आरएसएस, मोदी, राजनाथ, जेटली...ये सब भाजपा की कब्र खोद रहे हैं
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न्यूटन का सिद्धांत
हमेशा न्यूटन से बड़ा रहा। यही सिद्धांत आइन्स्टीन के लॉ पर लागू है। लेकिन
व्यक्ति, अगर खुद को संस्था या सिद्धांत से बड़ा करने की जुगत में हो तो
संस्था या सिद्धांत, ताक़त की बजाय औपचारिक उपस्थिति का आभास कराती है। आज
भाजपा कैम्पेन नहीं बल्कि नमो-कैम्पेन चल रहा है पर इसका कारण भाजपा की
सामूहिक एकजुटता नहीं, बल्कि मीडिया कनेक्शन है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक
संघ(आरएसएस) का वरदहस्त है। आरएसएस के दुलारे नरेंद्र मोदी वर्तमान में
भाजपा को राजनीतिक ताक़त का प्रतीक भले ही बनाते दिख रहे हों मगर भविष्य के
मद्देनज़र इस पार्टी की कब्र खोदते जा रहे हैं।
आरएसएस में प्रखर राष्ट्रवाद के साथ-साथ हिन्दू दर्शन शास्त्र का भी पाठ पढ़ाया जाता है। बड़े-छोटो का लिहाज़ और सार्वजनिक तौर पर वरिष्ठों का सम्मान। मगर अब? नरेंद्र मोदी, आरएसएस की छात्र-छाया में, सब तहस-नहस कर डालने पर आमादा हैं। राजनाथ और अरूण जेटली जैसे लोगों को भी आरएसएस की शह हासिल है लिहाज़ा पार्टी के सहयोगियों और निर्माताओं को मात देने की खेल चालू आहे। मामला चाहे प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का हो या भाजपा के शिल्पकारों की उपेक्षा का या फिर मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विकास की बजाय गुजरात के विकास और इस विकास के अगुआ मोदी को बहु-प्रचारित करने का हो या फिर लोकसभा टिकट बंटवारे में पार्टी के भीष्म-पितामह लालकृष्ण आडवाणी को नज़र-अंदाज़ करने का हो। हर जगह मोदी अकेले ही भारी पड़ते नज़र आ रहे हैं।
आरएसएस को कोई आपत्ति नहीं है। पार्टी के अंदर कई ग्रुप बन चुके हैं, जहां व्यक्तिगत महत्तवाकांक्षा चरम पर है। चुनाव और सत्ता का लोभ ही वर्चुअल एकजुटता दिखा पा रहा है। आरएसएस ये सब अपनी आँखों से देख-सुन रहा है मगर खामोश है। मोदी के निजी राजनीतिक व्यक्तित्व को संवारने का काम ज़ोरो पर है। मोदी के नेतृत्व में राजनाथ सिंह और अरुण जेटली, मोदी के साथ मिलकर भाजपा की कब्र खोद रहे हैं। इस खुदाई में सिद्धांतों की जमकर हजामत की जा रही है, पर सत्ता सुख की चाह में आरएसएस हर "समझौते" को राजी है। "पार्टी विथ डिफरेंस" गया भाड़ में। क्या येदिरुप्पा क्या पासवान। सबका स्वागत है। 272 का आंकड़ां जुटाना है। चाहे जो करना पड़े।
"दक्षिणा" भरोसे पार्टी का मीडिया विंग, मोदी को खुदा और दूसरे नेताओं को इबादत करने वाला बन्दा बनाने पर तुला है, आरएसएस खुश है। मोदी की टीम सिर्फ मोदी को प्रचारित कर रही है, भाजपा को नहीं मगर आरएसएस को ज़रा भी ऐतराज़ नहीं और एहसास भी नहीं कि लोकतांत्रिक ढाँचे के सांचे को इस जुगत से ज़्यादा समय तक नहीं ढाला जा सकता। गुजरात की ताक़तवर बिज़नेस लॉबी, भाजपा की बजाय मोदी के प्रति "श्रद्धा" ज़्यादा रखती है। ज़्यादातर उद्योगपतियों ने पार्टी को मोटा पैसा, सिर्फ मोदी के भरोसे न्योछावर किया है, भाजपा को नहीं। आश्चर्य की बात ये है कि खुद मोदी, पार्टी को प्रचारित करने की बजाय, खुद को प्रमोट ज़्यादा कर रहे हैं। आरएसएस से कुछ नहीं छिपा, पर सत्ता का लोभ उसके अपने सिद्धांतों पर भारी पड़ रहा है। अब अगर आरएसएस ने सिद्धांतों की बात की तो "चोरी ऊपर से सीनाजोरी" कहने वालों की कमी नहीं होगी।
