इराक संकट से उभरे सवाल
https://tehalkatodayindia.blogspot.com/2014/06/blog-post_22.html
अख़लाक़ अहमद उस्मानी
‘अफसोस ऐ वतन से निकाले हुए हुसैन/ ऐ फातिमा की गोद के पाले हुए हुसैन/ तुझसा शहीद कौन है आलम में ऐ हुसैन/ तू है हर इक दीदा-ए-पुरनममें ऐ हुसैन’।
क्रांति के शायर जोश मलीहाबादी ने करबला की जंग का वर्णन ‘हुसैन और इंकलाब’ में इस प्रकार किया है। भारत में उर्दू शायरों को ‘मरसिया’ लिखने की प्रेरणा ही करबला की जंग से मिली और यह विधा इतनी लोकप्रिय हुई कि भारत समेत दुनिया में जहां भी उर्दू पढ़ाई जाती है, नज्म विभाग में मरसिया अध्ययन ही अलग से होता है। हजरत इमाम हुसैन का मकबरा इराक के करबला शहर में है। वही करबला जहां 680 ईस्वी में जालिम यजीद की सेना के शिम्र ने हजरत इमाम हुसैन का नमाज की हालत में सज्दे में सर कलम कर शहीद कर दिया था।
एक बार फिर करबला ही नहीं बल्कि पवित्र शहर बगदाद, नजफ, समारा और काजिमैन पर वहशी वहाबी उर्फ तकफीरी उर्फ सलफी उर्फ नज्दी उर्फ यजीदी उर्फ जिहादी तत्त्वों से खतरा है। इस्लाम के लिए चलते-फिरते दुष्प्रचार और बदनामी के ये बदनुमा दाग, नाम अल्लाह और उसके रसूल पैगंबर हजरत मुहम्मद का लेते हैं और आज तक करबला में हजरत इमाम हुसैन के कत्ल को राजनीतिक लड़ाई का नाम देते हुए जालिम यजीद को जायज मानते हैं। अमेरिकी हितों और अरब जगत में इजराइल को सुरक्षित करने के लिए सऊदी अरब और कतर के भाड़े पर पलने वाले इन आतंकवादियों को पश्चिमी मीडिया भी ‘सुन्नी’ नाम देता है ताकि खबर के नाम पर सामुदायिक विद्वेष को हवा दी जा सके, जिसका असर इराक, ईरान, सीरिया, लेबनान, फिलस्तीन, बहरीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और कई बार भारत के लखनऊ, पूर्वांचल, बंगाल के मुर्शिदाबाद और कश्मीर में नजर आ जाता है। पूरी दुनिया में अलग-अलग पहचान लेकिन सुन्नी लबादे में छिपे हुए ये वहाबी वहशी भारत में भी पाए जाते हैं। अरब मामलों पर अनुवाद की पत्रकारिता करने वाला भारतीय मीडिया भी अमेरिकी और सऊदी एजेंडे को ही आगे बढ़ा देता है और उसे यह अहसास तक नहीं होता कि वह इस्तेमाल हो रहा है।
इराक के वर्तमान संकट से प्रमुख रूप से चार सवाल उभरते हैं। इस कथित बागी संगठन आइएसआइएस या आइएसआइएल के पीछे कौन हैं? दूसरा, इस लड़ाई का लाभ किसे होगा? तीसरा, अगर इराक पर आतंकवादियों का कब्जा हो गया तो देश का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? और आखिरी, तेल बाजार पर इसका क्या असर पड़ेगा?
आइएसआइएस यानी ‘इराक़ और सीरिया का इस्लामी राज्य’ या आइएसआइएल यानी ‘इराक और वृहत्तर सीरिया का इस्लामी राज्य’ नाम का संगठन उन कट्टर वहाबी सिरफिरों का है जो इराक पर अमेरिकी हमले के बाद उभरे अलकायदा-इराक से जुड़े थे। मुजाहिदीन शूरा कौंसिल, जैशे-फातिहीन, जुंद अलसहाबा, कतबिया अंसार अलतौहीद और जैश अलतायफा अलमंसूरा के कमउम्र लड़कों को अली अब्दुल्लाह अलरशीद अलबगदादी उर्फ हामिद दाऊद मुहम्मद खलील अलजावी उर्फ अबू उम्र अलकुरैशी अलबगदादी ने जोड़ा था। बताया जाता है कि अलबगदादी सात साल पहले मारा गया लेकिन उसे देखा किसी ने नहीं। तो क्या अलबगदादी एक गढ़ा गया चरित्र था?
