निहत्थे कश्मीरी अवाम के सामने गोली बन्दूक कर्फ्यू सभी नाकाम

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हिसाम सिद्दीकी
श्रीनगर! कश्मीर जल रहा है, बच्चे, बूढ़े, औरतें सभी सड़क पर ऐसे बुरे हालात तो शायद दहशतगर्दी के शुरूआती दौर अट्ठासी से नव्वे तक भी नहीं थे। निहत्थे लोगों पर पुलिस और सीआरपीएफ की गोलियों का कोई असर नहीं हो रहा है। खबर लिखे जाने तक तीस लोग सीआरपीएफ की गोलियों का शिकार होकर मौत के मुंह में समा चुके थे जिनमें बेश्तर (अद्दिकांश) नौजवान और कम उम्र के बच्चे हैं। उमर अब्दुल्लाह दिल्ली गए, वजीर-ए-आजम मनमोहन सिंह, होम मिनिस्टर पी.चिदम्बरम और अपने मरकजी वजीर वालिद से मुलाकात करने के बाद उन्होंने कहा कि कश्मीर को सियासी पैकेज की जरूरत है। यह सियासी पैकेज क्या है इसकी वह कोई वजाहत नहीं कर सके। दिल्ली में बैठकर कश्मीर के खिलाफ साजिश करने वाले एक बार फिर सरगर्म हैं। कल तक जो लोग कश्मीरियों की तौहीन करते हुए यह अफवाहें उड़ा रहे थे कि पत्थरबाजी करने वाले नौजवानों को दो से पांच सौ रूपए रोज मिलते हैं अब बच्चे-बच्चे को सड़क पर देखकर वहीं ताकतें यह कहने लगी हैं कि ताजा सूरतेहाल के पीछे उन लोगों का हाथ है जो पहले दहशतगर्दी में शामिल थे और बाद में हथियार डालकर वापस अपने घरों को आ गए। श्रीनगर से दिल्ली तक कोई भी आम कश्मीरियों के जज्बात और दर्द समझने के लिए तैयार नहीं है, न ही कोई इस बात पर गौर कर रहा है कि आखिर पुलिस और पैरा मिलिट्री फोर्सेस की गोलियों की परवा किए बगैर बच्चे, बूढे और औरतें तक सड़कों पर कैसे निकल पड़ी? सरकार ने सूरतेहाल को ढंग से हैंडिल करने के बजाए देखते ही गोली मार देने का हुक्म देकर हालात को मजीद संगीन बना दिया।
मुख्तलिफ शहरों में जुलूस निकले पत्थरबाजी हुई, पुलिस और सीआरपीएफ की गोली से दर्जनों लोग मारे जा रहे हैं। इसके बावजूद कर्फ्यू तोड़कर सड़कों पर निकलने के लिए आम लोग बेताब ही दिखत रहे। इस सूरतेहाल पर गौर करने के लिए श्रीनगर और दिल्ली की सरकारें अपोजीशन में बैठे लोग और अपने मफाद में आम कश्मीरियों के खून से होली खेलने वाले हुर्रियत लीडरान किसी ने भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि ऐसा क्यों हो रहा है। खुद को अवामी नुमाइंदा कहने वाले लोग अपने बिलों में दुबके हुए हैं अवाम के बीच जाकर कोई शख्स न तो उनका दर्द बांटने की कोशिश कर रहा है और न ही उन्हें यह समझाया जा रहा है कि वह जो कुछ कर रहे हैं वह उनके और कश्मीरियत के मफाद में नहीं है। इसके आलवा कोई भी सियासतदां चाहे वह हुक्मरां जमात का हो यह अपोजीशन का इस बात पर सवाल नहीं उठा रहा है कि सड़क पर देखते ही कश्मीरियों को गोली मारने का हुक्म क्यों दिया गया और क्यों पुलिस व सीआरपीएफ के जवान फौरन गोली चला देते हैं। ऐसी कार्रवाई और हुक्म जम्मू के मामले में तब क्यों नही आया जब अमरनाथ श्राइन बोर्ड के बहाने पूरे जम्मू में जबरदस्त हंगामें किए गए थे और दवाओं व खाने के सामान के ट्रक तक शहर में दाखिल नहीं होने दिए गए थे। उन पर गोली क्यों नही चलाई गई, यह सवाल भी कश्मीरियों के दिलों में गुस्से की आग भड़का रहा।
