हर-हर मोदी का मतलब?
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संघ-बीजेपी कर
रही है- 'हर-हर मोदी। क्या मतलब है - हर-हर मोदी का? क्या यह
हिंदू-राष्ट्र का उद्घोष है? यदि हां, तो हर चुनाव के बाद हिंदू-राष्ट्र का
उद्घोष क्यों बदलता है? क्या मतलब है - 'जय श्री राम के बाद 'हर-हर मोदी
का? क्या इसका मतलब
निकाला जाय? पहले इस प्रकार के नारे को इतना बुलंद किया जाए कि विवाद पैदा
हो जाए। जब विवाद पैदा होने लगे, तो इसे रोकने का स्वांग रचा जाए। हो सकता
है - यह नारा 'जय श्री राम की तरह बंद भी हो जाए। मगर जो निष्ठा से युक्त
नारा गढ़ा गया, लगाया गया और संपूर्ण देश में फैलाया गया, उसके मतलब और
मकसद तो समझ में देशवासियों को आना चाहिए। देश को 'जय श्री राम का नारा और
निष्ठा का मतलब समझ में आ चुका है। अब इस नए नारे और नए नजारे को समझने की
जरूरत है।
संघ का बीजेपीकरण और बीजेपी का मोदीकरण पूर्णत: हो चुका है। आडवाणी युग का सूरज डूब चुका है। जसवंत सिंह, हिरेन पाठक, लालजी टंडन, लालमुनि चौबे, जैसे आडवाणी कैंप के समर्थकों के टिकट काटे जा चुके हैं। सुषमा स्वराज दुखी हैं। मुरली मनोहर जोशी और कलराज मिश्र का तबादला किया गया। तबादला किया गया या यों कहें कि पुराने फर्नीचरों को इधर से उधर करके अजस्ट किया गया। अजस्टमेंट की इस सूची से जसवंत सिंह बाहर हो गए और मीडिया के सामने अपने आंसू रोक नहीं सके। आखिर इनलोगों के लिए क्यों आंसू भरी हो गर्इ बीजेपी की राहें ... ? किसी जमाने में कल्याण सिंह, उमा भारती आदि पिछड़े वर्ग के नेताओं के लिए आंसू भरी थी बीजेपी की राहें...। उस जमाने में फॉरवर्ड की पार्टी थी- बीजेपी। अब बीजेपी का मोदीकरण के साथ मंडलीकरण हो गया है। जाहिर है कि मंडल-कमंडल की राजनीति पर मंडल पहले भी भारी पड़ा था। मगर ऐसा किसी ने नहीं सोचा था कि कमंडल का ही मंडलीकरण हो जाएगा।
सत्ता के लिए देश की राजनीति का कमंडलीकरण हुआ। सत्ता के लिए ही देश की राजनीति का मंडलीकरण हुआ। सत्ता के लिए ही बहन मायावती बसपा का कमंडलीकरण करती हैं और अधिक से अधिक ब्राह्मण उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारती हैं। मुलायम भी मंडल का कमंडलीकरण करते हैं और सत्ता सुख प्राप्त करते हैं। देश की राजनीति इन्हीं तंग गलियों में उलझ-पुलझ गर्इ है। कुल मिलाकर देखा जाए तो देश की राजनीति मुंबइया फिल्मी फॉर्म्युले पर ही हिट और सुपरहिट होती है। मारधाड़ से भरपूर। जात-धरम। हम लाख गाएं - 'ये जात-धरम के झगड़े इंसान की है नादानी। मजे की बात यह है कि इसी नादानी से देश की राजनीति चलती है। पता नहीं, देश की कौन-सी राजनीति पार्टी किसी अंबानी और अदानी की दुकान नहीं है ? वोट जनता का है, लाभ कॉरपोरेट का। देश की इस प्रकार की राजनीति का फायदा कौन उठाता है। बेचारी जनता तो लूजर है। गेनर लीडर, मिनिस्टर, अफसर और कॉरपोरेट घरानेवाले हैं। सत्ता में सभी दलों की किसी-न-किसी रूप में हिस्सेदारी होती है। मगर देश के किसान, मजदूर, नौजवान और आम आदमी को क्या मिलता है? न बुनियादी सुविधा, न सुरक्षा, न आजीविका, न सही शिक्षा, न न्याय। यह कैसा लोकतंत्र है? या यों कहें कि हमारे रहनुमाओं ने लोकतंत्र को कैसा बना डाला। मार डाला। क्या हम मरने के वास्ते वोट डालते हैं ? किताबों में पढ़ते हैं - बेहतर जीवन के लिए वोट डालते हैं। वोट देकर जीवन बेहतर कहां होता है? जीवन की समस्या कहां सुलझती है? जीवन के संकट का समाधान कहां होता है ? किनके घोषणापत्र में है - इन सवालों का जवाब ? कौन करता है - सत्ता में आने के बाद घोषणापत्र को लागू? वोट डालने से पहले जरा इन सवालों पर विचार कीजिए। वोट मांगनेवालों से जरा पूछिए।