अटल बिहारी वाजपेयी भी पार्टी से बड़े दिखते थे, पर उनका व्यक्तित्व क्रोनी कैप्टिलिज़म के प्रतीक उद्योगपतियों के दान या "दक्षिणा" प्राप्त मीडिया द्वारा नहीं उभारा गया था और न ही वाजपेयी ने आरएसएस के तथा-कथित सिद्धांतों का खुलेआम माखौल उड़ाया था। वाजपेयी ने 5 दशक मुल्क़ की खाक़ छानने के बाद ये रूतबा पाया था। सबसे बड़ा अंतर ये कि वाजपेयी को आरएसएस के साथ-साथ, पार्टी के अंदर और बाहर चाहने वाले, मीडिया के ज़रिये नहीं बल्कि स्व-प्रेरित थे। आज मोदी, आरएसएस के भले ही प्रिय-पात्र हों मगर उनकी अपनी पार्टी, भाजपा, में उनको नापसंद करने वाले बहुत हैं, विरोधियों की संख्या तो पूछिए मत।
आरएसएस की ज़बरदस्त दखलंदाज़ी भरे सहयोग और उद्योगपतियों के चंदे से, मोदी ने मीडिया को "खुश" करके अपने व्यक्तिगत राजनीतिक अस्तित्व को बहुत कम समय में बहुत ऊपर कर लिया और पार्टी को नीचे राम-भरोसे छोड़ दिया है। आरएसएस भी बीजेपी को मोदी का वारिस बना कर राजनीतिक तौर पर लावारिस बनाने पर तुला है। आज लोग मोदी को वोट देने में ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं, बनिस्पत भाजपा के। यानि मोदी नहीं तो भाजपा हार जायेगी। आरएसएस को इस से कोई परहेज नहीं। आज चाहे उद्योग-घराना हो या "दक्षिणा" प्राप्त मीडिया के मनोवैज्ञानिक प्रहार से प्रभावित मोदी-प्रेमी आम जनमानस, नमो-नमो हर जगह है।
भाजपा का अंदरूनी ढांचा भले ही आह-आह कर रहा हो मगर आरएसएस मोदी की इस जुगलबंदी पर वाह-वाह कर रहा है। इस सर्व-व्यापी प्रचार से पार्टी के अंदर कई विरोधी तैयार हो चुके हैं जो वक़्त के इंतज़ार में हैं। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब व्यक्ति, पार्टी या बहु-प्रचारित सिद्धांत से बड़ा दिखने की कोशिश करता है या उसे दिखाने की कोशिश होती है और सहयोगियों के अस्तित्व को बौना बनाने का वातावरण पैदा किया जाता है तो लोकतंत्र की बुनियाद खिसकती-खिसकती तानाशाही की ओर बढ़ जाती है। आरएसएस और मोदी व् उनके मित्रों(राजनाथ-जेटली) को इससे बाज आना चाहिए, वर्ना भविष्य में कमज़ोर और टूटी हुई भाजपा की महज़ औपचारिक राजनीतिक उपस्थिति, कांग्रेस का पुराना रूतबा क़ायम कर देगी और जनता बुद्धू की तरह लौट कर फिर कॉंग्रेस के घर में चली जायेगी।
आरएसएस में प्रखर राष्ट्रवाद के साथ-साथ हिन्दू दर्शन शास्त्र का भी पाठ पढ़ाया जाता है। बड़े-छोटो का लिहाज़ और सार्वजनिक तौर पर वरिष्ठों का सम्मान। मगर अब? नरेंद्र मोदी, आरएसएस की छात्र-छाया में, सब तहस-नहस कर डालने पर आमादा हैं। राजनाथ और अरूण जेटली जैसे लोगों को भी आरएसएस की शह हासिल है लिहाज़ा पार्टी के सहयोगियों और निर्माताओं को मात देने की खेल चालू आहे। मामला चाहे प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का हो या भाजपा के शिल्पकारों की उपेक्षा का या फिर मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विकास की बजाय गुजरात के विकास और इस विकास के अगुआ मोदी को बहु-प्रचारित करने का हो या फिर लोकसभा टिकट बंटवारे में पार्टी के भीष्म-पितामह लालकृष्ण आडवाणी को नज़र-अंदाज़ करने का हो। हर जगह मोदी अकेले ही भारी पड़ते नज़र आ रहे हैं।
आरएसएस को कोई आपत्ति नहीं है। पार्टी के अंदर कई ग्रुप बन चुके हैं, जहां व्यक्तिगत महत्तवाकांक्षा चरम पर है। चुनाव और सत्ता का लोभ ही वर्चुअल एकजुटता दिखा पा रहा है। आरएसएस ये सब अपनी आँखों से देख-सुन रहा है मगर खामोश है। मोदी के निजी राजनीतिक व्यक्तित्व को संवारने का काम ज़ोरो पर है। मोदी के नेतृत्व में राजनाथ सिंह और अरुण जेटली, मोदी के साथ मिलकर भाजपा की कब्र खोद रहे हैं। इस खुदाई में सिद्धांतों की जमकर हजामत की जा रही है, पर सत्ता सुख की चाह में आरएसएस हर "समझौते" को राजी है। "पार्टी विथ डिफरेंस" गया भाड़ में। क्या येदिरुप्पा क्या पासवान। सबका स्वागत है। 272 का आंकड़ां जुटाना है। चाहे जो करना पड़े।
