अयोध्या की गलियों में भीख मांगते रामलला
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कैलाश सत्यार्थी
नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने यह लेख 2011 में लिखा था। उस वक्त उनके इस लेख पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी कि उन्होंने इसी कड़ी में दूसरा लेख लिखकर अपनी बात को जोरदार तरीके से सामने रखी थी। भारत के धार्मिक और आस्था के केन्द्र अयोध्या की दशा पर लिखे इस लेख के जरिए न सिर्फ भारत में बाल श्रम की सच्चाई सामने आती है बल्कि उस धर्मनिष्ठ भारत की कलई भी खुलती है जिसने रामलला के जन्मस्थान के लिए इतना जबर्दस्त राजनीतिक आंदोलन देखा। अब हम वही लेख फिर से प्रकाशित कर रहे हैं।
कुछ दिनों पहले पहली बार अयोध्या जाने का अवसर मिला। दो दिनों के अपने प्रवास के दौरान वहां चार प्रमुख परंतु गंभीर किस्म की विरोधभासी बातों का अनुभव किया। पहली, जिसे इस प्राचीन नगरी के गली-कूचे से गुजरने वाला हर व्यक्ति महसूस कर सकता है, वह है प्राचीन एवं अवधी स्थापत्य कला से निर्मित भवन, जिनकी रख-रखाव के अभाव में दुर्गति, इस शहर की दु:खद आप-बीती को बयान करती है। दूसरी, यहां के साधारण लोग, जो कि राम की राजधानी के नागरिक होने के पुस्तैनी गौरव को सदियों से संजोकर जरूर रखे हुए हैं, किन्तु गैर हिन्दुओं के प्रति आमतौर पर उनमें कोई घृणा या गुस्सा नजर नहीं आता। उल्टे, फूलों की खेती करने वाले मुसलमान, मालियों और पुजारियों तथा मठाधीशों में एक गजब का भाईचारा है जो जरूरत, परंपरा और रोजगार धंधे के कारण निर्बाध रूप से फल-फूल रहा है। यही भाई-चारा बावरी मस्जिद ढांचे के तोड़े जाने के बाद उपजी अत्यंत नाजुक परिस्थतियों में भी देखा गया। जब देश भर में परस्पर घृणा और अविश्वास का माहौल था व कई स्थानों पर हिंसक दंगे हो रहे थे, उस वक्त अयोध्या और फैजाबाद के हिन्दू-मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर न केवल अपने क्षेत्र में शांति बनाए हुए थे, बल्कि जगह-जगह सौहार्द्र यात्राएं निकालकर शांति का पैगाम पहुंचा रहे थे। फिर भी, दोनों संप्रदायों के नेता स्थानीय समूहों और संगठनों के बीच घुसपैठ करके अयोध्या में अपने पांव जमाने में थोड़े-बहुत सफल हो गए हैं।
तीसरी, गरीबों में भी शिक्षा के प्रति जबर्दस्त आकर्षण बढ़ा है जिसके चलते फैजाबाद-अयोध्या में साक्षरता दर 70 प्रतिशत तक पहुंच गया है। किन्तु यहां पर एक विसंगति है कि पुरुषों के 80 फीसदी के मुकाबले महिलाओं की साक्षरता दर 60 फीसदी है। मुझे लगता है कि इसकी जडं़े रामराज्य तक जाती हैं। यदि वही रामराज्य की जगह सीता-रामराज्य होता तो शायद अयोध्या फैजाबाद इलाके की तस्वीर कुछ और होती। संभव है हमारे देश का इतिहास ही कुछ और होता।
''सियाराम मय सब जग जानी की तोता रटंत करने वाले यदि लेसमात्र भी तुलसीदास की इस चौपाई पर अमल कर रहे होते तो देश के 6 करोड़ बच्चे आज शिक्षा से वंचित तथा बाल श्रम और शोषण के शिकार नहीं होते। भ्रूण हत्या के चलते एक हजार लड़कों के पीछे बच्चियों की संख्या घटकर 918 नहीं रह गई होती। देश के लगभग 70 फीसदी रामलला शारीरिक उत्पीड़न और 53 फीसदी जनकदुलारियां यौन उत्पीड़न की शिकार न हो पातीं।''
