यूपी तक ही सिमटा नहीं है जमीन का बखेड़ा
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नई दिल्ली : |
उत्तर प्रदेश में किसानों ने यमुना एक्सप्रेसवे के लिए जमीन अधिग्रहण को लेकर जो आंदोलन किया वह कई ऐसे पेचीदा जमीन अधिग्रहणों में से एक उदाहरण भर है। दरअसल कई ऐसे राज्य हैं जहां किसानों की जमीन के अधिग्रहण का मामला उलझा हुआ है जिस पर अब तक कोई हल नहीं निकल सका है।
अगर अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां कम से कम 6 जिलों जिनमें अलीगढ़, मथुरा, आगरा, बुलंदशहर और महामाया नगर शामिल है, में 1200 अधिसूचित गांवों में 1550 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जाना है।
भारतीय किसान संघ के राकेश टिकैत कहते हैं कि फिलहाल जो विवाद है वह इस बात को लेकर है कि जमीन के बदले किसानों को प्रति वर्ग मीटर 500 रुपये का मुआवजा दिया जाए या फिर 700 रुपये प्रति वर्ग मीटर जैसा कि ग्रेटर नोएडा में जमीन अधिग्रहण के दौरान दिया गया था।
मगर टिकैत को लगता है कि जमीन अधिग्रहण के लिए हरियाणा ने जो मॉडल अपनाया है उससे मिलता जुलता मॉडल अपनाकर ही इस समस्या का स्थाई हल ढूंढ़ा जा सकता है। हरियाणा में जमीन मालिकों को जमीन के एवज में मुआवजा तो दिया ही गया था साथ ही उन्हें प्रति एकड़ 15000 सालाना भत्ता और हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी दी गई।
टिकैत इस हफ्ते उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के सामने भी यह प्रस्ताव रखने वाले हैं। भले ही टिकैत हरियाणा के मॉडल को आदर्श मान रहे हों मगर खुद इस राज्य में भी इस मॉडल को अपनाकर सरकार, कृषि जमीन मालिकों और निजी कंपनियों के बीच विवाद को खत्म नहीं किया जा सका है।
हरियाणा के सोनीपत जिले के खारखोटा में राज्य सरकार ने सेज लगाने के लिए 3000 एकड़ कृषि जमीन के अधिग्रहण की अधिसूचना जारी की थी। मगर किसानों ने इस फैसले का विरोध करना शुरू कर दिया। साल 2006 में पास के राय ब्लॉक में सरकार ने राजीव गांधी एजुकेशन सिटी बनाने के लिए 1,948 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था और यह मामला फिलहाल उच्चतम अदालत में लंबित है।
यहां किसानों को मुआवजे के तौर पर प्रति एकड़ 12.5 लाख रुपये दिये गये थे और साथ ही 35 सालों तक प्रति एकड़ 15000 रुपये भत्ते के तौर पर देने की घोषणा भी की गई थी। मगर यहां किसानों का विरोध इस बात को लेकर था कि बाद में सरकार ने इस जमीन को निजी कंपनियों को प्रति एकड़ 2.5 करोड़ रुपये तक में बेचा था। दरअसल किसानों को इन जमीनों के संपूर्ण वाणिज्यिक इस्तेमाल पर ऐतराज है।
कुछ ऐसा ही मामला गुजरात का भी है। यहां भी किसान कृषि जमीन के अधिग्रहण से खुश नहीं हैं। कच्छ की माचिमार अधिकार संघर्ष समिति का कहना है कि राज्य सरकार ने मुंद्रा सेज के लिए जमीन प्रति वर्ग मीटर 2 से 10 रुपये पर बेचीं। बाद में सेज ने सरकारी कंपनियों को यही जमीन प्रति वर्ग मीटर 1500 रुपये की दर से बेची हैं।
उड़ीसा के जगतसिंहपुर जिले में कोरियाई कंपनी पोस्को ने स्टील इकाई लगाने के लिए जमीन अधिग्रहण किया था। यहां भी स्थानीय लोगों और कंपनी के बीच काफी विवाद देखने को मिला। हाल ही में कंपनी ने प्रभावितों को बेहतर पैकेज की घोषणा की है जिसमें मकान और नौकरी भी शामिल है।
मगर लोगों ने इसे भी ठुकरा दिया। पोस्को प्रतिरोध संघर्ष समिति का कहना है कि यहां कि कृषि जमीन का इस्तेमाल किसी दूसरे उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता है। हालांकि केरल सरकार ने इस तरह के विवादों को विराम देने के लिए कृषि जमीन के अधिग्रहण पर रोक लगा दी है। कई सामाजिक कार्यकर्ता इसे ही जमीन अधिग्रहण से जुड़े विवाद निपटाने का कारगर तरीका मान रहे हैं।