जैसे-जैसे रियासती सरकार की सख्ती बढ़ रही है कश्मीर में हालात मजीद खराब होते जा रहे हैं। पुलिस और सीआरपीएफ की गोलियों की परवा किए बगैर भीड़ सड़क पर है। हंगामा कर रहे लोगों ने रेल की पटरियां उखाड़ दी जिससे ट्रेनों की आमद व रफ्त बंद कर दी गई है। कश्मीर के दस जिलों में खबर लिखने तक कर्फ्यू जारी था। इस बीच कट्टरपंथी हुर्रियत लीडर सैयद अली शाह गिलानी ने मुजाहिरीन से आगजनी न करने की अपील की और कहा कि पथराव, दफ्तरों, रेलवे स्टेशनों और गाड़ियों को आग लगाना कश्मीरी आंदोलन का हिस्सा नहीं है। अली शाह गिलानी ने पहली बार कश्मीर में जारी हिंसा (तशद्दुद) के खिलाफ आवाज उठाई है। रियासती सरकार के तर्जुमान का कहना था कि भीड़ ने कई दफ्तरों, इमारतों और गाड़ियों में आग लगा दी और तोड़फोड़ की मगर यह कोई नहीं बता रहा है कि पुलिस की गालियों का शिकार होकर कितने कम उम्र लड़के और नौजवान अपनी जान खो चुके हैं। सरकारी आंकड़ो के हिसाब से यह तादाद तीस है मगर असली तादाद इससे कहीं ज्यादा बताई जाती है।
कश्मीर पर इस बार भी हंगामों की वजह सिक्योरिटी फोर्सेस के जरिए गोली चलाकर दो नौजवानों को कत्ल करना बताया गया है। दरअस्ल अलगाववादियों के मुजाहिरे मार्च पर कुछ नौजवानों ने पत्थर फेंके तो लाठी डंडों से उन्हें रोकने के बजाए सिक्योरिटी फोर्सेस के जवानों ने सीधे गोली चला दी जिसमें दो नौजवानों की मौत हो गई और उसके बाद से हंगामों का सिलसिला शुरू हो गया। मगर कश्मीरियों के जज्बात और उनका दर्द समझने के बजाए उन पर गोलियां चलाई गई। जाहिर है आग से आग नहीं बुझाई जाती। इसी का नतीजा है कि आज वादी के हालात धमाकाखेज होते जा रहे हैं। श्रीनगर, बडनाथ, बांदीपुरा, अवंतीपुरा, पुलगाम और बारामुला समेत तमाम जिले शोरिश की जद में हैं। कर्फ्यू की खिलाफवर्जी करने वालों को देखते ही गोली मारने के हुक्म ने आग में घी का काम किया है।
हुकूमत की नाआकबत अंदेशी और सीआरपीएफ व पुलिस को गोली चलाने की छूट देने का ही नतीजा है कि कश्मीर में हालात बद से बदतर होते हैं। जिस तरह से नौजवान, बच्चे, बूढ़े और औरतें गोलियों की परवा न करते हुए सड़क पर निकलकर पत्थर चला रहे हैं वह फिलिस्तीन के इंतफाजा की याद ताजा कर देता है। अब हालत यह हो गई है कि जम्मू-कश्मीर इंतजामिया उससे निपटने में खुद को मजबूर महसूस कर रही है। इस मसले पर वजीर-ए-आजम पिछले पन्द्रह दिन में दो बार मीटिंग बुला चुके हैं और तीसरी बार कुल जमाती (सर्वदलीय) मीटिंग बुलाने की तैयारी कर रहे हैं।
कश्मीर में आज जो हालात हैं उससे निपटने में जैसी हस्सासियत (संवेदनशीलता) और मैच्योरिटी (परिपक्वता) की जरूरत थी वह कभी नहीं दिखाई गई। पिछले महीने जब कश्मीर में ऐसे ही हालात थे तो उसके पीछे वजीर-ए-आला उमर अब्दुल्लाह को अलगाववादियों का हाथ दिख रहा था तो वजीर दाखिला पी.