आस्था का कारोबार

सुनीता मिनी
: पिछले कुछ समय से जब भी किसी तीर्थ स्थान या पर्यटकों की ज्यादा भीड़भाड़ वाली जगहों पर स्थित मंदिरों में गई तो वहां से लौटने के बाद मन में विचार आया कि अगली बार ऐसी किसी जगह नहीं जाना है। लेकिन आदतें इतनी जल्दी नहीं छूटतीं। कुछ साल पहले मैं घंटों अपना समय पूजा-पाठ में बिता दिया करती थी। फर्क यह आया है कि अब इन अंधविश्वासों और आडंबरों को तर्क की दृष्टि से देखने की नई आदत लगी है। हालांकि ईश्वर में आस्था अब भी बरकरार है, लेकिन धर्म-स्थलों पर व्याप्त बुराइयों से मन दुखी हो जाता है। अपने घर में बने छोटे मंदिर या मुहल्ले के मंदिरों में सिर झुकाते हुए मन में जितनी श्रद्धा उमड़ती है, तीर्थ-स्थान या सुप्रसिद्ध मंदिरों में इसका आधा भी महसूस नहीं होता। इन जगहों पर जो बातें दिमाग में चलती रहती हैं, वे कुछ इस प्रकार हैं- जूते-चप्पल ठीक से रखो; कहीं यह आदमी हमें ठग तो नहीं रहा; पंडितों के चक्कर में मत पड़ो, वरना जेब खाली हो जाएगी; आमतौर पर इतनी गंदगी, मानो कोई कचरा घर हो; दर्शन के लिए लाइन में खड़े-खड़े हालत खराब आदि।
मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ऐसा सोचने वाली मैं अकेली नहीं, ज्यादातर लोगों के दिमाग में यही बातें चल रही होती हैं। अब ऐसे में पूजा-पाठ में कैसे मन लग सकता है। बचपन से लेकर आज तक जब भी कहीं घूमने की योजना बनी तो किसी न किसी प्रसिद्ध मंदिर या तीर्थ-स्थान का चुनाव किया गया। ऐसा होना लाजिमी भी है। मंदिरों के इस देश में यह मध्यवर्ग की मानसिकता के भी अनुकूल है। झारखंड का देवघर स्थित मंदिर शिवभक्तों के लिए बहुत ही पावन माना जाता है। लेकिन यहां के पंडितों के जाल से बचना लगभग नामुमकिन है। खासकर तब, जब आपको कोई कर्मकांड भी कराना हो। काशी में भी तकरीबन यही स्थिति है। ज्यादातर जगहों के मशहूर और ज्यादा भीड़ जुटने वाले धार्मिक स्थानों पर मंदिर में प्रवेश करते ही दुकानदार इस तरह अपनी दुकानों में जूते-चप्पल रखने की विनती करते हैं, जैसे किसी व्यक्ति के जूते रखते ही उनकी दुकान पवित्र हो जाएगी। इसके बाद पूजा की सामग्री देकर (उनके हिसाब से) भेज दिया जाएगा। वापस आने पर पता चलता है कि उस सामान का तिगुना दाम वसूला जा रहा है। लोग चाह कर भी कुछ नहीं कर
पाते हैं, क्योंकि उन्हें पापी और नास्तिक साबित करने में एक मिनट की भी देरी नहीं की जाएगी। ऐसा बर्ताव भी किया जा सकता है, जैसे कोई उस दुकान में जबरन घुस आया था।
इन मंदिरों में भगवान की मुख्य मूर्तियों के अलावा छोटी-बड़ी सैकड़ों मूर्तियां नजर आती हैं और उसके बगल में एक पंडित भी लोगों को वहां पैसे चढ़ाने की नसीहत देता है। अगर किसी ने उसकी बात अनसुनी की तो उसे भला-बुरा सुनाया जाएगा और ईश्वर के कहर का भी खौफ पैदा किया जाएगा। महाराष्ट्र का त्रयंबकेश्वर हो या अन्य कोई ज्योतिर्लिंग, सबकी तकरीबन यही स्थिति है। कोलकाता के प्रसिद्ध कालीबाड़ी में तो पंडित लाइन लगा कर भक्तों का इंतजार करते हैं। उन्हें ‘वीआइपी’ यानी मंदिर में स्थित भगवान का दर्शन अलग से कराने का लालच दिया जाता है। मंदिर परिसर के पास ही पुलिस थाना है और सिपाही मंदिर में चौकसी करते नजर आते हैं। इसके बावजूद यह सब खुलेआम होता है। मैंने जब थाना प्रभारी से इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि वे इससे निबटने में सक्षम हैं, लेकिन उनके हाथ बंधे हुए हैं। कोई भी सरकार धार्मिक विवाद में पड़ने से परहेज ही करती है। दूसरी ओर, जागरूकता के अभाव और अंधविश्वास के चलते यह कारोबार फलता-फूलता रहता है। इसी तरह, शिर्डी में पंडितों का खतरा तो नहीं है, लेकिन वहां जाना बहुत महंगा पड़ सकता है। होटल में रुकने का किराया दिन और भीड़ के हिसाब से तय किया जाता है। शनिवार और रविवार को छुट्टी का दिन होने की वजह से ज्यादा दर्शनार्थी जुटते हैं, सो उस दिन कमरे के लिए मोटी रकम चुकानी पड़ती है। गया का विश्व प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर हो या बौद्धों की सबसे पावन-भूमि बोध गया, कमाई के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। खासकर विदेशी पर्यटकों से छोटी-छोटी चीजों के लिए मनमानी रकम वसूली जाती है।
भारत को मंदिरों का देश कहा जाता है। लेकिन सच यही है कि यहां के मंदिरों की दशा काफी खराब है। एक तो ठग हर मोड़ पर भोले-भाले लोगों को ठगने का इंतजार करते रहते हैं, वहीं चारों तरफ पसरी गंदगी किसी को भी नाक-भौं सिकोड़ने पर मजबूर कर देती है। ऐसा लगता है कि अंधश्रद्धा के आगे सरकार ने भी घुटने टेक दिए हैं। ऐसी हालत में अगर मेरा मन इन तथाकथित पवित्र जगहों पर जाने का नहीं करता तो क्या मैं नास्तिक हूं?

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