मोदी मद चकनाचूर
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विष्णु गुप्त
क्या आगामी आम चुनाव में भाजपा का विकल्प आम आदमी पार्टी और नरेन्द्र मोदी का विकल्प अरविन्द केजरीवाल होगा? हिन्दी प्रदेशों की राजनीति नरेन्द्र मोदी बनाम अरविन्द कजरीवाल के तौर पर बढ रही है। असली गेम तो कांग्रेस अप्रतयक्ष तौर पर खेल रही है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री की उड़ान को उत्तर, प्रदेश, बिहार और झारखंड में रोकने की पूरी राजनीतिक तानाबाना बुना जायेगा। कांग्रेस अब अरविन्द केजरीवाल के हथियार से नरेन्द्र मोदी का शिकार करेगी और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने केसपने को चकनाचूर करेगी और भाजपा की एक फिर से केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा की उम्मीद को नाउम्मीदी में बदलेगी।
बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में दिल्ली की तरह अरविन्द केजरीवाल भाजपा के वोटरों में सेंध लगायेंगे जिसका लाभ इन प्रदेशों के जातिवादी और वंशवादी दलों को लाभ होगा, भाजपा की प्रत्याशित सीटें मिलनी दुरूह हो जायेगी। कांग्रेस को यह मालूम हो गया है कि हिन्दी इलाकों में उसकी सफलता की उम्मीद ही नहीं बनती है, इसीलिए अरविन्द केजरीवाल को आगे कर नरेन्द्र मोदी की राह में घुन लगाया जाये। कांग्रेस की यह नीति सफल भी हो सकती है।
नरेन्द्र मोदी लगातार अपनी बाधाओं और रूकावटों को ध्वस्त करते हुए राजनीतिक सौपान को आसान करते रहे हैं। इसी कड़ी में गुजरात दंगो के पाप से नरेन्द्र मोदी को मुक्ति मिल गयी है। गुजरात के लोकल अदालत ने एसआईटी की जांच रिपोर्ट को आधार मानकर नरेन्द्र मोदी गुजरात दंगों के अपराध से मुक्त करने का फैसला दिया है। नरेन्द्र मोदी ने इस फैसले को न केवल सत्य की जीत बताया है बल्कि यह भी कहा कि उनकी आत्मा को शांति मिली है जो गुजरात दंगों के समय से ही मनगढंत व प्रत्यारोपित आरोप से आहत थी। यह सही है कि गुजरात दंगों में अब तक विभिन्न जांच आयोगों और न्यायिक परीक्षणों में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है। नरेन्द्र मोदी अब दूगने उत्साह के साथ अपने विरोधियों पर हमला कर सकते हैं, विरोधियों के प्रंपचों को ध्वस्त कर सकते हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है अदालती आदेश पक्ष में जाने के बाद भी नरेन्द्र मोदी के सामने राजनीतिक चुनौ तियां विल्कुल आसान हो गयी है और उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की राह आसान हो गयी है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को भारी सफलता मिली, पर दिल्ली में सत्ता तक न पहुंचने का आघात भाजपा के लिए होश उड़ाने वाले ही हैं।
कांग्रेस को तो परवाह ही नहीं है क्योंकि उसकी लूटिया तो लगभग डूब ही चुकी है। भाजपा का चाल-चलन और उसकी जनविरोधी सरोकारों व प्रदर्शन ही अरविन्द केजरीवाल के निशाने पर है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा को शायद यह उम्मीद नहीं है कि उनके रास्ते में कितनी बडी चुनौती खड़ी हो गयी है। आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह दिल्ली में अपनी धाकड़ और करिश्माई सफलता पायी है, उसके राजनीतिक अर्थ काफी गंभीर हैं और सीधेतौर नरेन्द्र मोदी की उड़ान को बीच में रोकने के लिए अग्रसर होगा। राजनीतिक विश्लेषकों को अभी से यह अहसास हो गया है कि दिल्ली में आप की सफलता का संदेश देश की राजनीति के दशा-दिशा को बदल देगी। पूरे देश में एक आवेग है कि राजनीतिक विद्रुपता मे आप और अरविन्द केजरीवाल एक नई उम्मीद है, नयी आशा मिली है। अरविन्द केजरीवाल ने अभी तक अपनी पूरी राजनीतिक बाजी को खोली नहीं है, फिर भी उनकी राजनीतिक बाजी कोई ओझल भी नहीं है, या छिपी हुई नहीं है? दिल्ली के राजनीति को ठीक करने के बाद अरविन्द केजरीवाल की पूरे देश पर निगाह होगी और अपनी पार्टी आप को एक राष्टीय पार्टी के रूप में स्थापित करने की पूरी कोशिश करेंगे। ईमानदारी और भ्रष्टचार को लेकर पूरे देश में अरविन्द केजरीवाल के पक्ष हवा तो बन भी चुकी है और अब तो वह दिल्ली के मुख्यमंत्री भी बन गये हैं। अरविन्द केजरीवाल अब एक भ्रष्टचार विरोधी एक्टिविस्ट के तौर पर नहीं बल्कि एक पक्के राजनीतिज्ञ की तरह जायेंगे। आम लोग भी अरविन्द केजरीवाल को एक राजनीतिक के तौर पर ही सुनेंगे जिसके अंदर भ्रष्टचार और राजनीतिक विद्रुपता के खिलाफ आग धधक रही है।