चिदम्बरम को लश्कर का। दूसरों पर इल्जाम थोपने से रियासती और मरकजी सरकार की जिम्मेदारियां कम नहीं हो जाती हैं। इस मामले में उमर अब्दुल्लाह सरकार की गलती से इंकार नहीं किया जा सकता। जब उमर अब्दुल्लाह ने रियासत की बागडोर संभाली तो हालात काफी हद तक उनके हक में थे। नौजवान होने की वजह से अवाम को उनसे खासी उम्मीदें थी मगर वह उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके। चुनाव से पहले लोगों से किए वादे पूरे नहीं किए यहां तक कि अभी तक पंचायत एलक्शन भी नहीं कराए जा सके हैं। इसके अलावा उनके मेम्बरान असम्बली के कामकाज को लेकर भी खासी शिकायतें अवाम को थी मगर उन पर ध्यान नहीं दिया गया। इसके बाद दूसरी गलती यह हुई कि जब उन तमाम बातों को लेकर मुखालिफत की आवाजें उभरी तो उन्हें सुनने के बजाए उन्हें ताकत के जोर पर दबाने की कोशिशें की गईं। शिद्दतपसंदों की सरगर्मियों से कश्मीरी अवाम बहुत परेशान थे उन्हें काफी कुछ गंवाना पड़ा। तालीम और रोजगार के मौके मुसलसल कम होते जा रहे हैं। इसीलिए वहां शिद्दत से अम्न की जरूरत महसूस हो रही थी। अगर उमर अब्दुल्लाह ने अवाम की बुनियादी जरूरतों को नजरअंदाज न किया होता और तरक्कियाती मंसूबों को ठोस तरीके से लागू किया होता तो आज ऐसे हालात न पैदा होते। उन्हें समझना चाहिए था कि अवाम के गुस्से को गोलियों से नहीं दबाया जा सकता। अब भी अगर उमर अब्दुल्लाह कश्मीरियों के जज्बात और दर्द को समझें तो मरकज से फौज और सियासी पैकेज मांगने के बजाए मआशी (आर्थिक) पैकेज मांगे, फौज के बजाए रियासत में तरक्कियाती कामों को बढ़ाएं। रोजगार और तालीम के मजीद मौके फराहम कराए तो अभी भी कश्मीर में लगी आग बुझ सकती हैं। समझदारी इसी में है कि उमर अब्दुल्लाह और कश्मीरी अवाम दोनों इस बात को समझें कि आग से आग नहीं बुझाई जाती है। तभी वादी में अम्न कायम हो सकता है।
श्रीनगर! कश्मीर जल रहा है, बच्चे, बूढ़े, औरतें सभी सड़क पर ऐसे बुरे हालात तो शायद दहशतगर्दी के शुरूआती दौर अट्ठासी से नव्वे तक भी नहीं थे। निहत्थे लोगों पर पुलिस और सीआरपीएफ की गोलियों का कोई असर नहीं हो रहा है। खबर लिखे जाने तक तीस लोग सीआरपीएफ की गोलियों का शिकार होकर मौत के मुंह में समा चुके थे जिनमें बेश्तर (अद्दिकांश) नौजवान और कम उम्र के बच्चे हैं। उमर अब्दुल्लाह दिल्ली गए, वजीर-ए-आजम मनमोहन सिंह, होम मिनिस्टर पी.चिदम्बरम और अपने मरकजी वजीर वालिद से मुलाकात करने के बाद उन्होंने कहा कि कश्मीर को सियासी पैकेज की जरूरत है। यह सियासी पैकेज क्या है इसकी वह कोई वजाहत नहीं कर सके। दिल्ली में बैठकर कश्मीर के खिलाफ साजिश करने वाले एक बार फिर सरगर्म हैं। कल तक जो लोग कश्मीरियों की तौहीन करते हुए यह अफवाहें उड़ा रहे थे कि पत्थरबाजी करने वाले नौजवानों को दो से पांच सौ रूपए रोज मिलते हैं अब बच्चे-बच्चे को सड़क पर देखकर वहीं ताकतें यह कहने लगी हैं कि ताजा सूरतेहाल के पीछे उन लोगों का हाथ है जो पहले दहशतगर्दी में शामिल थे और बाद में हथियार डालकर वापस अपने घरों को आ गए। श्रीनगर से दिल्ली तक कोई भी आम कश्मीरियों के जज्बात और दर्द समझने के लिए तैयार नहीं है, न ही कोई इस बात पर गौर कर रहा है कि आखिर पुलिस और पैरा मिलिट्री फोर्सेस की गोलियों की परवा किए बगैर बच्चे, बूढे और औरतें तक सड़कों पर कैसे निकल पड़ी? सरकार ने सूरतेहाल को ढंग से हैंडिल करने के बजाए देखते ही गोली मार देने का हुक्म देकर हालात को मजीद संगीन बना दिया।
