राह बस इक चाह से खुल जाएगी...

 प्रभात रंजन दीन
           सबसे अधिक युवा जनसंख्या वाले देश मे. ऐसा ही होता है। नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकते युवक बेमौत मारे जाते हैं। कभी राज ठाकरे जैसे निम्न स्तरीय गुंडे के हाथों तो कभी निम्न स्तरीय सत्ता व्यवस्था के हाथों। भारत-तिब्बत सीमा पुलिस में महज चार सौ पदों पर भर्ती के लिए 11 राज्यों से लाखों युवक बरेली आए थे। उम्मीदें संजोकर अपने घरों से आए बच्चों की लाशें जब उनके घर पहुंची होंगी तो वहां क्या हुआ होगा यह बात कहने की नहीं, महसूस करने की है। जिस देश में नौकरी के लिए भटकते युवकों की क्षत-विक्षत लाशें घर के लोगों को मिलती हों, वहां मिस्र जैसा जन-आंदोलन खड़ा नहीं होता। देशभक्ति का जज्बा लेकर सेना में भर्ती होने गए युवकों को जिस देश में गंदे सीवर में डूब कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, उस देश में राजनीतिक व्यवस्था के परिवर्तन के लिए जन-सैलाब नहीं उमड़ता। जिस देश का धन सोख कर विदेशों में पहुंचाया जाता हो और उसे वापस करने में सत्ता चोरों जैसा व्यवहार करती हो, उस सडिय़ल सत्ता व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का जन-संकल्प कहीं नहीं दिखता। जिस देश में धार्मिक स्थल तोडऩे के लिए सैलाब उमड़ता हो और धार्मिक कार्टून बनाए जाने के खिलाफ जहां अंध-एकजुटता दिखती हो, जिस देश में भ्रष्ट नेता के बुलावे पर भेंड़ जैसी भीड़ का रेला दिखता हो और एकला चलता ईमानदार देशभक्त बीच सडक़ फूंक दिया जाता हो, जिस देश में शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा आत्मदाह करते हों और अफजल गुरु कसाब जैसे आतंकी उड़ाते हों कानून का मजाक, वैसे देश के लोगों से व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लडऩे के नैतिक बल और संकल्प की क्या उम्मीद करना?
आजादी के बाद से लगातार हो रहे घोटाले और भ्रष्टाचार की भरमार ने देश के सामाजिक मनोविज्ञान को बदल डाला है। बेईमानी मुख्यधारा में और सच्चाई हाशिए पर है। युवकों की सबसे अधिक जनसंख्या का हवाला केवल राजनीतिक तकरीरों के लिए और वोट लेने के लिए है। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक और मंत्री से लेकर राजनीतिक नेतृत्व के तमाम आसनों तक शातिर बुड्ढे काबिज हैं। उम्र से लेकर ऊर्जा तक में बुढ़ाए हुए, लेकिन तिकड़म और भ्रष्टाचार में पगे-पके। रोजगार के लिए रोजाना अखंड भारत में खंड खंड टूटते नौजवान हमारे देश का भविष्य हैं। देशवासियों के समक्ष इससे बड़ा परोसा हुआ पाखंड और क्या हो सकता है...
ये शातिरों की जमात हमें तब भी निगलने पर आमादा थी, अब भी है...
ये संसद, ये बुर्ज-ओ-दीवारें, रौशनी निगलने पर तब भी आमादा थीं, अब भी हैं...
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो... राह बस इक चाह से खुल जाएगी..

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