अखिलेश की विरासत -राजनीतिक सूद,कर्ज,दबंग कार्यकर्ता और हल्ला-बोल पार्टी

एक कदम आगे कई कदम पीछे
क्या करूं,अब तो पिता जी के आदेश पर कांटो  भरा  ताज पहन चूका हूँ भाई 
सुधींद्र भदौरिया
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव नए मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले चुके हैं। उन्हें विरासत में राजनीतिक सूद और कर्ज भी मिला है। दबंग कार्यकर्ता मिले हैं और और हल्ला-बोल की पार्टी । उन्होंने अनुशासन की कार्रवाई ऐसे लोगों के खिलाफ की, जिन्होंने इटावा, मैनपुरी और अलीगढ़ के राजनीतिक जीवन में कभी रास्ता काटने की कोशिश की थी। बेहतर यह होता कि वे ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करते जिन्होंने चुनाव परिणाम आने के बाद पत्रकारों, दलितों, महिलाओं और निर्धन नागरिकों पर हमला किया और कुछ को तो मार ही डाला। एक राष्ट्रीय स्तर के अंग्रेजी अखबार के अनुसार जिन्हें मंत्री पद की शपथ दिलाई गई उनमें से अट्ठाईस के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं।
राजा भैया जब भाजपा सरकार का समर्थन कर रहे थे तो स्वयं मुलायम सिंह ने उन्हें कुंडा का गुंडा की संज्ञा दी थी। इस बार और कथित समाजवादी सरकार में मंत्री बने अरिदमन सिंह के खिलाफ धारा-120 बी के तहत एक दलित पर हमले का भी मामला आगरा में दर्ज हुआ। शपथ ग्रहण समारोह में सपा कार्यकर्ताओं ने कार्यक्रम के बाद महामहिम का पूरा मंच चकनाचूर कर दिया। ये  कार्यकर्ता लोकतंत्र और संविधान का कितना आदर करेंगे उसकी कुछ झलक आ चुकी है।
उत्तर प्रदेश में होली का त्योहार और चुनाव का त्योहार लगभग एक साथ पूरा हुआ है। होली का त्योहार ऐसा होता है जिसके रंग में सराबोर होकर लोग एक दूसरे से गले मिलते हैं और एक दूसरे को मिठाई खिला कर आगे के लिए अच्छे संबंध बनाने के वादे करते और कसमें खाते हैं। पर चुनाव की राजनीति में इसका उलटा ही होता है। जैसे ही परिणाम आते हैं, जो जीतता है वह अपने प्रतिद्वंद्वियों को उसी पल से दबाना, मारना-पीटना शुरू कर देता है। इस बार के चुनाव परिणाम आए और शाम को टीवी पर उत्तर प्रदेश के चार-पांच स्थानों से ऐसी खबरें आने लगीं जिनसे भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है इसका जनता को अहसास होने लगा। इसकी आशंका चुनाव के दौरान भी व्यक्त की जा रही थी।
बुंदेलखंड के बबीना क्षेत्र से खबर आई कि सपा उम्मीदवार चंद्रपाल यादव अपनी हार को पचा नहीं पाए, इसलिए उन्होंने पत्रकारों और सरकारी अफसरों के साथ अभद्र व्यवहार और मारपीट शुरू कर दी। हालात इतने बिगड़ गए कि पांच पत्रकार बंधक बना कर वहीं ताला लगा कर एक हॉल में बंद कर दिए गए। वे इतने भयभीत थे कि अगर बाहर निकलते तो उनकी जान-माल की हिफाजत का उन्हें यकीन नहीं था। काफी देर बाद पुलिस प्रशासन ने उन्हें सुरक्षित निकाल कर अपने स्थान पर पहुंचाया।
इसी तरह से फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता हार को धीरज के साथ स्वीकार नहीं कर पाए और उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्ग जाम कर दिया। नतीजे के तौर पर जो हिंसा हुई उसमें एक व्यक्ति की जान चली गई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संभल सीट पर मिली जीत पर सपा कार्यकर्ताओं ने तालिबानी तरीके से जो जश्न मनाया उसमें एक लड़के की गोली लगने से मृत्यु हो गई। जिसकी गोली से यह लड़का मरा उसकी आज तक गिरफ्तारी नहीं हुई है।
मुलायम सिंह जहां से सांसद हैं, उसी मैनपुरी की सदर सीट पर उनके ही नवनिर्वाचित विधायक राजू यादव ने निर्दलीय उम्मीदवार और जिला पंचायत सदस्य विनीता शाक्य को पीटा और उनके पति को इतनी बेरहमी से मारा कि उन्हें अस्पताल में बेहोशी की हालत में ले जाकर आइसीयू में भर्ती कराया गया। इसके विरोध में सैकड़ों लोगों ने जाकर एफआइआर दर्ज कराई, पर आज तक राजू यादव की न तो गिरफ्तारी हुई और न ही पार्टी ने उनके खिलाफ एक महिला के साथ मारपीट करने पर कोई कार्रवाई की।