मुख्तलिफ शहरों में जुलूस निकले पत्थरबाजी हुई, पुलिस और सीआरपीएफ की गोली से दर्जनों लोग मारे जा रहे हैं। इसके बावजूद कर्फ्यू तोड़कर सड़कों पर निकलने के लिए आम लोग बेताब ही दिखत रहे। इस सूरतेहाल पर गौर करने के लिए श्रीनगर और दिल्ली की सरकारें अपोजीशन में बैठे लोग और अपने मफाद में आम कश्मीरियों के खून से होली खेलने वाले हुर्रियत लीडरान किसी ने भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि ऐसा क्यों हो रहा है। खुद को अवामी नुमाइंदा कहने वाले लोग अपने बिलों में दुबके हुए हैं अवाम के बीच जाकर कोई शख्स न तो उनका दर्द बांटने की कोशिश कर रहा है और न ही उन्हें यह समझाया जा रहा है कि वह जो कुछ कर रहे हैं वह उनके और कश्मीरियत के मफाद में नहीं है। इसके आलवा कोई भी सियासतदां चाहे वह हुक्मरां जमात का हो यह अपोजीशन का इस बात पर सवाल नहीं उठा रहा है कि सड़क पर देखते ही कश्मीरियों को गोली मारने का हुक्म क्यों दिया गया और क्यों पुलिस व सीआरपीएफ के जवान फौरन गोली चला देते हैं। ऐसी कार्रवाई और हुक्म जम्मू के मामले में तब क्यों नही आया जब अमरनाथ श्राइन बोर्ड के बहाने पूरे जम्मू में जबरदस्त हंगामें किए गए थे और दवाओं व खाने के सामान के ट्रक तक शहर में दाखिल नहीं होने दिए गए थे। उन पर गोली क्यों नही चलाई गई, यह सवाल भी कश्मीरियों के दिलों में गुस्से की आग भड़का रहा।
जैसे-जैसे रियासती सरकार की सख्ती बढ़ रही है कश्मीर में हालात मजीद खराब होते जा रहे हैं। पुलिस और सीआरपीएफ की गोलियों की परवा किए बगैर भीड़ सड़क पर है। हंगामा कर रहे लोगों ने रेल की पटरियां उखाड़ दी जिससे ट्रेनों की आमद व रफ्त बंद कर दी गई है। कश्मीर के दस जिलों में खबर लिखने तक कर्फ्यू जारी था। इस बीच कट्टरपंथी हुर्रियत लीडर सैयद अली शाह गिलानी ने मुजाहिरीन से आगजनी न करने की अपील की और कहा कि पथराव, दफ्तरों, रेलवे स्टेशनों और गाड़ियों को आग लगाना कश्मीरी आंदोलन का हिस्सा नहीं है। अली शाह गिलानी ने पहली बार कश्मीर में जारी हिंसा (तशद्दुद) के खिलाफ आवाज उठाई है। रियासती सरकार के तर्जुमान का कहना था कि भीड़ ने कई दफ्तरों, इमारतों और गाड़ियों में आग लगा दी और तोड़फोड़ की मगर यह कोई नहीं बता रहा है कि पुलिस की गालियों का शिकार होकर कितने कम उम्र लड़के और नौजवान अपनी जान खो चुके हैं। सरकारी आंकड़ो के हिसाब से यह तादाद तीस है मगर असली तादाद इससे कहीं ज्यादा बताई जाती है।
कश्मीर पर इस बार भी हंगामों की वजह सिक्योरिटी फोर्सेस के जरिए गोली चलाकर दो नौजवानों को कत्ल करना बताया गया है। दरअस्ल अलगाववादियों के मुजाहिरे मार्च पर कुछ नौजवानों ने पत्थर फेंके तो लाठी डंडों से उन्हें रोकने के बजाए सिक्योरिटी फोर्सेस के जवानों ने सीधे गोली चला दी जिसमें दो नौजवानों की मौत हो गई और उसके बाद से हंगामों का सिलसिला शुरू हो गया। मगर कश्मीरियों के जज्बात और उनका दर्द समझने के बजाए उन पर गोलियां चलाई गई। जाहिर है आग से आग नहीं बुझाई जाती। इसी का नतीजा है कि आज वादी के हालात धमाकाखेज होते जा रहे हैं। श्रीनगर, बडनाथ, बांदीपुरा, अवंतीपुरा, पुलगाम और बारामुला समेत तमाम जिले शोरिश की जद में हैं। कर्फ्यू की खिलाफवर्जी करने वालों को देखते ही गोली मारने के हुक्म ने आग में घी का काम किया है।