"दक्षिणा" भरोसे पार्टी का मीडिया विंग, मोदी को खुदा और दूसरे नेताओं को इबादत करने वाला बन्दा बनाने पर तुला है, आरएसएस खुश है। मोदी की टीम सिर्फ मोदी को प्रचारित कर रही है, भाजपा को नहीं मगर आरएसएस को ज़रा भी ऐतराज़ नहीं और एहसास भी नहीं कि लोकतांत्रिक ढाँचे के सांचे को इस जुगत से ज़्यादा समय तक नहीं ढाला जा सकता। गुजरात की ताक़तवर बिज़नेस लॉबी, भाजपा की बजाय मोदी के प्रति "श्रद्धा" ज़्यादा रखती है। ज़्यादातर उद्योगपतियों ने पार्टी को मोटा पैसा, सिर्फ मोदी के भरोसे न्योछावर किया है, भाजपा को नहीं। आश्चर्य की बात ये है कि खुद मोदी, पार्टी को प्रचारित करने की बजाय, खुद को प्रमोट ज़्यादा कर रहे हैं। आरएसएस से कुछ नहीं छिपा, पर सत्ता का लोभ उसके अपने सिद्धांतों पर भारी पड़ रहा है। अब अगर आरएसएस ने सिद्धांतों की बात की तो "चोरी ऊपर से सीनाजोरी" कहने वालों की कमी नहीं होगी।
अटल बिहारी वाजपेयी भी पार्टी से बड़े दिखते थे, पर उनका व्यक्तित्व क्रोनी कैप्टिलिज़म के प्रतीक उद्योगपतियों के दान या "दक्षिणा" प्राप्त मीडिया द्वारा नहीं उभारा गया था और न ही वाजपेयी ने आरएसएस के तथा-कथित सिद्धांतों का खुलेआम माखौल उड़ाया था। वाजपेयी ने 5 दशक मुल्क़ की खाक़ छानने के बाद ये रूतबा पाया था। सबसे बड़ा अंतर ये कि वाजपेयी को आरएसएस के साथ-साथ, पार्टी के अंदर और बाहर चाहने वाले, मीडिया के ज़रिये नहीं बल्कि स्व-प्रेरित थे। आज मोदी, आरएसएस के भले ही प्रिय-पात्र हों मगर उनकी अपनी पार्टी, भाजपा, में उनको नापसंद करने वाले बहुत हैं, विरोधियों की संख्या तो पूछिए मत।
आरएसएस की ज़बरदस्त दखलंदाज़ी भरे सहयोग और उद्योगपतियों के चंदे से, मोदी ने मीडिया को "खुश" करके अपने व्यक्तिगत राजनीतिक अस्तित्व को बहुत कम समय में बहुत ऊपर कर लिया और पार्टी को नीचे राम-भरोसे छोड़ दिया है। आरएसएस भी बीजेपी को मोदी का वारिस बना कर राजनीतिक तौर पर लावारिस बनाने पर तुला है। आज लोग मोदी को वोट देने में ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं, बनिस्पत भाजपा के। यानि मोदी नहीं तो भाजपा हार जायेगी। आरएसएस को इस से कोई परहेज नहीं। आज चाहे उद्योग-घराना हो या "दक्षिणा" प्राप्त मीडिया के मनोवैज्ञानिक प्रहार से प्रभावित मोदी-प्रेमी आम जनमानस, नमो-नमो हर जगह है।
भाजपा का अंदरूनी ढांचा भले ही आह-आह कर रहा हो मगर आरएसएस मोदी की इस जुगलबंदी पर वाह-वाह कर रहा है। इस सर्व-व्यापी प्रचार से पार्टी के अंदर कई विरोधी तैयार हो चुके हैं जो वक़्त के इंतज़ार में हैं। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब व्यक्ति, पार्टी या बहु-प्रचारित सिद्धांत से बड़ा दिखने की कोशिश करता है या उसे दिखाने की कोशिश होती है और सहयोगियों के अस्तित्व को बौना बनाने का वातावरण पैदा किया जाता है तो लोकतंत्र की बुनियाद खिसकती-खिसकती तानाशाही की ओर बढ़ जाती है। आरएसएस और मोदी व् उनके मित्रों(राजनाथ-जेटली) को इससे बाज आना चाहिए, वर्ना भविष्य में कमज़ोर और टूटी हुई भाजपा की महज़ औपचारिक राजनीतिक उपस्थिति, कांग्रेस का पुराना रूतबा क़ायम कर देगी और जनता बुद्धू की तरह लौट कर फिर कॉंग्रेस के घर में चली जायेगी।