बेनी की वजह से कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर
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राकेश वर्मा-बसपा के विवेक पांडेय और सपा के राजीव कुमार सिंह के साथ कांटे की लड़ाई में बुरी तरह फंसे
तहलका टुडे टीम
लखनऊ,उत्तर प्रदेश के चुनावी संग्राम का पहला मुकाबला में दस जिलों की 55 सीटें शामिल हैं, यों सभी सीटों पर बसपा, सपा, कांग्रेस और भाजपा ने अपने उम्मीदवार उतार रखे हैं। लेकिन इस दौर में कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर है। पहले दौर की सीटों के लिए उम्मीदवार तय करने में राहुल गांधी ने केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा को महत्व दिया था। उम्मीदवारों में बाराबंकी की दरियाबाद सीट से बेनी बाबू के बेटे राकेश वर्मा उम्मीदवार हैं। जो बसपा के विवेक पांडेय और सपा के राजीव कुमार सिंह के साथ कांटे की लड़ाई में बुरी तरह फंस गए हैं।
बेनी प्रसाद वर्मा बाराबंकी के हैं। लेकिन लोकसभा के लिए बाराबंकी सीट आरक्षित होने के कारण इस समय लोकसभा में वे गोण्डा की नुमाइंदगी कर रहे हैं। बेनी लंबे समय तक मुलायम सिंह यादव के खास सहयोगी रहे हैं। केंद्र में जब संयुक्त मोर्चे की सरकार थी तो मुलायम ने उन्हें संचार मंत्री बनवाया था। कुर्मी बिरादरी के बेनी स्वभाव से अक्खड़ माने जाते हैं। सपा में उन्होंने अमर सिंह के कारण घुटन महसूस की थी। उनका असर सीमित इलाकों में ही माना जाता है। सपा से अलगाव के बाद 2007 का विधानसभा चुनाव उन्होंने और उनके बेटे ने अपनी अलग पार्टी बना कर लड़ा था। लेकिन दोनों ही बुरी तरह हार गए थे। इस बार कांग्रेस ने उन पर दांव तो जरूर लगा दिया। लेकिन इस चक्कर में पार्टी ने बड़ा खतरा भी मोल ले लिया है।
बाराबंकी के कांग्रेसी सांसद पीएल पुनिया का बेनी बाबू से छत्तीस का आंकड़ा है। चूंकि पुनिया की लोकसभा सीट के तहत आने वाली विधानसभा सीटों के उम्मीदवार तय करने में कांग्रेस आलाकमान ने बेनी बाबू की पसंद को तरजीह दी है इससे पुनिया खेमा आहत है और अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ काम कर रहा है। बहराइच में भी बेनीबाबू को तरजीह दिए जाने से वहां के पार्टी सांसद कमल किशोर दुखी हैं। उनके समर्थक भी मन से काम नहीं कर रहे हैं। बेनी ने ज्यादातर सीटों पर सपा छोड़ कर आए लोगों को उम्मीदवार बनवाया है। इससे वफादार कांग्रेसियों में नाराजगी है। गड़बड़ एक और भी हुई है। जातीय समीकरणों का हिसाब ठीक से लगाते तो बेनी बाबू जिताऊ उम्मीदवार उतारते। लेकिन उन्होंने ज्यादातर उम्मीदवार यह दिमाग में रखकर उतारे हैं कि
बाराबंकी के कांग्रेसी सांसद पीएल पुनिया का बेनी बाबू से छत्तीस का आंकड़ा है। चूंकि पुनिया की लोकसभा सीट के तहत आने वाली विधानसभा सीटों के उम्मीदवार तय करने में कांग्रेस आलाकमान ने बेनी बाबू की पसंद को तरजीह दी है इससे पुनिया खेमा आहत है और अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ काम कर रहा है। बहराइच में भी बेनीबाबू को तरजीह दिए जाने से वहां के पार्टी सांसद कमल किशोर दुखी हैं। उनके समर्थक भी मन से काम नहीं कर रहे हैं। बेनी ने ज्यादातर सीटों पर सपा छोड़ कर आए लोगों को उम्मीदवार बनवाया है। इससे वफादार कांग्रेसियों में नाराजगी है। गड़बड़ एक और भी हुई है। जातीय समीकरणों का हिसाब ठीक से लगाते तो बेनी बाबू जिताऊ उम्मीदवार उतारते। लेकिन उन्होंने ज्यादातर उम्मीदवार यह दिमाग में रखकर उतारे हैं कि
वे सपा उम्मीदवारों को जीतने से रोकें।
सीतापुर, बाराबंकी, फैजाबाद, आंबेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिलों की ये 55 सीटें सपा, बसपा और भाजपा के असर वाली मानी जाती हैं। पिछली दफा यहां बसपा ने खासी बढ़त ली थी। इस बार माहौल में बदलाव है। लेकिन कांग्रेस फिर भी दो-चार सीटों पर ही मुख्य मुकाबले की स्थिति में है। मुसलमानों का ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में दिख रहा है। हालांकि बसपा सुप्रीमो मायावती ने जातीय समीकरण बिठाने और बहुकोणीय मुकाबलों का फायदा उठाने की रणनीति इस बार भी अपनाई है। लेकिन साढ़े चार फीसद आरक्षण देने के फैसले के बावजूद मुसलमानों में कांग्रेस के लिए कोई उत्साह नहीं दिख रहा।