चौथा, किन्तु सबसे महत्वूपर्ण अनुभव रामजन्मभूमि एवं रामलला से संबंधित है। जिज्ञासावश उस विवादित स्थल को भी देखने गया जो देश में हिन्दू और मुसलमानों के भावनात्मक अतिरेक तथा साम्प्रदायिक वैमनस्व का सबसे बड़ा कारण है। मानव अधिकार, बाल मजदूरी व शिक्षा आदि क्षेत्रों में काम करने की वजह से मुझे एक सौ से अधिक देशों में खतरनाक से खतरनाक स्थानों पर जाने का मौका मिला है। इसमें सीमा विवादों और गृह युद्धों से ग्रस्त देश भी शामिल हैं, जो संयुक्त राष्टÑ संघ की शांति सेना की देख-रेख और नियंत्रण में हैं। किन्तु रामलला की उस कथित जन्मभूमि पर मंदिर के नाम पर बनाए गए टीन-टप्पर के ढांचे तक पहुंचने में जो मशक्कत करनी पड़ी वह उससे भी कहीं ज्यादा थी। हमें कम से कम 5-6 सुरक्षा चौकियों से गुजरना पड़ा। चप्पे-चप्पे पर खतरनाक हथियारों के साथ हजारों सुरक्षाकर्मी तैनात थे। हमारे मोबाइल फोन, पर्स, पैन कार्ड, पेंसिल आदि सभी कुछ पहले चौकी में ही जमा करा लिए गए थे। इसके बावजूद भी पांच जगहों पर गहन तलाशी से गुजरना पड़ा। इतना ही नहीं एक बार मोटे लोहे के सरियों से बनाए गए पिंजरेनुमा जालीदार रास्ते में घुस जाने के बाद कहीं भी बाहर निकल पाना संभव नहीं था। लगभग एक किलोमीटर के ज्यादा चक्करदार रास्ते में आज जितने सुरक्षाकर्मी, हथियार और कठोर व्यवस्थाएं हैं उतनी शायद दशरथ या राम के राज्य में भी नहीं रही होंगीं।
बाहर निकलने के बाद भयंकर गर्मी, पसीने और प्यास से त्रस्त हम लोग हनुमान गढ़ी के चारों ओर हलवाई की दुकानों और छोटे-छोटे रेस्तराओं से अपने लिए पानी या चाय का गिलास हासिल नहीं कर सके, क्योंकि लगभग हर जगह गंदे कपड़ों और दयनीय स्थितियों में दिखने वाले बच्चे मजदूरी कर रहे थे। मैं और मेरे साथी उन स्थानों, व्यक्तियों और पदार्थों का बहिष्कार करते हैं जिनमें बाल मजदूरी शामिल है। सौभाग्य से हमें भोजन सामग्री की एक ऐसी दुकान मिल गई जिसे सिर्फ एक वृद्ध सज्जन चलाते थे। हमने वहीं पर रुककर ठंडा पानी पिया। किंतु थोड़ी देर में ही हमारी कार उन भीख मांगने वाले बच्चों से घिर गई जिनमें न केवल हिन्दू बल्कि कुछ मुसलमान भी थे। सभी नंगे पांव, फटे हुए कपड़ों और दुबले पतले हाथों वाले बच्चे थे। यह एक ऐसा विरोधाभासी दृश्य था जो मैं जीवनभर नहीं भूल पाऊंगा। एक तरफ अपना अयोध्या का राज-पाट ठुकराकर देश भर के दबे कुचले आदिवासी समूहों को संगठित करके - सत्ता, सम्पत्ति तथा ज्ञान की ताकत को अपनी मुट्ठी में समेटे अत्याचार के प्रतीक बने रावण का अन्त करने वाले और जान-बूझकर गरीबी और मुफलिसी में चौदह वर्ष काटते हुए शूद्रों के साथ सम्मान एवं समानता का रिश्ता कायम करने वाले रामलला को एक पत्थर की मूर्ति में कैद करके रखा गया था, वहीं दूसरी तरफ उसी राम के लला, वे मासूम बच्चे भीख मांगने या मजदूरी करने के लिए अभिशप्त थे। अगर अयोध्या के वे बच्चे रामलला नहीं तो भला कौन हैं ?