दरअसल, अलकायदा-इराक के सरगना अलजरकावी के मरने के बाद शिया और दरगाह पर जाने वाले सुन्नियों (वहाबी विचारधारा में इसे ‘कुफ्र’ माना गया है) पर हमले करने वाला संगठन कमजोर हो गया था जिसे अलबगदादी के नाम पर चलाया जाने लगा। संगठन का सरगना पीएचडीधारी अबूबक्र अलबगदादी है। डॉ इब्राहीम के नाम से मशहूर अबूबक्र के भी चार नाम हैं। पिछले साल अप्रैल में यह संगठन पहली बार सामने आया और चार महीने पहले इसने अलकायदा से भी अपने संबंध तोड़ने की बात कही है। एक इलाके में दो बदमाश धंधा नहीं कर सकते। दस लाख डॉलर का इनामी आतंकवादी डॉ इब्राहीम यह धंधा चलाता कैसे है?
इराक के प्रधानमंत्री नूर अल-मालिकी ने हाल में सऊदी अरब पर आरोप लगाया है कि वह आइएसआइएस और इसके साथियों को पैसा और प्रशिक्षण देता है। उन्होंने कहा कि सऊदी अरब इराक के खून से होली खेल रहा है। सऊदी हमारी संस्थाओं, इतिहास और धार्मिक स्थलों को बर्बाद कर रहा है। नूर अल-मालिकी शिया हैं। दरअसल, वहाबी विचारधारा कहती है कि संतों की कब्रों पर जाना कुफ़्र है इसलिए मजार ढहा दिए जाएं। फिर भी वहां कोई जाना न छोड़े तो उसे मार डाला जाए।
वहाबियों का इराक पर कब्जा हो गया तो करबला में हजरत इमाम हुसैन और नजफ में हजरत अली की दरगाह, समारा में अलअसकरी मस्जिद, बगदाद के पास खादिमिया में शिया इमाम मूसा अलकाजिम और मुहम्मद अततकी और बगदाद में ही सुन्नी इमाम अबू हनीफा और महान सूफी संत हजरत गौसे आजम की दरगाह को क्षति पहुंचाए जाने का डर है। ठीक वैसे ही जैसे सऊदी अरब में पैगंबर हजरत मुहम्मद की माता आमना और पिता अब्दुल्लाह और पत्नी खदीजा की कब्रों को जमीन के बराबर कर दिया गया। पैगंबर हजरत मुहम्मद की बेटी और हजरत अली की पत्नी हजरत फातिमा, खलीफा उस्मान और हजरत इमाम हसन और इमाम जाफर सादिक की कब्रें भी ढहा दी गर्इं।
सऊदी अरब के वहाबी तंत्र को यह बात कचोटती है कि शिया और सूफी इस्लाम के सबसे बड़े प्रेरणा-स्थल इराक और भारत में मौजूद हैं। आपने गौर किया होगा कि सऊदी का वहाबी इमाम भारत में नमाज पढ़वाने की सियासत करने तो आ जाता है लेकिन शांति, भाईचारे और सद््भाव की प्रतीक गरीब नवाज की अजमेर दरगाह नहीं जाता।
सऊदी अरब के तेल व्यापार को रूस और वेनेजुएला में व्यापक तेल भंडार मिलने से चुनौती मिली है। ढुलाई का खर्च बचाने के लिए सऊदी अरब से तेल आयात करने वाले इराक और ईरान से भी तेल लेते हैं। भारत भी। इसके अलावा गैस पर निर्भरता