इन घटनाओं पर कार्रवाई न होने से सपा समर्थकों के हौसले इतने बुलंद हो गए कि उन्होंने एक थानेदार को भी निशाना बना डाला। बरनहाल थाना करहल विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है। वहां के थानेदार को सपा के लोगों ने इस जालिमी अंदाज में पीटा कि थानेदार सोलंकी का सिर बुरी तरह जख्मी हो गया। इन सब घटनाओं को अंजाम देकर सपा कार्यकर्ता खुलेआम सीना ताने बांहें चढ़ाए हुए कस्बों में और थानों के आसपास घूमते देखे जा सकते हैं ताकि शिकायतकर्ता उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराने आए तो उसकी वहीं ‘सेवा’ कर दी जाए। ऐसे में शांति और सद््भाव का वातावरण कैसे रह सकता है!
सपा कार्यकर्ता अपनी विजय पताका फहराने दलितों, महिलाओं, निर्धन और पिछडेÞ वर्गों को धमकाने-डराने के अंदाज में निकल पड़े हैं। उन्होंने एक दलित प्रधान मुन्ना लाला की हत्या कर दी। सीतापुर में दलितों की झोपड़ियों में आग लगा दी। सीतापुर जिले के रोसिया थानाक्षेत्र में आने वाला बंबिया गांव सपा कार्यकर्ताओं के खौफ की मिसाल बन गया है।
मुलायम सिंह अपने गृह जनपद में जब होली खेलने पहुंचे तो उनके कार्यकर्ताओं ने हरदोई गांव के दलित प्रधान को लाठियों से पीट कर बुरी तरह घायल कर दिया। हरदोई गांव सैफई से कुछ कोस ही दूर है। इसी तरह ग्राम उन्वा संतोषपुर से लेकर ग्राम बहादुरपुर के दलितों और पिछड़ोंके छप्पर उखाड़ कर सपा के लोगों ने अपनी जीत की खुशी का इजहार किया। इटावा शहर में पूर्व सांसद रामसिंह शाक्य बहुजन समाज पार्टी के लिए चुनाव में काम कर रहे थे, उनके घर पर पत्थरबाजी की गई।
समाजवादी पार्टी की सरकार बनने पर शुरुआत यह है तो इंतिहा क्या होगी? भारतीय लोक संस्कृति को   जानने वाले इस कहावत से परिचित हैं कि ‘पूत के पैर पालने में ही पता चल जाते हैं।’ लोकतंत्र में आस्था और दलितों, पिछड़ों और महिलाओं की चिंता करने वालों को लग रहा है कि आने वाले दिन उत्तर प्रदेश की जनता के लिए दुखदायी साबित हो सकते हैं।
जब मायावती मुख्यमंत्री थी तों उत्तर प्रदेश की जीडीपी आठ प्रतिशत थी। जब मुलायम सिंह के कार्यकाल (2003-2007) में उत्तर प्रदेश की जीडीपी दो से तीन प्रतिशत थी। मायावती के कार्यकाल में मान्यवर कांशीराम आवास योजना के तहत आवासहीन निर्धन लोगों को आवास दिए गए जिनकी संख्या लाखों में है। इसी तरह सात लाख बच्चियों को मुफ्त में साइकिल और पचीस हजार तक के वजीफे दिए गए। उत्तर प्रदेश ने कृषि उपज बढ़ाने में एक विशिष्ट स्थान हासिल किया जिसे केंद्र सरकार ने भी सराहा।
बसपा सरकार के खिलाफ उसके विरोधियों और नवदौलतिया वर्ग ने अखबारों और टेलीविजन में दो प्रचार बहुत किए। एनआरएचएम घोटाले को बढ़ा-चढ़ा कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया। असलियत यह कि यह घोटाला हाइकोर्ट के निर्देश से 2005 में सामने आया, जब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। 2007 में जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो बाबूसिंह कुशवाहा स्वास्थ्य मंत्री बनाए गए। फिर जो कुछ हुआ वह कुशवाहा की, और केंद्र सरकार के जो अधिकारी इस योजना की निगरानी कर रहे थे उनकी जिम्मेदारी थी। जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम या राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में हुए घोटालों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, उन्हीं तर्कों के आधार पर मायावती अन्य लोगों की करतूतों के लिए कैसे जिम्मेदार हो सकती हैं?
