फिजा हो जाने की सजा







सोचा था कि फिज़ा पे कुछ नहीं लिखा जाएगा. जो अच्छा बुरा था, वह मरनेवाले के साथ चला गया. किसी मरे हुए के लिए लिखना क्यों? लेकिन उस की शवयात्रा की फोटो दिखी तो रहा नहीं गया. हाय, कोई मौत इतनी भी बदनसीब हो सकती है क्या कि जीते जी जिसके पीछे सारी दुनिया चलती थी, मरने के बाद चार लोग न मिल सके कि कांधा दे सके? फिजा की जिस खुशबू के कारण कभी उसके आस पास मंडरानेवाले भौंरो की कोई कमी नहीं थी, उसकी लाश मिली तो उससे इतनी बदबू उठ रही थी, लोग उसका "अंतिम दर्शन" भी नहीं कर सके.
उसे सन 93 से देखता आ रहा था. चंडीगढ़ डिस्ट्रिक्ट कोर्ट चैम्बर्स में उसका केबिन सीढ़ियों के नीचे एक ऐसे तल पर था जो न ठीक बेसमेंट था, न फर्स्ट फ्लोर. उसकी वकालत और जिंदगी भी वैसी ही थी. न पूरी, न अधूरी. मेरा अक्सर जाना होता था उधर. मैंने शायद ही उस के केबिन में कोई क्लाइंट या उसकी मेज़ पे कभी कोई लिफाफा देखा हो. मेरे बीसियों दोस्त थे उधर वकीलों में. कभी कोई दिमाग पे बहुत जोर दे के भी बता नहीं सका कि उस को कभी एक वकील के तौर पे किसी ने किसी अदालत में देखा हो. कोर्ट तक आती जाती भी वो बस से थी.
सुंदर तो खैर वो थी ही. वकालत (अगर उसे कह सकते हैं तो) उस ने किसी की जूनियर के रूप में शुरू नहीं की थी. लेकिन सीनियर वकील उस के पास आ आ के बैठते थे. बस से छुटकारा उसे जल्दी ही मिल गया था. लिफ्ट देने वाले इतने हो गए कि अगले दिन उसे ये भी याद नहीं रहता था कि कल वो किस के साथ बैठ के आई थी. मुझे आज भी याद है वो दिन कि जब उस की शादी हो चुकी होने की खबर मिली और कोर्ट परिसर में जैसे मातम छा गया. जल्दी ही तलाक की खबरें भी उड़ने लगीं. पता नहीं हुआ या नहीं और हुआ भी तो कब. मगर तलाक हो जाने की ख़बरों के बाद नए उम्मीदवारों की झड़ी लग गई. हरी झंडी के इंतज़ार में कई दुबले पतले पीले हुए जा रहे थे कि अनुराधा बाली हाई कोर्ट में दिखने लगी. एक पत्रकार के रूप में हाईकोर्ट अक्सर जाता था मैं. आधे से ज्यादा वकील परिचित थे. वहां भी उसकी चर्चा तो हर जगह थी. मगर किसी ने उसे किसी अदालत की तरफ कोई लिफाफा ले के आते जाते कभी नहीं देखा. बल्कि वकील कहते भी थे कि हम टीवी वालों ने अपनी एक बंदी को वकील खराब करने के लिए उन के बीच छोड़ रखा है. कारों की कोई कमी उसे यहाँ भी नहीं थी. काम धाम कोई यहाँ भी नहीं था. न कोई क्लाइंट, न केस, न बस्ता, न कमाई. डिस्ट्रिक्ट कोर्ट वाला लकड़ी का छोटा सा चैंबर उस ने बेच दिया था. सचिवालय हाई कोर्ट से बमुश्किल आधे किलोमीटर के फासले पर था. उसे कभी कभार उधर भी देखा गया.
