खबर के रूप में आया भ्रष्टाचार का भेड़िया
http://tehalkatodayindia.blogspot.com/2010/11/blog-post_5014.html
तहलका टुडे टीम
भारत और दुनिया के अन्य देशों के जनमीडिया में फैला भ्रष्टाचार उतना ही पुराना है जितना कि खुद मीडिया. यदि समाज में भ्रष्टाचार है तो यह उम्मीद करना बेकार है कि मीडिया उससे मुक्त होगा. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और देश में जीवन्त और विविध जन मीडिया लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है.
मीडिया की स्वतंत्रता हमें लोकतांत्रिक कायदों में बंधे रहने में मदद करती है. भारत के संविधान की धारा 19 देश के सभी नागरिकों और मीडिया को वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देती है. हाल के वर्षों में भारतीय मीडिया में फैला भ्रष्टाचार व्यक्तिगत पत्रकारों और कुछेक मीडिया संगठनों तक सीमित नहीं रह गया है. नकदी या सामान की एवज में सूचना और विचारों को प्लांट किया जा रहा है और अखबारों तथा टेलीवीजन चैनलों को विशेष व्यक्तियों, कारपोरेट घरानों, राजनैतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों और चुनावों में खड़े उम्मीदवारों के पक्ष में सूचना प्रकाशित करने के लिए फण्ड दिये जा रहे हैं. यह "खबर" के वेश में भ्रष्टाचार का भेडि़या है.
हम सब मानते हैं कि खबर को वस्तुपरक, स्वतंत्र और निष्पक्ष होनी चाहिए. यह चीजें सूचना और विचार को कारपोरेट घरानों, सरकारों, संगठनों या व्यक्तियों के भुगतानशुदा विज्ञापनों से अलग करती हैं. जब पैसे लेकर खबर के स्थान पर किसी राजनीतिक दल या राजनीतिज्ञ की खबरें प्रकाशित की जाती हैं तो भुगतानशुदा खबरों का स्वरूप और अधिक घृणित हो जाता है. 2009 के लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों से पहले देशभर के अखबारों में उम्मीदवारों सहित राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों के पक्ष में असंख्य समाचार और फीचर छपे हैं. इसी तरह की खबरें टेलीवीजन चैनलों पर भी प्रसारित हुई है. लेकिन इस सच्चाई को कभी सामने नहीं लाया गया कि इन खबरों के प्रकाशन और प्रसारण से पहले संबंधित उम्मीदवार या उसकी पार्टी और विशेष मीडिया संगठनों के मालिकों या प्रतिनिधियों के बीच पैसे का लेन देने हुआ है.
उम्मीदवारों ने भी चुनाव आयोग के सामने अपने वास्तविक खर्चों का विवरण नहीं दिया. अगर वे अपना वास्तविक खर्च जाहिर करते तो पता चलता कि उन्होंने चुनाव आचार अधिनियम 1961 का उल्लंघन किया है या नहीं? चुनाव आचार कानून भारत का निर्वाचन आयोग जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के अंतर्गत लागू है. लेकिन अखबारों और टीवी चैनलों ने भी कम चालाकी नहीं दिखाई. उन्होंने नकद में पैसे लिए. यह पैसा उनकी कंपनी की आधिकारिक बैंलेस शीट पर नहीं गया. यह कदाचार व्यापक है. और अब देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित विभिन्न भाषाओं के छोटे बड़े अखबारों और टेलीवीजन चैनलों में फैल गया है. इस रिपोर्ट में दी गयी मिसालें इसका सबूत है. इससे भी बदतर बात यह है कि ये गैरकानूनी 'आपरेशन' मीडिया कंपनियों, पत्रकारों और पीआर कंपनियों द्वारा मिलकर अंजाम दिये जा रहे हैं. मार्केटिंग अधिकारी राजनैतिक हस्तियों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए जाने अनजाने पत्रकारों की सेवाएं लेते हैं. इन राजनैतिक नेताओं के बीच कथित रेट कार्ड या पैकेज पत्र बांटे जाते हैं जिनमें प्राय: विशेष उम्मीदवारों की प्रशंसात्मक और उस राजनीतिज्ञ के विरोधियों की आलोचात्मक खबरों को प्रकाशित करने की कीमत लिखी होती है. जो राजनीतिज्ञ मीडिया की इस रंगदारी के सामने नहीं झुकते हैं उनकी खबरों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है.