अगर अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां कम से कम 6 जिलों जिनमें अलीगढ़, मथुरा, आगरा, बुलंदशहर और महामाया नगर शामिल है, में 1200 अधिसूचित गांवों में 1550 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जाना है।
भारतीय किसान संघ के राकेश टिकैत कहते हैं कि फिलहाल जो विवाद है वह इस बात को लेकर है कि जमीन के बदले किसानों को प्रति वर्ग मीटर 500 रुपये का मुआवजा दिया जाए या फिर 700 रुपये प्रति वर्ग मीटर जैसा कि ग्रेटर नोएडा में जमीन अधिग्रहण के दौरान दिया गया था।
मगर टिकैत को लगता है कि जमीन अधिग्रहण के लिए हरियाणा ने जो मॉडल अपनाया है उससे मिलता जुलता मॉडल अपनाकर ही इस समस्या का स्थाई हल ढूंढ़ा जा सकता है। हरियाणा में जमीन मालिकों को जमीन के एवज में मुआवजा तो दिया ही गया था साथ ही उन्हें प्रति एकड़ 15000 सालाना भत्ता और हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी दी गई।
टिकैत इस हफ्ते उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के सामने भी यह प्रस्ताव रखने वाले हैं। भले ही टिकैत हरियाणा के मॉडल को आदर्श मान रहे हों मगर खुद इस राज्य में भी इस मॉडल को अपनाकर सरकार, कृषि जमीन मालिकों और निजी कंपनियों के बीच विवाद को खत्म नहीं किया जा सका है।
हरियाणा के सोनीपत जिले के खारखोटा में राज्य सरकार ने सेज लगाने के लिए 3000 एकड़ कृषि जमीन के अधिग्रहण की अधिसूचना जारी की थी। मगर किसानों ने इस फैसले का विरोध करना शुरू कर दिया। साल 2006 में पास के राय ब्लॉक में सरकार ने राजीव गांधी एजुकेशन सिटी बनाने के लिए 1,948 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था और यह मामला फिलहाल उच्चतम अदालत में लंबित है।
यहां किसानों को मुआवजे के तौर पर प्रति एकड़ 12.5 लाख रुपये दिये गये थे और साथ ही 35 सालों तक प्रति एकड़ 15000 रुपये भत्ते के तौर पर देने की घोषणा भी की गई थी। मगर यहां किसानों का विरोध इस बात को लेकर था कि बाद में सरकार ने इस जमीन को निजी कंपनियों को प्रति एकड़ 2.5 करोड़ रुपये तक में बेचा था। दरअसल किसानों को इन जमीनों के संपूर्ण वाणिज्यिक इस्तेमाल पर ऐतराज है।
कुछ ऐसा ही मामला गुजरात का भी है। यहां भी किसान कृषि जमीन के अधिग्रहण से खुश नहीं हैं। कच्छ की माचिमार अधिकार संघर्ष समिति का कहना है कि राज्य सरकार ने मुंद्रा सेज के लिए जमीन प्रति वर्ग मीटर 2 से 10 रुपये पर बेचीं। बाद में सेज ने सरकारी कंपनियों को यही जमीन प्रति वर्ग मीटर 1500 रुपये की दर से बेची हैं।
उड़ीसा के जगतसिंहपुर जिले में कोरियाई कंपनी पोस्को ने स्टील इकाई लगाने के लिए जमीन अधिग्रहण किया था। यहां भी स्थानीय लोगों और कंपनी के बीच काफी विवाद देखने को मिला। हाल ही में कंपनी ने प्रभावितों को बेहतर पैकेज की घोषणा की है जिसमें मकान और नौकरी भी शामिल है।
मगर लोगों ने इसे भी ठुकरा दिया। पोस्को प्रतिरोध संघर्ष समिति का कहना है कि यहां कि कृषि जमीन का इस्तेमाल किसी दूसरे उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता है। हालांकि केरल सरकार ने इस तरह के विवादों को विराम देने के लिए कृषि जमीन के अधिग्रहण पर रोक लगा दी है। कई सामाजिक कार्यकर्ता इसे ही जमीन अधिग्रहण से जुड़े विवाद निपटाने का कारगर तरीका मान रहे हैं।