से भी कतर, ईरान और रूस की पूछ बढ़ी है। इराक में अस्थिरता और ईरान पर प्रतिबंध जारी रहने से ही सऊदी का धंधा चोखा चल सकता है। गैस पर निर्भर अर्थव्यवस्था में सऊदी अरब के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए अमेरिका कतर को बढ़ा रहा है और ईरान से संबंध मधुर बना रहा है ताकि रूस की गैस राजनीति की काट तैयार की जा सके। सीरिया में तख्तापलट की अमेरिका, इजराइल, सऊदी अरब और कतर की कोशिश नाकाम हो चुकी है। वहीं से सऊदी-कतर संबंध भी तनावपूर्ण हो गए हैं। गैस के लिए कतर की पूछ बढ़े और पश्चिम एशिया में तेल के तीन-तीन विकल्प मौजूद हों तो सऊदी अरब की हैसियत क्या रह जाएगी? सऊदी अरब अपनी वहाबी आतंकवाद की विशेषज्ञता के भरोसे आखिरी कोशिशें कर रहा है।
ईरान से सीरिया और लेबनान के बीच इराक पड़ता है। इराक में नूर अल-मालिकी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सीरिया में शिया राष्ट्रपति बशर अलअसद और लेबनान में शिया चरमपंथी संगठन हिज्बुल्लाह के बीच की दूरी ‘शिया भ्रातृत्व’ के आधार पर नगण्य हो गई। ईरान-इराक और सीरिया के इस शिया त्रिकोण से अकेला सऊदी अरब और कतर नहीं बल्कि इजराइल भी बहुत परेशान है। तीनों में से कम-से-कम एक शिया हुकूमत गिरने पर ही ईरान से लेबनान तक की रसद कट सकती है। उसकी इस योजना में अमेरिका के अलावा सऊदी अरब और कतर राजतंत्र से बेहतर दोस्त कौन हो सकता है? सीरिया का प्रयोग विफल होने के बाद सऊदी अरब कोशिश कर रहा है कि इराक पर वहाबी कब्जा हो जाए तो ईरान, सीरिया, लेबनान की रस्सी तो कटेगी ही, तेल पूल में ईरान की पूछ-परख भी घट जाएगी।
फारस की खाड़ी में कुवैत के कुओं में भी सऊदी अरब की हिस्सेदारी है और सद््दाम हुसैन की वजह से कुवैत में इराक के प्रति स्वाभाविक नफरत का भाव है। इस्लामी खिलाफत के नाम पर निर्दोष इंसानों के खून से लाल हो रही अरब की जमीन से ज्यादा यह लड़ाई फारस की खाड़ी के तेल भंडारों पर कब्जे की जंग ज्यादा है। जब जंग ही तेल के लिए होगी तो तेल महंगा भी होगा।
सीरिया प्रयोग के विफल होने और यूक्रेन संकट में रूस का यूरोप को गैस सप्लाई को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल देखने के बाद अमेरिका फारस की खाड़ी में इसके विकल्प के तौर पर कतर और ईरान को आगे बढ़ाना चाहता है, जिनके पास दुनिया के सबसे बड़े गैस भंडार हैं। असद की सरकार गिरने की स्थिति में जिस कतरी गैस को फारस की खाड़ी से इराक, सीरिया, तुर्की होते हुए यूरोप पहुंचाना था, लगता है अब इस योजना में सीरिया का नाम हट गया है। भाड़े के टट््टू सीरिया से इराक में घुस आए। सऊदी अरब नहीं चाहता कि ईरान का कद अरब सियासत में ऊंचा हो। यही कद तेल के भाव भी तय करता है। अगर इराक पर आतंकवादियों का कब्जा हो जाता है तो सऊदी अरब के पास कतर की यूरोप गैस योजना रोकने वाली चाबी भी आ जाएगी। सऊदी का कतर और ईरान दोनों से झगड़ा है। सऊदी अरब के पास तेल है, गैस नहीं और कतर के पास गैस है, तेल नहीं। ईरान के पास दोनों है।