भारतीय मीडिया के कुछ तबके इस तरह के कदाचार में जानबूझकर भागीदार या खिलाड़ी बन गये हैं. दरअसल इस तरह का कदाचार लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नियमों को कमजोर करनेवाली राजनीति में धन बल के बढ़ते इस्तेमाल को प्रोत्साहित करता है. साथ ही मीडिया संगठनों के जिन प्रतिनिधियों के खिलाफ इस तरह के आरोप लगते हैं, वे भुगतानशुदा खबरों के चलन की सार्वजनिक रूप से निंदा करते हैं. ऐसे पाखण्डी नैतिकता की दुहाई सबसे अधिक देते हैं. खबरों के इस भ्रष्टाचार का भेड़िया बहुत गुप्त रूप से अपने काम को अंजाम देता है इसलिए इसके ठोस निशान पाना आसान नहीं है. और बिना ठोस सबूत के किसी व्यक्ति संगठन को वैधानिक रूप से दोषी करार नहीं दिया जा सकता.
इसलिए इस बात का प्रचार प्रसार किये जाने की जरूरत है कि भुगतानशुदा खबरें मीडिया की साख और स्वतंत्रता के लिए खतरनाक है.
(प्रेस काउंसिल आफ इंडिया द्वारा पेड न्यूज की जांच के लिए गठित दो सदस्यीय समिति की रिपोर्ट का हिस्सा जो प्रेस काउंसिल ने सार्वजनिक नहीं किया. वह रिपोर्ट अब "काली खबरों की कहानी" के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित की गयी है. इसी पुस्तक में प्रकाशित रिपोर्ट का एक अंश
भारत और दुनिया के अन्य देशों के जनमीडिया में फैला भ्रष्टाचार उतना ही पुराना है जितना कि खुद मीडिया. यदि समाज में भ्रष्टाचार है तो यह उम्मीद करना बेकार है कि मीडिया उससे मुक्त होगा. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और देश में जीवन्त और विविध जन मीडिया लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है.
मीडिया की स्वतंत्रता हमें लोकतांत्रिक कायदों में बंधे रहने में मदद करती है. भारत के संविधान की धारा 19 देश के सभी नागरिकों और मीडिया को वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देती है. हाल के वर्षों में भारतीय मीडिया में फैला भ्रष्टाचार व्यक्तिगत पत्रकारों और कुछेक मीडिया संगठनों तक सीमित नहीं रह गया है. नकदी या सामान की एवज में सूचना और विचारों को प्लांट किया जा रहा है और अखबारों तथा टेलीवीजन चैनलों को विशेष व्यक्तियों, कारपोरेट घरानों, राजनैतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों और चुनावों में खड़े उम्मीदवारों के पक्ष में सूचना प्रकाशित करने के लिए फण्ड दिये जा रहे हैं. यह "खबर" के वेश में भ्रष्टाचार का भेडि़या है.
हम सब मानते हैं कि खबर को वस्तुपरक, स्वतंत्र और निष्पक्ष होनी चाहिए. यह चीजें सूचना और विचार को कारपोरेट घरानों, सरकारों, संगठनों या व्यक्तियों के भुगतानशुदा विज्ञापनों से अलग करती हैं. जब पैसे लेकर खबर के स्थान पर किसी राजनीतिक दल या राजनीतिज्ञ की खबरें प्रकाशित की जाती हैं तो भुगतानशुदा खबरों का स्वरूप और अधिक घृणित हो जाता है. 2009 के लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों से पहले देशभर के अखबारों में उम्मीदवारों सहित राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों के पक्ष में असंख्य समाचार और फीचर छपे हैं. इसी तरह की खबरें टेलीवीजन चैनलों पर भी प्रसारित हुई है. लेकिन इस सच्चाई को कभी सामने नहीं लाया गया कि इन खबरों के प्रकाशन और प्रसारण से पहले संबंधित उम्मीदवार या उसकी पार्टी और विशेष मीडिया संगठनों के मालिकों या प्रतिनिधियों के बीच पैसे का लेन देने हुआ है.