और फिर पता चला कि वो सरकारी वकील हो गई. वो भी एडीए शेडिए जैसी कोई छोटी मोटी वकील नहीं कि निचली कचहरियों में धक्के खाती फिरे. बाकायदा एजी आफिस में. हिंदी में कहें तो पंजाब सरकार की अतिरिक्त महाधिवक्ता. एक तरह से अर्धसंवैधानिक पद. कार और कोठी के साथ. ईश्वर की कृपा देखो. काम वहां भी कुछ नहीं. कम से कम अदालती काम तो नहीं. किस्मत और कुदरत साथ देने पे आई तो पंजाब में सत्ता परिवर्तन के बाद वही पद और रुतबा हरियाणा में भी मिल गया. और फिर खबर उड़ी कि अनुराधा बाली हाईकोर्ट की जज बनने वाली है. बन ही गई होती अगर खबर उड़ न गई होती. जो उसे जज बना देने पे तुला ही बैठा था वो डर गया. बनवाने वाले मगर फिर भी सब्ज़बाग उसको दिखलाए रहे.
ये वो दौर था कि जब जितनी सी वकालत भी उसे आती थी वो भी हो नहीं पा रही थी उस से. ऐसी घुसी जजी दिमाग में उस के कि एजी आफिस की कुर्सी उसे काँटों माफिक चुभने लगी थी. उस को करीब से जानने वाले बताते हैं कि काफी फ्रस्ट्रेशन सी में रहने लग गई थी वो. चंद्रमोहन से उस की मुलाक़ात इसी दौर में हुई. भजन लाल तब हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे. पूरा यकीन था सब को कि अगले सी.एम. भी वे ही होंगे. ये मशहूरी भी उनकी थी ही कि जिस वकील को वे चाहें जज बनवा सकते हैं. बस, अनुराधा चंद्रमोहन के पीछे लग ली. या कहें कि उस ने चंद्रमोहन को अपने पीछे लगा लिया. जहां तक पीछे लगने की बात है तो हद से ज्यादा उदार भी रहे ही हैं चंद्रमोहन. 'न' उन से होती नहीं किसी को. किसी के साथ, कहीं भी, कितना भी, कैसा भी समय बिताने के लिए चंद्रमोहन को कभी कमी नहीं रही चेलों चपाटों उन के घरों या होटलों की. उन के बारे में मशहूर था कि जिस किसी की बीवी सुंदर दिखी उन्हें, प्रदेश या जिला कांग्रेस का कोई न कोई पद पत्र छोड़ आते थे वे पहली ही मुलाक़ात में. अनुराधा उन के जीवन में आई शायद सब से सुंदर कन्या थी. ऐसी कि जो थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी बोल लेती थी.
आपस में शादी करने का कोई इरादा दोनों का नहीं था. चंद्रमोहन शादीशुदा थे. अनुराधा की भी उन से अपेक्षा जज बनवा देने भर की थी. बेशक इसका पक्का इंतजाम करने के लिए चली वो उन के साथ आखिरी हद तक भी गई थी. शातिर भी थी वो. चंद्रमोहन के साथ की बातें और मुलाकातें वो मोबाइल में कैद करती चली गई. इतने में कांग्रेस जीत गई. सरकार भी बन गई. पिता भजन लाल के मुख्यमंत्री पद से वंचित रह जाने के बाद की परिस्थितियों में चंद्रमोहन बन गए उप मुख्यमंत्री. तो अनुराधा की बाछें खिल गईं. तब तक उसको जज बनाने की खबर अखबारों तक छप गई थीं. जिन्होंने जज असल में बनाना था वे बुरी तरह डर गए थे. भजन लाल को तो चंद्रमोहन बताते कैसे. खुद वे बनवा सकते नहीं थे. इस नाउम्मीदी और घोर निराशा के दौर में अनुराधा को चाहिए था एक मुस्तकिल, मुकम्मल सहारा. ऐसा कि जिस से उसका भविष्य सुरक्षित हो जाए. जितनों को भी वो जानती या कभी मिली थी, चंद्रमोहन उन में सब से अमीर, ताकतवर और इस मामले में कमज़ोर भी आदमी था कि जिसे आसानी से ब्लैकमेल किया जा सकता था. वही हुआ. उस की एक घुरकी पे चंद्रमोहन पोंक गया और चंद्रमोहन से चाँद मोहम्मद होने पे राज़ी हो गया. आप आज भी उठा के देख लें उस समय के वीडियोज, चंद्रमोहन की मुस्कान के पीछे भी आप डर की रेखाएं पाएंगे. बहरहाल किसी भी औरत जैसी एक औरत के लिए चंद्रमोहन ने अपनी कुर्सी, हैसियत, इज्ज़त, सियासत सब मिट्टी में मिला ली.