हसन रूहानी और बराक ओबामा की गैर-सऊदी गैर-इजराइल अरब नीति से पस्त सऊदी अरब क्या करेगा? वहाबियत ही तो वह खेल है जो उसे बहुत अच्छी तरह आता है। लेखक और शिया मामलों के जानकार शौकत भारती का कहना है कि भारत के लिए मुश्किल तेल का संकट या भाव ही नहीं, उन चालीस अगवा लोगों को छुड़ाना भी है जिन्हें आतंकवादी उठा ले गए हैं। इराक में बसे अठारह हजार भारतीयों की सुरक्षा तय करना भी किसी पहाड़ से कम नहीं है।
वहाबी तंत्र हरमुमकिन चाहता है कि इन्हें ‘सुन्नी’ ही समझा जाए। वहाबियत की सुर्ख खूनी दरिंदगी को सुन्नियत के हरे गिलाफ से ढकने में क्या बुराई है? वहाबी वह नाम है जो इनका आका इब्न अब्दुल वहाब इनकी जान पर छोड़ गया है। अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेन की मदद से अरब में बद्दुओं (देहातियों) और उस्मानिया खिलाफत की पीठ में छुरा भोंक कर अरब पर कब्जा करने वाले अब्दुल अजीज बिन सऊद को राजपाट मिला और सौदे के मुताबिक हज और काबा की इमामत इब्न अब्दुल वहाब के खानदान को मिली। उसी इब्न अब्दुल वहाब के पोतों के पीछे हज के दौरान भारतीयों समेत दुनिया के बहुसंख्यक मुसलमान नमाज नहीं पढ़ते क्योंकि वहाबियत वसीला-जियारत से इनकार करती है। करबला के मैदान में जालिम यजीद की फौज से हजरत इमाम हुसैन ने प्यास से बेहाल अपने छह माह के बच्चे अली असगर के लिए पानी मांगा था। इसके बदले यजीदियों ने इस मासूम के गले पर तीर मार दिया था। जिनकी फितरत में पैगंबर हजरत मुहम्मद के घरवालों का खून पानी से सस्ता हो, उस इब्ने यजीद (यजीद की संतानों) को हजरत मुहम्मद के अनुयायियों पर दया क्यों आएगी
‘अफसोस ऐ वतन से निकाले हुए हुसैन/ ऐ फातिमा की गोद के पाले हुए हुसैन/ तुझसा शहीद कौन है आलम में ऐ हुसैन/ तू है हर इक दीदा-ए-पुरनममें ऐ हुसैन’।
क्रांति के शायर जोश मलीहाबादी ने करबला की जंग का वर्णन ‘हुसैन और इंकलाब’ में इस प्रकार किया है। भारत में उर्दू शायरों को ‘मरसिया’ लिखने की प्रेरणा ही करबला की जंग से मिली और यह विधा इतनी लोकप्रिय हुई कि भारत समेत दुनिया में जहां भी उर्दू पढ़ाई जाती है, नज्म विभाग में मरसिया अध्ययन ही अलग से होता है। हजरत इमाम हुसैन का मकबरा इराक के करबला शहर में है। वही करबला जहां 680 ईस्वी में जालिम यजीद की सेना के शिम्र ने हजरत इमाम हुसैन का नमाज की हालत में सज्दे में सर कलम कर शहीद कर दिया था।