उम्मीदवारों ने भी चुनाव आयोग के सामने अपने वास्तविक खर्चों का विवरण नहीं दिया. अगर वे अपना वास्तविक खर्च जाहिर करते तो पता चलता कि उन्होंने चुनाव आचार अधिनियम 1961 का उल्लंघन किया है या नहीं? चुनाव आचार कानून भारत का निर्वाचन आयोग जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के अंतर्गत लागू है. लेकिन अखबारों और टीवी चैनलों ने भी कम चालाकी नहीं दिखाई. उन्होंने नकद में पैसे लिए. यह पैसा उनकी कंपनी की आधिकारिक बैंलेस शीट पर नहीं गया. यह कदाचार व्यापक है. और अब देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित विभिन्न भाषाओं के छोटे बड़े अखबारों और टेलीवीजन चैनलों में फैल गया है. इस रिपोर्ट में दी गयी मिसालें इसका सबूत है. इससे भी बदतर बात यह है कि ये गैरकानूनी 'आपरेशन' मीडिया कंपनियों, पत्रकारों और पीआर कंपनियों द्वारा मिलकर अंजाम दिये जा रहे हैं. मार्केटिंग अधिकारी राजनैतिक हस्तियों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए जाने अनजाने पत्रकारों की सेवाएं लेते हैं. इन राजनैतिक नेताओं के बीच कथित रेट कार्ड या पैकेज पत्र बांटे जाते हैं जिनमें प्राय: विशेष उम्मीदवारों की प्रशंसात्मक और उस राजनीतिज्ञ के विरोधियों की आलोचात्मक खबरों को प्रकाशित करने की कीमत लिखी होती है. जो राजनीतिज्ञ मीडिया की इस रंगदारी के सामने नहीं झुकते हैं उनकी खबरों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है.
भारतीय मीडिया के कुछ तबके इस तरह के कदाचार में जानबूझकर भागीदार या खिलाड़ी बन गये हैं. दरअसल इस तरह का कदाचार लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नियमों को कमजोर करनेवाली राजनीति में धन बल के बढ़ते इस्तेमाल को प्रोत्साहित करता है. साथ ही मीडिया संगठनों के जिन प्रतिनिधियों के खिलाफ इस तरह के आरोप लगते हैं, वे भुगतानशुदा खबरों के चलन की सार्वजनिक रूप से निंदा करते हैं. ऐसे पाखण्डी नैतिकता की दुहाई सबसे अधिक देते हैं. खबरों के इस भ्रष्टाचार का भेड़िया बहुत गुप्त रूप से अपने काम को अंजाम देता है इसलिए इसके ठोस निशान पाना आसान नहीं है. और बिना ठोस सबूत के किसी व्यक्ति संगठन को वैधानिक रूप से दोषी करार नहीं दिया जा सकता.
इसलिए इस बात का प्रचार प्रसार किये जाने की जरूरत है कि भुगतानशुदा खबरें मीडिया की साख और स्वतंत्रता के लिए खतरनाक है.
(प्रेस काउंसिल आफ इंडिया द्वारा पेड न्यूज की जांच के लिए गठित दो सदस्यीय समिति की रिपोर्ट का हिस्सा जो प्रेस काउंसिल ने सार्वजनिक नहीं किया. वह रिपोर्ट अब "काली खबरों की कहानी" के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित की गयी है. इसी पुस्तक में प्रकाशित रिपोर्ट का एक अंश