोर हो गयी और यह बात धीरे- धीरे परिवारों में प्रवेश कर गयी। इस प्रकार के आधुनिकतम विचारों व दृष्टिकोणों ने २१वीं शताब्दी में अमेरिका की बड़ी इकाईयों को प्रभावित कर दिया और ऐसी संस्कृति व व्यवहार के अस्तित्व में आने का कारण बनी जो गत तीन दशकों में परिवारों के बिखरने व टूटने का कारक बनी है"
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि किसी राष्ट्र द्वारा धार्मिक विश्वासों की उपेक्षा समाजों में नैतिक पतन का एक महत्वपूर्ण कारण है। क्योंकि संस्कृति का आधार धार्मिक या अध्यात्मिक आइडियालोजी पर होता है और जब धार्मिक विश्वास एवं धार्मिक परम्परायें किसी सभ्यता में मिल जाती हैं तो वही उसकी समाप्ति का समय होता है। इसी संबंध में अमेरिकी इतिहासकार वेल डोरेन्ट भी कहता है" इतिहास ने अब तक ऐसा कोई ध्यान योग्य काल नहीं देखा है जिसमें समाज, धर्म की सहायता लिये बिना एक सफल जीवन उपलब्ध कर सका हो"

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