हिंदुस्तान के हालात से दुखी प्रख्यात चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने छोड़ी दुनिया


 तहलका टुडे टीम 

नई दिल्ली ,हिंदुस्तान के हालात से दुखी प्रख्यात चित्रकार मकबूल मकबूल फ़िदा हुसैन ने  आज 95 साल की उम्र में । हुसैन अपनी मौलिक और जीवंत सोच के चलते जितने ख्यात रहे हैं उतने विवादास्पद भी लेकिन सच सिर्फ इतना भर नहीं है जहां से उनके आलोचकों की आलोचना समाप्त होती है शायद हुसैन की कला उससे कहीं आगे से शुरू होती है।     
परिवार के लोगों ने बताया कि लंदन के रॉयल ब्रॉम्पटन हॉस्पिटल में हुसेन ने स्थानीय समय के मुताबिक तड़के करीब ढाई बजे अंतिम सांस ली। 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किए जा चुके हुसेन पिछले डेढ़ महीने से बीमार चल रहे थे। ' एम एफ के नाम से मशहूर हुसैन को भारत का पिकासो करार दिया जाता था। परिवार के लोगों का कहना है कि उन्हें लंदन में ही दफनाया जाएगा।
महाराष्ट्र के पंढरपुर में 17 सितंबर 1915 को जन्मे हुसेन हिंदू देवियों के बनाए अपने चित्रों के कारण विवादों में गए। देवी दुर्गा और सरस्वती के उनके चित्रों पर हिंदू संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया दी और वर्ष 1998 में उनके घर पर हमला कर उनकी कलाकृतियों को नुकसान पहुंचाया गया।
कानूनी मुकदमे दायर होने और जान से मारने की धमकियां मिलने के बाद से हुसेन वर्ष 2006 में भारत छोड़कर चले गए। उन्हें जनवरी 2010 में कतर की नागरिकता दी गई , जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। सुप्रीम कोर्ट ने भारत माता और हिंदू देवियों के अपमान के आरोप वाली याचिकाओं पर उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की मांग को खारिज करते हुए कहा था कि मंदिरों और प्राचीन कलाओं में इस तरह के चित्रण हैं और उन्हें अश्लील नहीं माना गया है। हरिद्वार की जिला अदालत के भेजे समन पर हुसेन ने कभी जवाब नहीं दिया। अदालती आदेश के तहत भारत में उनकी संपत्तियों को कुर्क कर लिया गया।
हुसेन यह कहते रहे कि वह भारत वापसी करने के इच्छुक हैं। पर उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई। हुसेन की तीन पेंटिंग्स हाल ही में यहां हुई बोनहैम नीलामी में 2.32 करोड़ रुपये में नीलाम हुए। इसमें से एक में उन्होंने अपने प्रिय विषय घोड़े और महिला को उकेरा था। अकेले यही पेंटिंग 1.23 करोड़ रुपये में नीलाम हुई।
हमेशा नंगे पांव चलने वाले हुसेन से एक बार एक पत्रकार ने पूछा था कि वह चप्पल क्यों नहीं पहनते तो उन्होंने उत्तर दिया , ' मैं जमीन से जुड़े रहना चाहता हूं। ' यह विडंबना ही है कि ऐसे संस्कृतिवाहक कलाधर्मी हुसेन पर अपने ही देश में हमला किया गया और जीवन की अंतिम घड़ी उन्हें विदेशों में गुजारनी पड़ी।
हुसेन का शुरुआती जीवन
हुसेन जब बच्चा थे उसी दौरान उनकी मां ज़ुनैब की मौत हो गई। पिता फिदा ने दूसरी शादी कर ली और उनका परिवार इंदौर चला गया। हुसेन की स्कूली शिक्षा वहीं हुई। 20 साल की उम्र में हुसेन मुंबई चले गए और वहां जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से पेंटिंग के हुनर को निखारा। सन् 1941 में उनकी शादी हुई। मुंबई में शुरू में आर्थिक तंगी के चलते उन्हें काफी बुरे दिन देखने पड़े।
हुसेन ने खुद कहा था कि वह फिल्मों के होर्डिंग्स पेंट करके गुजारा करते थे। उन्होंने बताया था कि प्रति स्क्वेयर फुट की पेंटिंग के लिए छह आना मिलता था। आर्थिक तंगी के चलते उन्हों नौकरी भी करनी पड़ी।
इस बात को समझने के लिए मकबूल फिदा हुसैन की कहानी उनकी जुबानी किताब को देखें तो बहुत दिलचस्प बातें निकलकर बाहर आती है।  एक चर्चित वाक्या है जो यह बताता है कि हुसैन ने किस तरह प्रख्यात राजनीतिज्ञ राममनोहर लोहिया की एक बात से आहत होकर अपनी जिंदगी के 10 साल रामायण की पेटिंग को बनाने में लगाया और तुलसीदास और वाल्यमीकि को समझा और लोहिया के उन शब्दों का मान रखा जिसमें राममनोहर लोहिया जी ने कहा था
'यह जो तुम बिरला और टाटा के ड्राइंग-रूम में लटकने वाली तस्वीरों से घिरे हो, जरा बाहर निकलो। रामायण को पेंट करो। इस देश की सदियों पुरानी दिलचस्प कहानी है। गांव-गांव गूंजता गीत है, संगीत है और फिर इन तस्वीरों को गांव-गांव ले जाओ।'
लोहिया के बोले गए यह शब्द हुसैन के चित्रकार मन को आहत कर गए थे ओर एक समय ऐसा भी आया जब हुसैन ने लोहिया के निधन के बाद मोती भवन को रामायण की 150 पेंटिंग से भर दिया था। इन पेंटिंग को बनाने में मकबूल फिदा हुसैन को 10 साल से अधिक का समय लगा था।
आखिर ऐसा क्यों कहा था लोहिया जी ने
दरअसल हुसैन ने उस समय प. जवाहरलाल नेहरू का एक पोट्रेट बनाया था जो इलेस्ट्रेड वीकली में छपा था जिसमें नेहरू जी को डूबते हुए दिखाया गया था। हुसैन की जीवनी में इस बात का उल्लेख है कि आखिर किस तरह से लोहिया जी इस बात से बेहद नाराज थे कि हुसैन नेहरू की पेटिंग बना रहे हैं।
क्या इस घटना को पढ़ने के बाद आपको ऐसा नहीं लगता कि हुसैन की आलोचना करने वाले लोग हुसैन के चित्रकार मन को समझ नहीं पाए?

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