गोंडा में राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोनों की मौजूदगी में लोगों ने अलग-अलग चुनावी सभाओं में बेनी प्रसाद वर्मा का जमकर विरोध किया था। बेनी बाबू के कारण बहराइच की नानपारा सीट से पार्टी ने सजायाफ्ता दिलीप वर्मा को उम्मीदवार बना दिया था। लेकिन कानूनी अड़चन का पता लगते ही उन्हें बदल कर उनकी पत्नी माधुरी वर्मा को टिकट दे दिया गया। इस चक्कर में पुराने कांग्रेस शिवशंकर शुक्ल ने नाराजगी जताई तो बेनी बाबू ने उन्हें पार्टी से बाहर करा दिया। बेनी बाबू के कारण ही बहराइच के जिला कांग्रेस अध्यक्ष जितेंद्र सिंह को भी पार्टी से निकाल दिया गया।
कांग्रेस को पहले दौर की 55 सीटों वाले इन दस जिलों में उम्मीद 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से जगी है। तब पार्टी ने यहां छह सीटें जीत ली थी। लेकिन टिकट बांटने में अकेले बेनी प्रसाद वर्मा को तरजीह मिलने से बाकी पांचों सांसद बेमन से प्रचार में जुटे हैं। सूबे के पार्टी प्रभारी दिग्विजय सिंह भी नतीजों को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं हैं। होते तो अपने दामाद रत्नाकर सिंह को बाराबंकी की रामनगर सीट से चुनाव लड़ने से मना न करते। रत्नाकर सिंह को इस सीट पर 2007 के चुनाव में करारी हार का मुंह देखना पड़ा था।
जहां तक चुनाव प्रचार का सवाल है, मतदाताओं के सामने कोई ठोस मुद्दा कोई भी दल उभार नहीं पाया है। अलबत्ता सपा, भाजपा और कांग्रेस ने मायावती सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की अपनी तरफ से भरसक कोशिश की। लेकिन चूंकि सूबे के मतदाता सभी पार्टियों के राज के कामकाज को पहले से देख चुके हैं और भ्रष्टाचार की कसौटी पर कोई भी पाक-साफ नहीं है। लिहाजा चुनाव अंतत: जातीय समीकरणों तक ही उलझ कर रह गया है।
सीतापुर, बाराबंकी, फैजाबाद, आंबेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिलों की ये 55 सीटें सपा, बसपा और भाजपा के असर वाली मानी जाती हैं। पिछली दफा यहां बसपा ने खासी बढ़त ली थी। इस बार माहौल में बदलाव है। लेकिन कांग्रेस फिर भी दो-चार सीटों पर ही मुख्य मुकाबले की स्थिति में है। मुसलमानों का ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में दिख रहा है। हालांकि बसपा सुप्रीमो मायावती ने जातीय समीकरण बिठाने और बहुकोणीय मुकाबलों का फायदा उठाने की रणनीति इस बार भी अपनाई है। लेकिन साढ़े चार फीसद आरक्षण देने के फैसले के बावजूद मुसलमानों में कांग्रेस के लिए कोई उत्साह नहीं दिख रहा।
गोंडा में राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोनों की मौजूदगी में लोगों ने अलग-अलग चुनावी सभाओं में बेनी प्रसाद वर्मा का जमकर विरोध किया था। बेनी बाबू के कारण बहराइच की नानपारा सीट से पार्टी ने सजायाफ्ता दिलीप वर्मा को उम्मीदवार बना दिया था। लेकिन कानूनी अड़चन का पता लगते ही उन्हें बदल कर उनकी पत्नी माधुरी वर्मा को टिकट दे दिया गया। इस चक्कर में पुराने कांग्रेस शिवशंकर शुक्ल ने नाराजगी जताई तो बेनी बाबू ने उन्हें पार्टी से बाहर करा दिया। बेनी बाबू के कारण ही बहराइच के जिला कांग्रेस अध्यक्ष जितेंद्र सिंह को भी पार्टी से निकाल दिया गया।
कांग्रेस को पहले दौर की 55 सीटों वाले इन दस जिलों में उम्मीद 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से जगी है। तब पार्टी ने यहां छह सीटें जीत ली थी। लेकिन टिकट बांटने में अकेले बेनी प्रसाद वर्मा को तरजीह मिलने से बाकी पांचों सांसद बेमन से प्रचार में जुटे हैं। सूबे के पार्टी प्रभारी दिग्विजय सिंह भी नतीजों को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं हैं। होते तो अपने दामाद रत्नाकर सिंह को बाराबंकी की रामनगर सीट से चुनाव लड़ने से मना न करते। रत्नाकर सिंह को इस सीट पर 2007 के चुनाव में करारी हार का मुंह देखना पड़ा था।
जहां तक चुनाव प्रचार का सवाल है, मतदाताओं के सामने कोई ठोस मुद्दा कोई भी दल उभार नहीं पाया है। अलबत्ता सपा, भाजपा और कांग्रेस ने मायावती सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की अपनी तरफ से भरसक कोशिश की। लेकिन चूंकि सूबे के मतदाता सभी पार्टियों के राज के कामकाज को पहले से देख चुके हैं और भ्रष्टाचार की कसौटी पर कोई भी पाक-साफ नहीं है। लिहाजा चुनाव अंतत: जातीय समीकरणों तक ही उलझ कर रह गया है।