घर में दो दरवाजे, पीछे वाला मुस्लिम बस्ती के लिए

आज क़साब है. इससे पहले अफजल था और उससे पहले भी कोई रहा होगा. ये ऐसे कुछ चेहरे हैं जो समय-समय पर बदलते रहते हैं. लेकिन क्या यही कुछ चेहरे हैं जिसके किये धरे से हम एक समुदाय विशेष की छवि मन-माफ़िक तरीके से गढ़ने लगें? ये चेहरे तो सामने आते हैं और फिर इतिहास बन जाते हैं. लेकिन जो नहीं बदलता वो है मुस्लमानों के बारे में एक सोच. नफरत. दुर्भावना और न जाने क्या-क्या! यह कभी नहीं बदलता और इसी वजह से हमारे यहां का मुस्लिम खुल कर बोल नहीं पाता. सवाल नहीं उठा पाता. अपने आप को इस देश का उतना नहीं मान पाता, जितना हम यानी हिन्दू मानते हैं.
(मैं यहां कोई बंटवारा नहीं करना चाहता और न ही कोई ऐसी बात करना चाहता हूं जिससे कोई विवाद खड़ा हो और मुझे ख्याति मिल जाए. कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि हम अपने को फेमस करने के लिए ऐसा लिखते हैं) यह एक कड़वा सच है कि आज भी आम हिन्दू और मुस्लमान के बीच एक गहरी खाई है. जिसे कोई नहीं पाटना चाहता. दोनो वर्ग एक दूसरे को टेढी नज़र से देखते हैं.
हमारे यहां का हिन्दू, मुसलमानों को आतंकवादी मानता है या फिर ऐसा कट्टर मानता है जो हमेशा हिन्दुओं को मारने के बारे में, खत्म करने के बारे में सोचता है लेकिन यह सच नहीं है. मुस्लिम भी कमोबेश हिन्दुओं को ऐसी ही घृणा और हिकारत भरी नज़रों से देखता है. ज्यादातर मुसलमानों में हिंसा का वो दौर आज भी इस तरह से घर कर गया है कि रात के समय सोते हुए भी उन्हें सपने आते हैं कि देश में दंगे शुरू हो गए हैं और कुछ लोग उनके ही घर में घुस कर उन्हें मारना चाहते हैं. मेरे एक दोस्त का छोटा भाई पिछले दिनों इसी तरह का एक सपना देखता है और उठ कर रोने लगता है. अब यह डर नहीं तो और क्या है? यह एक ऐसा डर है जो बाबरी और गोधरा के बाद हर मुसलमान के मन में बुरी तरह घुस चुका है और निकल नहीं रहा.
अब डर की एक और कहानी सुनिए- मेरी एक मुसलमान दोस्त है. उसने मुझे एक दिन बताया कि जब दिल्ली में उसका घर बन रहा था तो उसके पापा ने घर में दो दरवाजे बनवाने का फैसला किया. एक आगे की तरफ और एक पीछे की तरफ. जिस तरफ पीछे का दरवाजा बन रहा था उधर मुसलमानों की बस्ती है. उसने बताया कि उसके पापा ने दो दरवाजे इसलिए बनवाने का फैसला लिया ताकि कल को अगर कुछ गलत हो जाए और कोई दंगा हो जाए तो वो सभी को लेकर पीछे वाले दरवाजे से उस मुस्लिम बस्ती में जा सकें. अब आप इसे क्या कहेंगे? हम लोगों के घर में भी दो दरवाजे होते हैं लेकिन कोई भी हिन्दू यह सोच कर पीछे का दरवाजा नहीं खोलता होगा कि कल को कोई दंगा हो तो भाग सकें. जान बचा सकें.
फिर मुसलमान ऐसा क्यों सोचते हैं? क्यों घर बनाने से पहले ही घर से बच कर निकलने की सोचते हैं? क्या ये मान लिया जाये कि वो इसे अपना घर नहीं समझते? इसलिये डरते हैं? और अगर ऐसा है तो ये किसकी हार है? आखिर ये असुरक्षा का माहौल क्यों? जब एक हिन्दु ये कहता है कि कसाब को फ़ांसी  नहीं होनी चाहिये तो हम या तो उससे तर्क-वितर्क करते हैं, या ये कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि फ़लां – फ़लां कम्यूनिस्ट है, फ़लां-फ़लां अपने आप को लीबरल दिखा रहा है. लेकिन जब कोई मुस्लिम ऐसा कहता है तो सीधी प्रतिक्रिया आती है  –साला, देशद्रोही है, आतंकवादी है…..फ़लाना-ढिमकाना. ऐसा लगता है कि मुसलमानों के बोलते ही हम उनकी जबान निकाल लेना हते हैं या उन्हें चुप करा देना चाहते हैं.
ऐसे कैसे चलेगा?
लेखक विकास कुमार युवा पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 09654224119 के जरिए किया जा सकता है

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