यही दृश्य, बात-बात पर फतवा जारी करने वाले उत्तर प्रदेश के कस्बे देवबंद व दिल्ली की जामा मास्जिद के आस-पास के गली-कूचों अथवा अजमेर के ख्वाजा साहब की दरगाह से अलग नहीं है। भट्ठों, फैक्ट्रियों और दुकानों के मालिक, बिरादरी की आड़ लेकर अपने ही मासूम बच्चों का खून चूस रहे हैं। यहां तक कि मदरसे और मौलवी भी बिहार तथा पश्चिम बंगाल के गांवों से की जा रही बाल तस्करी में शामिल हैं। बंधुआ बनाकर रखे गए ऐसे बच्चों को मुक्त कराने की कायर्वाही के दौरान मुझे और मेरे साथियों को ऐसे हिंसक हमलों का शिकार होना पड़ा जब मजहबी ठेकेदारों ने अफवाह फैलाई कि चंद काफिर मदरसे से बच्चों को छीनकर ले जा रहे हैं। कमोबेश, सभी हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, सिख और ईसाई आदि धार्मिक स्थलों के इर्द-गिर्द और कभी-कभी अंदर भी बच्चों का उत्पीड़न जारी है। दुर्भाग्य यह है कि पुरोहितों और भक्तों की नजर प्रभु की उन संतानों तक नहीं पहुंच पाती है।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, अयोध्या की आम जनता मंदिर-मस्जिद विवाद के लिए उतनी जिम्मेदार नहीं है जितनी कि हिन्दू और मुसलमानों के नाम पर राजनीति करने वाले दिल्ली, लखनऊ, बनारस, अलीगढ़, मुम्बई आदि शहरों में बैठे धर्म के ठेकेदार और राजनेता हैं। मन्दिर-मस्जिद के नाम पर करोड़ों लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करके अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले यही धमर्गुरु अयोध्या पहुंचकर फसाद खड़े करते हैं। वहां न तो उन्हें ये बदहाल रामलला नजर आते हैं और न ही वह इलाका जिसमें राम पले-बढ़े होंगे।
यदि सभी मतों के धर्माचार्य बच्चों पर हो रहे जुल्म को रोकने के लिए अपनी वाणी और भक्तों की ऋद्धा के प्रभाव का इस्तेमाल करें तो काफी हद तक देश से बाल दासता, बाल व्यापार, भू्रण हत्या और अशिक्षा के कलंक को पोंछा जा सकता है। इसे मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आज भी धमर्गुरुओं के पैगाम और उपदेशों का उनके अनुयायियों पर जितना असर हो सकता है वह शायद किसी भी सरकारी विज्ञापन या सामाजिक कार्यकर्ताओं के जन-जागरण के प्रयासों से संभव नहीं।
नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने यह लेख 2011 में लिखा था। उस वक्त उनके इस लेख पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी कि उन्होंने इसी कड़ी में दूसरा लेख लिखकर अपनी बात को जोरदार तरीके से सामने रखी थी। भारत के धार्मिक और आस्था के केन्द्र अयोध्या की दशा पर लिखे इस लेख के जरिए न सिर्फ भारत में बाल श्रम की सच्चाई सामने आती है बल्कि उस धर्मनिष्ठ भारत की कलई भी खुलती है जिसने रामलला के जन्मस्थान के लिए इतना जबर्दस्त राजनीतिक आंदोलन देखा। अब हम वही लेख फिर से प्रकाशित कर रहे हैं।
कुछ दिनों पहले पहली बार अयोध्या जाने का अवसर मिला। दो दिनों के अपने प्रवास के दौरान वहां चार प्रमुख परंतु गंभीर किस्म की विरोधभासी बातों का अनुभव किया। पहली, जिसे इस प्राचीन नगरी के गली-कूचे से गुजरने वाला हर व्यक्ति महसूस कर सकता है, वह है प्राचीन एवं अवधी स्थापत्य कला से निर्मित भवन, जिनकी रख-रखाव के अभाव में दुर्गति, इस शहर की दु:खद आप-बीती को बयान करती है। दूसरी, यहां के साधारण लोग, जो कि राम की राजधानी के नागरिक होने के पुस्तैनी गौरव को सदियों से संजोकर जरूर रखे हुए हैं, किन्तु गैर हिन्दुओं के प्रति आमतौर पर उनमें कोई घृणा या