मूतिर्यों पर हुए खर्च को भी विपक्ष ने बहुत तूल दिया। क्या इस देश में दो दलित प्रेरणास्थल बनाना- एक नोएडा में है और एक लखनऊ में- गलत काम था? बाबा साहब आंबेडकर सामाजिक विषमता और अन्याय को समाप्त करने के सबसे बडेÞ प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं। महात्मा फुले पिछडेÞ वर्ग में जन्मे उन महापुरुषों में हैं जिन्होंने दलितों और सामाजिक रूप से अन्य वंचितों में अलख जगाने का काम किया।
भारत में जहां महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था, सावित्री बाई फुले ने सभी बालिकाओं के लिए ज्ञान के दरवाजे खोलने का काम किया। इसी तरह बिरसा मुंडा उन महापुरुषों में हैं जिन्होंने आजादी को वनवासियों के घर ले जाने का बीड़ा उठाया था। संत कबीर ने हिंदुओं और मुसलमानों में एकता, प्रेम और करुणा का भाव पैदा किया और सामूहिक चेतना-बोध के प्रतीक बने। कांशीराम ने मायावती को आगे रख इन आदर्शों से प्रेरित जनता को राजनीतिक सत्ता तक पहुंचाने का काम किया। इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि को कुछ वर्गों और नवधनाढ्य समूहों ने देश के सामने गलत रूप में पेश किया।
इस चुनाव में कुछ निहित स्वार्थों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश में इस तरह के परिणाम आए। कांग्रेस ने मुसलिम वोटों को लुभाने के लिए जो वादा किया उससे वह खुद हाशिये पर चली गई और ग्यारह प्रतिशत वोटों पर सिमट गई। हर चुनाव में राम मंदिर का राग अलापने वाली भाजपा बसपा की कमियां ही निकालती रही और खुद बाबूसिंह कुशवाहा से लेकर बादशाह सिंह तक को गले लगाती रही। उसका चुनाव परीक्षाफल भी एक अनुत्तीर्ण छात्र का रहा। इन दोनों पार्टियां के वोट और सीट जोड़ दें तो भी वे बहुजन समाज पार्टी की बराबरी नहीं कर सकतीं। इन्हें अपनी भूमिका पर सख्त आत्मचिंतन की जरूरत है।
बसपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में छब्बीस फीसद वोट मिले। वह अपने मूल जनाधार, जिनमें दलित और ओबीसी हैं, को बचाने में सफल रही। उसे कुछ वोट अन्य निर्धनों के भी मिले। समाजवादी पार्टी को उनतीस फीसद वोट मिले। अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से महज तीन प्रतिशत वोट पर सीट का आंकड़ा कुछ अप्रत्याशित हो गया। अगर बसपा की जीती हुई और दूसरे स्थान वाली सीटों को मिला दें तो वे करीब तीन सौ हो जाती हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मतदाताओं का ध्रुवीकरण समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच में हुआ।
ध्रुवीकरण की इस प्रक्रिया में अन्य सभी दल लड़ाई से बाहर हो गए। पिछली बार के मुकाबले बसपा के वोट फीसद में आई थोड़ी-सी कमी सपा के लिए फायदेमंद रही। पर उत्तर प्रदेश का यह चुनाव एक कदम आगे जाकर कई कदम पीछे ले जाने वाला भी साबित हो सकता है। पिछले दिनों की हिंसात्मक घटनाओं से ऐसा लगता है। नई सरकार को डॉ लोहिया की नसीहत के मुताबिक अपने घोषणापत्र पर छह महीने में अमल करना चाहिए। अगर नहीं करती है तो डॉ लोहिया के अनुसार ऐसी सरकार के बने रहने का कोई औचित्य नहीं होगा।
आभार जनसत्ता

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