एक बार फिर करबला ही नहीं बल्कि पवित्र शहर बगदाद, नजफ, समारा और काजिमैन पर वहशी वहाबी उर्फ तकफीरी उर्फ सलफी उर्फ नज्दी उर्फ यजीदी उर्फ जिहादी तत्त्वों से खतरा है। इस्लाम के लिए चलते-फिरते दुष्प्रचार और बदनामी के ये बदनुमा दाग, नाम अल्लाह और उसके रसूल पैगंबर हजरत मुहम्मद का लेते हैं और आज तक करबला में हजरत इमाम हुसैन के कत्ल को राजनीतिक लड़ाई का नाम देते हुए जालिम यजीद को जायज मानते हैं। अमेरिकी हितों और अरब जगत में इजराइल को सुरक्षित करने के लिए सऊदी अरब और कतर के भाड़े पर पलने वाले इन आतंकवादियों को पश्चिमी मीडिया भी ‘सुन्नी’ नाम देता है ताकि खबर के नाम पर सामुदायिक विद्वेष को हवा दी जा सके, जिसका असर इराक, ईरान, सीरिया, लेबनान, फिलस्तीन, बहरीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और कई बार भारत के लखनऊ, पूर्वांचल, बंगाल के मुर्शिदाबाद और कश्मीर में नजर आ जाता है। पूरी दुनिया में अलग-अलग पहचान लेकिन सुन्नी लबादे में छिपे हुए ये वहाबी वहशी भारत में भी पाए जाते हैं। अरब मामलों पर अनुवाद की पत्रकारिता करने वाला भारतीय मीडिया भी अमेरिकी और सऊदी एजेंडे को ही आगे बढ़ा देता है और उसे यह अहसास तक नहीं होता कि वह इस्तेमाल हो रहा है।
इराक के वर्तमान संकट से प्रमुख रूप से चार सवाल उभरते हैं। इस कथित बागी संगठन आइएसआइएस या आइएसआइएल के पीछे कौन हैं? दूसरा, इस लड़ाई का लाभ किसे होगा? तीसरा, अगर इराक पर आतंकवादियों का कब्जा हो गया तो देश का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? और आखिरी, तेल बाजार पर इसका क्या असर पड़ेगा?
आइएसआइएस यानी ‘इराक़ और सीरिया का इस्लामी राज्य’ या आइएसआइएल यानी ‘इराक और वृहत्तर सीरिया का इस्लामी राज्य’ नाम का संगठन उन कट्टर वहाबी सिरफिरों का है जो इराक पर अमेरिकी हमले के बाद उभरे अलकायदा-इराक से जुड़े थे। मुजाहिदीन शूरा कौंसिल, जैशे-फातिहीन, जुंद अलसहाबा, कतबिया अंसार अलतौहीद और जैश अलतायफा अलमंसूरा के कमउम्र लड़कों को अली अब्दुल्लाह अलरशीद अलबगदादी उर्फ हामिद दाऊद मुहम्मद खलील अलजावी उर्फ अबू उम्र अलकुरैशी अलबगदादी ने जोड़ा था। बताया जाता है कि अलबगदादी सात साल पहले मारा गया लेकिन उसे देखा किसी ने नहीं। तो क्या अलबगदादी एक गढ़ा गया चरित्र था?
दरअसल, अलकायदा-इराक के सरगना अलजरकावी के मरने के बाद शिया और दरगाह पर जाने वाले सुन्नियों (वहाबी विचारधारा में इसे ‘कुफ्र’ माना गया है) पर हमले करने वाला संगठन कमजोर हो गया था जिसे अलबगदादी के नाम पर चलाया जाने लगा। संगठन का सरगना पीएचडीधारी अबूबक्र अलबगदादी है। डॉ इब्राहीम के नाम से मशहूर अबूबक्र के भी चार नाम हैं। पिछले साल अप्रैल में यह संगठन पहली बार सामने आया और चार महीने पहले इसने अलकायदा से भी अपने संबंध तोड़ने की बात कही है। एक इलाके में दो बदमाश धंधा नहीं कर सकते। दस लाख डॉलर का इनामी आतंकवादी डॉ इब्राहीम यह धंधा चलाता कैसे है?