अब हम यहां ध्यान यह दे कि अरविन्द केजरीवाल देश के किन-किन प्रदेशों में अगामी लोकसभा चुनावों में गहरी हस्तक्षेप करेंगे और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के अभियान में रूकावटें डालेंगे। पूरे देश में अरविन्द केजरीवाल की हस्तक्षेपकारी राजनीतिक सुनिश्चित होगी, यह कहना मूर्खता ही है। इसलिए कि देश हमारा विभिन्नताओं से भरा पड़ा है, हर प्रदेश की राजनीतिक स्थितियां भिन्न-भिन्न है, कहीं पर जातिवाद का पहिया घूम रहा है तो कहीं पर वंशवाद का पहिया जनता को रोंद रहा है। वंशवादी-जातिवादी पहिया कहीं से भी न्यायसंगत नहीं हो सकता, जनांकाक्षी नहीं हो सकता है, फिर भी वंशवादी-जातिवादी पहियों, भाषा की राजनीतिक उफान पर जनता का बुलडोजर चलना मुश्किल ही दिखता है। दक्षिण में अरविन्द केजरीवाल का जादू चलना मुश्किल है। दक्षिण के मतदाताओं का मिजाज अलग ही होता है जहां पर ईमानदारी और राजनीतिक विद्रुपता ज्यादा रोल नहीं निभा पाता है। इमरजेंसी के समय का उदाहरण हमारे सामने है। इमरजेंसी विरोधी आंदोलन दक्षिण में निष्प्रभावी ही रहा था। इमरजेंसी की समाप्ति के बाद हुए चुनाव में इन्दिरा गांधी को दक्षिण में जोरदार सफलता मिली थी। अन्ना का आंदोलन भी हिन्दी भाषी क्षेत्रो मे ही प्रभाव छोड़ा, मुंबई में अन्ना के अनशन को भीड़ का साथ तक नहीं मिला था। अरविन्द केजरीवाल का धमाल तो हिन्दी वाली पट्टी पर ही चल सकता है।
अरविन्द केजरीवाल को हिन्दी क्षेत्रों में कुछ ज्यादा ही राजनीतिक ज्वार मिलेगा। हिन्दी क्षेत्रों का वर्गीकरण भी हम दो भागों मे करके देखे तो निर्णायक निष्कर्ष तक हम पहुंच सकते हैं। एक भाजपा के वर्चस्व वाले राज्य और दूसरे में गैर भाजपा पूर्ण वर्चस्व वाले राज्य। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान भाजपा अभी-अभी फिर से सत्ता में आयी है और इन तीनों प्रदेशों में भाजपा की स्थिति लोकसभा चुनाव में बेहतर होगी, अरविन्द केजरीवाल इन प्रदेशों में मीडिया हाइफ तो पायेंगे पर अधिक प्रभावशाली राजनीतिक भूमिका हासिल करने में सफल होंगे, ऐसा संभव नहीं लगता है। भाजपा के गैर पूर्ण वर्चस्व वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड की राजनीतिक स्थिति का हम आप की चुनौती के आधार पर देखते हैं। इन तीनो राज्यों में 134 लोकसभा सीट हैं। नरेन्द्र मोदी इन तीनों प्रदेशों से लगभग 100 सीटें जीतने की आश लगा बैठे हैं। इन प्रदेशों में भाजपा के सामने जद यू, सपा, बसपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा है। खासकर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के कमिटमेंट वोटरों में अरविन्द केजरीवाल कोई प्रभावकारी और आश्चर्यचकित वाली सेंध नहीं लगा पायेंगे। उत्तर प्रदेश में कहीं यादव-मुसलमान समीकरण और कहीं दलित-मुसलमान समीकरण होगा। बिहार में भी लालू की पार्टी का यादव-मुसलमान वोटरों का समीकरण रहेगा। बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में अरविन्द केजरीवाल का चुनावी पहिया भाजपा वोटरों पर ही चलेगा। अगर अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा रूझान वाले वोटरों में पांच प्रतिशत का भी सेंध लगाने सफल हो गये तो निश्चित तौर भाजपा और नरेन्द्र मोदी का लुटिया डूब जायेगी। दिल्ली में भाजपा रूझान वाले वोटरो का आप के साथ जुड़ने के कारण ही अरविन्द केजरीवाल की सफलता सुनिश्चत हुई थी। दिल्ली में संघ और भाजपा के नेताओं के बेटे-बेटियों ने भी आप को वोट दिये थे।
भाजपा को अपनी पुरानी नीति को त्यागनी होगी। अरविन्द केजरीवाल की चुनौती तोड़नी ही होगी। अगर नहीं तो फिर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का उनका सपना ध्वस्त होगा। समस्या यह है कि भाजपा भी अपने आप को कांग्रेस की बी टीम के रूप में स्थापित कर ली है, भाजपा के अंदर में आम आदमी की पहुंच लगातार घटी है। अगर भाजपा जनविरोधी चेहरे के साथ अगामी लोकसभा चुनाव में उतरेगी तो फिर जनता के सामने भाजपा और अरविन्द केजरीवाल का विकल्प भी है जिसका दिल्ली में जनता ने सफलतापूर्वक प्रयोग किया है।