गुस्सा नजर नहीं आता। उल्टे, फूलों की खेती करने वाले मुसलमान, मालियों और पुजारियों तथा मठाधीशों में एक गजब का भाईचारा है जो जरूरत, परंपरा और रोजगार धंधे के कारण निर्बाध रूप से फल-फूल रहा है। यही भाई-चारा बावरी मस्जिद ढांचे के तोड़े जाने के बाद उपजी अत्यंत नाजुक परिस्थतियों में भी देखा गया। जब देश भर में परस्पर घृणा और अविश्वास का माहौल था व कई स्थानों पर हिंसक दंगे हो रहे थे, उस वक्त अयोध्या और फैजाबाद के हिन्दू-मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर न केवल अपने क्षेत्र में शांति बनाए हुए थे, बल्कि जगह-जगह सौहार्द्र यात्राएं निकालकर शांति का पैगाम पहुंचा रहे थे। फिर भी, दोनों संप्रदायों के नेता स्थानीय समूहों और संगठनों के बीच घुसपैठ करके अयोध्या में अपने पांव जमाने में थोड़े-बहुत सफल हो गए हैं।
तीसरी, गरीबों में भी शिक्षा के प्रति जबर्दस्त आकर्षण बढ़ा है जिसके चलते फैजाबाद-अयोध्या में साक्षरता दर 70 प्रतिशत तक पहुंच गया है। किन्तु यहां पर एक विसंगति है कि पुरुषों के 80 फीसदी के मुकाबले महिलाओं की साक्षरता दर 60 फीसदी है। मुझे लगता है कि इसकी जडं़े रामराज्य तक जाती हैं। यदि वही रामराज्य की जगह सीता-रामराज्य होता तो शायद अयोध्या फैजाबाद इलाके की तस्वीर कुछ और होती। संभव है हमारे देश का इतिहास ही कुछ और होता।
''सियाराम मय सब जग जानी की तोता रटंत करने वाले यदि लेसमात्र भी तुलसीदास की इस चौपाई पर अमल कर रहे होते तो देश के 6 करोड़ बच्चे आज शिक्षा से वंचित तथा बाल श्रम और शोषण के शिकार नहीं होते। भ्रूण हत्या के चलते एक हजार लड़कों के पीछे बच्चियों की संख्या घटकर 918 नहीं रह गई होती। देश के लगभग 70 फीसदी रामलला शारीरिक उत्पीड़न और 53 फीसदी जनकदुलारियां यौन उत्पीड़न की शिकार न हो पातीं।''
चौथा, किन्तु सबसे महत्वूपर्ण अनुभव रामजन्मभूमि एवं रामलला से संबंधित है। जिज्ञासावश उस विवादित स्थल को भी देखने गया जो देश में हिन्दू और मुसलमानों के भावनात्मक अतिरेक तथा साम्प्रदायिक वैमनस्व का सबसे बड़ा कारण है। मानव अधिकार, बाल मजदूरी व शिक्षा आदि क्षेत्रों में काम करने की वजह से मुझे एक सौ से अधिक देशों में खतरनाक से खतरनाक स्थानों पर जाने का मौका मिला है। इसमें सीमा विवादों और गृह युद्धों से ग्रस्त देश भी शामिल हैं, जो संयुक्त राष्टÑ संघ की शांति सेना की देख-रेख और नियंत्रण में हैं। किन्तु रामलला की उस कथित जन्मभूमि पर मंदिर के नाम पर बनाए गए टीन-टप्पर के ढांचे तक पहुंचने में जो मशक्कत करनी पड़ी वह उससे भी कहीं ज्यादा थी। हमें कम से कम 5-6 सुरक्षा चौकियों से गुजरना पड़ा। चप्पे-चप्पे पर खतरनाक हथियारों के साथ हजारों सुरक्षाकर्मी तैनात थे। हमारे मोबाइल फोन, पर्स, पैन कार्ड, पेंसिल आदि सभी कुछ पहले चौकी में ही जमा करा लिए गए थे। इसके बावजूद भी पांच जगहों पर गहन तलाशी से गुजरना पड़ा। इतना ही नहीं एक बार मोटे लोहे के सरियों से बनाए गए पिंजरेनुमा जालीदार रास्ते में घुस जाने के बाद कहीं भी बाहर निकल पाना संभव नहीं था। लगभग एक किलोमीटर के ज्यादा चक्करदार रास्ते में आज जितने सुरक्षाकर्मी, हथियार और कठोर व्यवस्थाएं हैं उतनी शायद दशरथ या राम के राज्य में भी नहीं रही होंगीं।