इराक के प्रधानमंत्री नूर अल-मालिकी ने हाल में सऊदी अरब पर आरोप लगाया है कि वह आइएसआइएस और इसके साथियों को पैसा और प्रशिक्षण देता है। उन्होंने कहा कि सऊदी अरब इराक के खून से होली खेल रहा है। सऊदी हमारी संस्थाओं, इतिहास और धार्मिक स्थलों को बर्बाद कर रहा है। नूर अल-मालिकी शिया हैं। दरअसल, वहाबी विचारधारा कहती है कि संतों की कब्रों पर जाना कुफ़्र है इसलिए मजार ढहा दिए जाएं। फिर भी वहां कोई जाना न छोड़े तो उसे मार डाला जाए।
वहाबियों का इराक पर कब्जा हो गया तो करबला में हजरत इमाम हुसैन और नजफ में हजरत अली की दरगाह, समारा में अलअसकरी मस्जिद, बगदाद के पास खादिमिया में शिया इमाम मूसा अलकाजिम और मुहम्मद अततकी और बगदाद में ही सुन्नी इमाम अबू हनीफा और महान सूफी संत हजरत गौसे आजम की दरगाह को क्षति पहुंचाए जाने का डर है। ठीक वैसे ही जैसे सऊदी अरब में पैगंबर हजरत मुहम्मद की माता आमना और पिता अब्दुल्लाह और पत्नी खदीजा की कब्रों को जमीन के बराबर कर दिया गया। पैगंबर हजरत मुहम्मद की बेटी और हजरत अली की पत्नी हजरत फातिमा, खलीफा उस्मान और हजरत इमाम हसन और इमाम जाफर सादिक की कब्रें भी ढहा दी गर्इं।
सऊदी अरब के वहाबी तंत्र को यह बात कचोटती है कि शिया और सूफी इस्लाम के सबसे बड़े प्रेरणा-स्थल इराक और भारत में मौजूद हैं। आपने गौर किया होगा कि सऊदी का वहाबी इमाम भारत में नमाज पढ़वाने की सियासत करने तो आ जाता है लेकिन शांति, भाईचारे और सद््भाव की प्रतीक गरीब नवाज की अजमेर दरगाह नहीं जाता।
सऊदी अरब के तेल व्यापार को रूस और वेनेजुएला में व्यापक तेल भंडार मिलने से चुनौती मिली है। ढुलाई का खर्च बचाने के लिए सऊदी अरब से तेल आयात करने वाले इराक और ईरान से भी तेल लेते हैं। भारत भी। इसके अलावा गैस पर निर्भरता
से भी कतर, ईरान और रूस की पूछ बढ़ी है। इराक में अस्थिरता और ईरान पर प्रतिबंध जारी रहने से ही सऊदी का धंधा चोखा चल सकता है। गैस पर निर्भर अर्थव्यवस्था में सऊदी अरब के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए अमेरिका कतर को बढ़ा रहा है और ईरान से संबंध मधुर बना रहा है ताकि रूस की गैस राजनीति की काट तैयार की जा सके। सीरिया में तख्तापलट की अमेरिका, इजराइल, सऊदी अरब और कतर की कोशिश नाकाम हो चुकी है। वहीं से सऊदी-कतर संबंध भी तनावपूर्ण हो गए हैं। गैस के लिए कतर की पूछ बढ़े और पश्चिम एशिया में तेल के तीन-तीन विकल्प मौजूद हों तो सऊदी अरब की हैसियत क्या रह जाएगी? सऊदी अरब अपनी वहाबी आतंकवाद की विशेषज्ञता के भरोसे आखिरी कोशिशें कर रहा है।
ईरान से सीरिया और लेबनान के बीच इराक पड़ता है। इराक में नूर अल-मालिकी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सीरिया में शिया राष्ट्रपति बशर अलअसद और लेबनान में शिया चरमपंथी संगठन हिज्बुल्लाह के बीच की दूरी ‘शिया भ्रातृत्व’ के आधार पर नगण्य हो गई। ईरान-इराक और सीरिया के इस शिया त्रिकोण से अकेला सऊदी अरब और कतर नहीं बल्कि इजराइल भी बहुत परेशान है। तीनों में से कम-से-कम एक शिया हुकूमत गिरने पर ही ईरान से लेबनान तक की रसद कट सकती है। उसकी इस योजना में अमेरिका के अलावा सऊदी अरब और कतर राजतंत्र से बेहतर दोस्त कौन हो सकता है? सीरिया का प्रयोग विफल होने के बाद सऊदी अरब कोशिश कर रहा है कि इराक पर वहाबी कब्जा हो जाए तो ईरान, सीरिया, लेबनान की रस्सी तो कटेगी ही, तेल पूल में ईरान की पूछ-परख भी घट जाएगी।