संघ का बीजेपीकरण और बीजेपी का मोदीकरण पूर्णत: हो चुका है। आडवाणी युग का सूरज डूब चुका है। जसवंत सिंह, हिरेन पाठक, लालजी टंडन, लालमुनि चौबे, जैसे आडवाणी कैंप के समर्थकों के टिकट काटे जा चुके हैं। सुषमा स्वराज दुखी हैं। मुरली मनोहर जोशी और कलराज मिश्र का तबादला किया गया। तबादला किया गया या यों कहें कि पुराने फर्नीचरों को इधर से उधर करके अजस्ट किया गया। अजस्टमेंट की इस सूची से जसवंत सिंह बाहर हो गए और मीडिया के सामने अपने आंसू रोक नहीं सके। आखिर इनलोगों के लिए क्यों आंसू भरी हो गर्इ बीजेपी की राहें ... ? किसी जमाने में कल्याण सिंह, उमा भारती आदि पिछड़े वर्ग के नेताओं के लिए आंसू भरी थी बीजेपी की राहें...। उस जमाने में फॉरवर्ड की पार्टी थी- बीजेपी। अब बीजेपी का मोदीकरण के साथ मंडलीकरण हो गया है। जाहिर है कि मंडल-कमंडल की राजनीति पर मंडल पहले भी भारी पड़ा था। मगर ऐसा किसी ने नहीं सोचा था कि कमंडल का ही मंडलीकरण हो जाएगा।
सत्ता के लिए देश की राजनीति का कमंडलीकरण हुआ। सत्ता के लिए ही देश की राजनीति का मंडलीकरण हुआ। सत्ता के लिए ही बहन मायावती बसपा का कमंडलीकरण करती हैं और अधिक से अधिक ब्राह्मण उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारती हैं। मुलायम भी मंडल का कमंडलीकरण करते हैं और सत्ता सुख प्राप्त करते हैं। देश की राजनीति इन्हीं तंग गलियों में उलझ-पुलझ गर्इ है। कुल मिलाकर देखा जाए तो देश की राजनीति मुंबइया फिल्मी फॉर्म्युले पर ही हिट और सुपरहिट होती है। मारधाड़ से भरपूर। जात-धरम। हम लाख गाएं - 'ये जात-धरम के झगड़े इंसान की है नादानी। मजे की बात यह है कि इसी नादानी से देश की राजनीति चलती है। पता नहीं, देश की कौन-सी राजनीति पार्टी किसी अंबानी और अदानी की दुकान नहीं है ? वोट जनता का है, लाभ कॉरपोरेट का। देश की इस प्रकार की राजनीति का फायदा कौन उठाता है। बेचारी जनता तो लूजर है। गेनर लीडर, मिनिस्टर, अफसर और कॉरपोरेट घरानेवाले हैं। सत्ता में सभी दलों की किसी-न-किसी रूप में हिस्सेदारी होती है। मगर देश के किसान, मजदूर, नौजवान और आम आदमी को क्या मिलता है? न बुनियादी सुविधा, न सुरक्षा, न आजीविका, न सही शिक्षा, न न्याय। यह कैसा लोकतंत्र है? या यों कहें कि हमारे रहनुमाओं ने लोकतंत्र को कैसा बना डाला। मार डाला। क्या हम मरने के वास्ते वोट डालते हैं ? किताबों में पढ़ते हैं - बेहतर जीवन के लिए वोट डालते हैं। वोट देकर जीवन बेहतर कहां होता है? जीवन की समस्या कहां सुलझती है? जीवन के संकट का समाधान कहां होता है ? किनके घोषणापत्र में है - इन सवालों का जवाब ? कौन करता है - सत्ता में आने के बाद घोषणापत्र को लागू? वोट डालने से पहले जरा इन सवालों पर विचार कीजिए। वोट मांगनेवालों से जरा पूछिए।
क्या आपकी समस्या का समाधान कमंडल से निकलेगा? निकला है क्या? क्या आपका संकट मंडल से दूर होगा क्या? दूर हुआ है क्या? देश की हर पार्टी कभी कमंडल लगता है, कभी वो मंडल लगता है। देश की जनता को कभी कमंडल भरमाता है। कभी मंडल भरमाता है। बेचारी जनता भ्रमजाल में फंस जाती है। तब यही मुख से निकलता है -
बेबस जनता करे पुकार
बनेगी कैसे मेरी सरकार
जात-धर्म, धन, बाहुबल का
है सर्वत्र स्वागत-सत्कार
बनेगी कैसे मेरी सरकार
जात-धर्म, धन, बाहुबल का
है सर्वत्र स्वागत-सत्कार