बाहर निकलने के बाद भयंकर गर्मी, पसीने और प्यास से त्रस्त हम लोग हनुमान गढ़ी के चारों ओर हलवाई की दुकानों और छोटे-छोटे रेस्तराओं से अपने लिए पानी या चाय का गिलास हासिल नहीं कर सके, क्योंकि लगभग हर जगह गंदे कपड़ों और दयनीय स्थितियों में दिखने वाले बच्चे मजदूरी कर रहे थे। मैं और मेरे साथी उन स्थानों, व्यक्तियों और पदार्थों का बहिष्कार करते हैं जिनमें बाल मजदूरी शामिल है। सौभाग्य से हमें भोजन सामग्री की एक ऐसी दुकान मिल गई जिसे सिर्फ एक वृद्ध सज्जन चलाते थे। हमने वहीं पर रुककर ठंडा पानी पिया। किंतु थोड़ी देर में ही हमारी कार उन भीख मांगने वाले बच्चों से घिर गई जिनमें न केवल हिन्दू बल्कि कुछ मुसलमान भी थे। सभी नंगे पांव, फटे हुए कपड़ों और दुबले पतले हाथों वाले बच्चे थे। यह एक ऐसा विरोधाभासी दृश्य था जो मैं जीवनभर नहीं भूल पाऊंगा। एक तरफ अपना अयोध्या का राज-पाट ठुकराकर देश भर के दबे कुचले आदिवासी समूहों को संगठित करके - सत्ता, सम्पत्ति तथा ज्ञान की ताकत को अपनी मुट्ठी में समेटे अत्याचार के प्रतीक बने रावण का अन्त करने वाले और जान-बूझकर गरीबी और मुफलिसी में चौदह वर्ष काटते हुए शूद्रों के साथ सम्मान एवं समानता का रिश्ता कायम करने वाले रामलला को एक पत्थर की मूर्ति में कैद करके रखा गया था, वहीं दूसरी तरफ उसी राम के लला, वे मासूम बच्चे भीख मांगने या मजदूरी करने के लिए अभिशप्त थे। अगर अयोध्या के वे बच्चे रामलला नहीं तो भला कौन हैं ?
यही दृश्य, बात-बात पर फतवा जारी करने वाले उत्तर प्रदेश के कस्बे देवबंद व दिल्ली की जामा मास्जिद के आस-पास के गली-कूचों अथवा अजमेर के ख्वाजा साहब की दरगाह से अलग नहीं है। भट्ठों, फैक्ट्रियों और दुकानों के मालिक, बिरादरी की आड़ लेकर अपने ही मासूम बच्चों का खून चूस रहे हैं। यहां तक कि मदरसे और मौलवी भी बिहार तथा पश्चिम बंगाल के गांवों से की जा रही बाल तस्करी में शामिल हैं। बंधुआ बनाकर रखे गए ऐसे बच्चों को मुक्त कराने की कायर्वाही के दौरान मुझे और मेरे साथियों को ऐसे हिंसक हमलों का शिकार होना पड़ा जब मजहबी ठेकेदारों ने अफवाह फैलाई कि चंद काफिर मदरसे से बच्चों को छीनकर ले जा रहे हैं। कमोबेश, सभी हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, सिख और ईसाई आदि धार्मिक स्थलों के इर्द-गिर्द और कभी-कभी अंदर भी बच्चों का उत्पीड़न जारी है। दुर्भाग्य यह है कि पुरोहितों और भक्तों की नजर प्रभु की उन संतानों तक नहीं पहुंच पाती है।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, अयोध्या की आम जनता मंदिर-मस्जिद विवाद के लिए उतनी जिम्मेदार नहीं है जितनी कि हिन्दू और मुसलमानों के नाम पर राजनीति करने वाले दिल्ली, लखनऊ, बनारस, अलीगढ़, मुम्बई आदि शहरों में बैठे धर्म के ठेकेदार और राजनेता हैं। मन्दिर-मस्जिद के नाम पर करोड़ों लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करके अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले यही धमर्गुरु अयोध्या पहुंचकर फसाद खड़े करते हैं। वहां न तो उन्हें ये बदहाल रामलला नजर आते हैं और न ही वह इलाका जिसमें राम पले-बढ़े होंगे।
यदि सभी मतों के धर्माचार्य बच्चों पर हो रहे जुल्म को रोकने के लिए अपनी वाणी और भक्तों की ऋद्धा के प्रभाव का इस्तेमाल करें तो काफी हद तक देश से बाल दासता, बाल व्यापार, भू्रण हत्या और अशिक्षा के कलंक को पोंछा जा सकता है। इसे मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आज भी धमर्गुरुओं के पैगाम और उपदेशों का उनके अनुयायियों पर जितना असर हो सकता है वह शायद किसी भी सरकारी विज्ञापन या सामाजिक कार्यकर्ताओं के जन-जागरण के प्रयासों से संभव नहीं।