फारस की खाड़ी में कुवैत के कुओं में भी सऊदी अरब की हिस्सेदारी है और सद््दाम हुसैन की वजह से कुवैत में इराक के प्रति स्वाभाविक नफरत का भाव है। इस्लामी खिलाफत के नाम पर निर्दोष इंसानों के खून से लाल हो रही अरब की जमीन से ज्यादा यह लड़ाई फारस की खाड़ी के तेल भंडारों पर कब्जे की जंग ज्यादा है। जब जंग ही तेल के लिए होगी तो तेल महंगा भी होगा।
सीरिया प्रयोग के विफल होने और यूक्रेन संकट में रूस का यूरोप को गैस सप्लाई को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल देखने के बाद अमेरिका फारस की खाड़ी में इसके विकल्प के तौर पर कतर और ईरान को आगे बढ़ाना चाहता है, जिनके पास दुनिया के सबसे बड़े गैस भंडार हैं। असद की सरकार गिरने की स्थिति में जिस कतरी गैस को फारस की खाड़ी से इराक, सीरिया, तुर्की होते हुए यूरोप पहुंचाना था, लगता है अब इस योजना में सीरिया का नाम हट गया है। भाड़े के टट््टू सीरिया से इराक में घुस आए। सऊदी अरब नहीं चाहता कि ईरान का कद अरब सियासत में ऊंचा हो। यही कद तेल के भाव भी तय करता है। अगर इराक पर आतंकवादियों का कब्जा हो जाता है तो सऊदी अरब के पास कतर की यूरोप गैस योजना रोकने वाली चाबी भी आ जाएगी। सऊदी का कतर और ईरान दोनों से झगड़ा है। सऊदी अरब के पास तेल है, गैस नहीं और कतर के पास गैस है, तेल नहीं। ईरान के पास दोनों है।
हसन रूहानी और बराक ओबामा की गैर-सऊदी गैर-इजराइल अरब नीति से पस्त सऊदी अरब क्या करेगा? वहाबियत ही तो वह खेल है जो उसे बहुत अच्छी तरह आता है। लेखक और शिया मामलों के जानकार शौकत भारती का कहना है कि भारत के लिए मुश्किल तेल का संकट या भाव ही नहीं, उन चालीस अगवा लोगों को छुड़ाना भी है जिन्हें आतंकवादी उठा ले गए हैं। इराक में बसे अठारह हजार भारतीयों की सुरक्षा तय करना भी किसी पहाड़ से कम नहीं है।
वहाबी तंत्र हरमुमकिन चाहता है कि इन्हें ‘सुन्नी’ ही समझा जाए। वहाबियत की सुर्ख खूनी दरिंदगी को सुन्नियत के हरे गिलाफ से ढकने में क्या बुराई है? वहाबी वह नाम है जो इनका आका इब्न अब्दुल वहाब इनकी जान पर छोड़ गया है। अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेन की मदद से अरब में बद्दुओं (देहातियों) और उस्मानिया खिलाफत की पीठ में छुरा भोंक कर अरब पर कब्जा करने वाले अब्दुल अजीज बिन सऊद को राजपाट मिला और सौदे के मुताबिक हज और काबा की इमामत इब्न अब्दुल वहाब के खानदान को मिली। उसी इब्न अब्दुल वहाब के पोतों के पीछे हज के दौरान भारतीयों समेत दुनिया के बहुसंख्यक मुसलमान नमाज नहीं पढ़ते क्योंकि वहाबियत वसीला-जियारत से इनकार करती है। करबला के मैदान में जालिम यजीद की फौज से हजरत इमाम हुसैन ने प्यास से बेहाल अपने छह माह के बच्चे अली असगर के लिए पानी मांगा था। इसके बदले यजीदियों ने इस मासूम के गले पर तीर मार दिया था। जिनकी फितरत में पैगंबर हजरत मुहम्मद के घरवालों का खून पानी से सस्ता हो, उस इब्ने यजीद (यजीद की संतानों) को हजरत मुहम्मद के अनुयायियों पर दया क्यों आएगी
शुक्रिया जनसत्ता 21 जून, 2014 :