हुकूमत की नाआकबत अंदेशी और सीआरपीएफ व पुलिस को गोली चलाने की छूट देने का ही नतीजा है कि कश्मीर में हालात बद से बदतर होते हैं। जिस तरह से नौजवान, बच्चे, बूढ़े और औरतें गोलियों की परवा न करते हुए सड़क पर निकलकर पत्थर चला रहे हैं वह फिलिस्तीन के इंतफाजा की याद ताजा कर देता है। अब हालत यह हो गई है कि जम्मू-कश्मीर इंतजामिया उससे निपटने में खुद को मजबूर महसूस कर रही है। इस मसले पर वजीर-ए-आजम पिछले पन्द्रह दिन में दो बार मीटिंग बुला चुके हैं और तीसरी बार कुल जमाती (सर्वदलीय) मीटिंग बुलाने की तैयारी कर रहे हैं।
कश्मीर में आज जो हालात हैं उससे निपटने में जैसी हस्सासियत (संवेदनशीलता) और मैच्योरिटी (परिपक्वता) की जरूरत थी वह कभी नहीं दिखाई गई। पिछले महीने जब कश्मीर में ऐसे ही हालात थे तो उसके पीछे वजीर-ए-आला उमर अब्दुल्लाह को अलगाववादियों का हाथ दिख रहा था तो वजीर दाखिला पी.चिदम्बरम को लश्कर का। दूसरों पर इल्जाम थोपने से रियासती और मरकजी सरकार की जिम्मेदारियां कम नहीं हो जाती हैं। इस मामले में उमर अब्दुल्लाह सरकार की गलती से इंकार नहीं किया जा सकता। जब उमर अब्दुल्लाह ने रियासत की बागडोर संभाली तो हालात काफी हद तक उनके हक में थे। नौजवान होने की वजह से अवाम को उनसे खासी उम्मीदें थी मगर वह उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके। चुनाव से पहले लोगों से किए वादे पूरे नहीं किए यहां तक कि अभी तक पंचायत एलक्शन भी नहीं कराए जा सके हैं। इसके अलावा उनके मेम्बरान असम्बली के कामकाज को लेकर भी खासी शिकायतें अवाम को थी मगर उन पर ध्यान नहीं दिया गया। इसके बाद दूसरी गलती यह हुई कि जब उन तमाम बातों को लेकर मुखालिफत की आवाजें उभरी तो उन्हें सुनने के बजाए उन्हें ताकत के जोर पर दबाने की कोशिशें की गईं। शिद्दतपसंदों की सरगर्मियों से कश्मीरी अवाम बहुत परेशान थे उन्हें काफी कुछ गंवाना पड़ा। तालीम और रोजगार के मौके मुसलसल कम होते जा रहे हैं। इसीलिए वहां शिद्दत से अम्न की जरूरत महसूस हो रही थी। अगर उमर अब्दुल्लाह ने अवाम की बुनियादी जरूरतों को नजरअंदाज न किया होता और तरक्कियाती मंसूबों को ठोस तरीके से लागू किया होता तो आज ऐसे हालात न पैदा होते। उन्हें समझना चाहिए था कि अवाम के गुस्से को गोलियों से नहीं दबाया जा सकता। अब भी अगर उमर अब्दुल्लाह कश्मीरियों के जज्बात और दर्द को समझें तो मरकज से फौज और सियासी पैकेज मांगने के बजाए मआशी (आर्थिक) पैकेज मांगे, फौज के बजाए रियासत में तरक्कियाती कामों को बढ़ाएं। रोजगार और तालीम के मजीद मौके फराहम कराए तो अभी भी कश्मीर में लगी आग बुझ सकती हैं। समझदारी इसी में है कि उमर अब्दुल्लाह और कश्मीरी अवाम दोनों इस बात को समझें कि आग से आग नहीं बुझाई जाती है। तभी वादी में अम्न कायम हो सकता है।