चंद्रमोहन का नशा एक दिन उसके बड़े बूढों, भाइयों, बिश्नोइयों ने निकाला हिसार में. खूब तबियत से. ये तब की बात है जब फिजा रो-रो के मीडियावालों को बता रही थी कि कुलदीप और देवी लाल बिश्नोई उस के चाँद मोहम्मद को उठा ले गए हैं. चाँद उस के बाद कभी न लौटा. सिवाय एक बार ये कहने के कि वो जहां भी गया खुद गया और ये कह के तलाक ले लेने के. फिजा पगला गई. खासकर चन्द्र मोहन के साथ शादी के बाद बाकी सब डर के मारे भी परे हो लिए थे. अब फिज़ा दुनिया में अकेली और किसी हद तक अनाथ थी. खुद का कोई काम धाम उसका पहले भी नहीं था. अब अर्थ आधार भी जाता रहा. दो पैसों के लालच में उस ने जंगल मंगल टाइप एक टीवी शो में जा के कपड़े शपड़े भी उतारे. लेकिन उस के अंदर की बदसूरती अब उसकी ज़ुबान से भी बाहर भी आने लगी थी. आजू बाजू में कोई ऐसा पड़ोसी नहीं छोड़ा था उस ने कि जिस को गरियाया, धमकाया न हो. भजन लाल और उन के खुद कांग्रेस में दिख चुकने के बाद कांग्रेस तक को देख लेने के बयान वो देने लगी थी. अलबत्ता इस का फायदा भजनलाल परिवार को ये हुआ कि बिरादरी वालों की मार से डरा चंद्रमोहन अपने घर में और पक्का हो गया.
अनुराधा बाली जैसे दुनिया में अकेली आई, भारी भीड़ से गुज़र कर वैसे ही चली भी गई. इस बीच मैं उस से सिर्फ एक बार मिला. वायस आफ इंडिया में रेज़ीडेंट एडिटर था मैं कि एक बार चैनल ने उस के साथ आधे घंटे का एक लाइव प्रोग्राम किया. वो मेरे स्टूडियो आई. लेकिन उस प्रोग्राम का होस्ट कोई और था. मुझ से प्रोग्राम के आगे पीछे कोई दस मिनट की बात हुई उस की. चंद्रमोहन छोड़ के जा चुका था उसे तब तक. परेशान वो रहती ही थी. मैंने उस से पूछा था,...'शादीशुदा होने को छोड़ो, क्या ये भी पता नहीं था आपको कि चन्द्र मोहन के बच्चों में से एक अपाहिज़ है?' उसका जवाब था-'दुनिया में हर कोई हर किसी के साथ नहीं रहता. किसी न किसी को तो अकेला रहना ही है. अब मैं रहूँ या वो रहें. और जब किसी एक को रहना ही है तो क्यों न वही रहें.'
कुदरत का करिश्मा देखिए कि अकेले रहने की बारी आई तो रही वो फिज़ा. दुनिया भर को पीछे लगा के रखने वाली फिज़ा दुनिया से गई तो अर्थी उस के नीचे थी नहीं और कंधा देने वाले भी चार की बजाय सिर्फ तीन ही थे. पुलिस ये पता लगा तो रही है कि उस को मारा किसी ने या खुद मरी वो. लेकिन सवाल है कि पता लगने के बाद पुलिस बताएगी किस को. कौन है जो विधि विधान के बिना हुए उसके अंतिम संस्कार के बाद उस की आत्मा की शांति के लिए कहीं कोई इबादत या पाठ पूजा भी करने वाला है. उस अपाहिज़ बच्चे को तो जैसा भी मिला उस का बाप वापिस मिल गया. लेकिन अनुराधा क्या ले के गई दुनिया से? सिवाय उस बदनामी और बददुआ के जो हमेशा उस के साथ रही. उसे न वो कब्र मिली जो फिज़ा हो जाने के बाद मिलनी ही चहिये थी. न वो चार कंधे जो हिंदू धर्म के हिसाब से भी मोक्ष के लिए ज़रूरी होते हैं. क्या ऐसी फिज़ाएं ऐसी ही मौत मर जाने के लिए अभिशप्त होती हैं?




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