तेरा वक्त-ए-सफर याद... "मिर्जा गालिब"
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दिल्ली -असद उल्लाह खां उर्फ गालिब जिन्हें मिर्जा गालिब के नाम से भी जाना
जाता है, उर्दू के महान शायर गालिब का जन्म आगरा के एक सैनिक परिवार में
27 दिसंबर, 1796 को हुआ था, अपने चाचा और पिता को बचपन में खो देने वाले
मिर्जा के दादा कोबान बेग खान अहमद शाह के शासन में समरकंद से भारत की
सरजमीं पर लौटे थे।
गालिब के पिता मिर्जा अब्दुल बेग इज्जत-उत- निसा बेगम से निकाह किया, इन्होंने लखनऊ और हैदराबाद के निजामों के पास भी काम किया था, जब गालिब 5 साल के थे तो 1803 में राजस्थान के अलवर जिले में इनके पिता की मृत्यु हो गई थी।
गालिब के पिता मिर्जा अब्दुल बेग इज्जत-उत- निसा बेगम से निकाह किया, इन्होंने लखनऊ और हैदराबाद के निजामों के पास भी काम किया था, जब गालिब 5 साल के थे तो 1803 में राजस्थान के अलवर जिले में इनके पिता की मृत्यु हो गई थी।
1 साल की उम्र में उर्दू और फारसी पर महारथ हासिल करने वाले मिर्जा गालिब की 145 वीं पुण्यतिथि पर रिज़वान मुस्तफा की खास रिपोर्ट-
लेखन और शायरी की अपनी एक दुनिया बनाकर इंसानों को मोहब्बत का पाठ पढ़ाने वाले मिर्जा गालिब की कलम प्रेम और विरह पर लिखती रही। गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लिखने वाले असद गालिब 15 फरवरी,1869 को दिल्ली में दुनिया को अलविदा कहकर चले गए, मिर्जा साहब भले ही दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी शायरी हर काल में निराली नजर आती हैं- "हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए- बयां और।।"
उमराव बेगम के मिर्जा
ईरानी मुस्लिम के सानिध्य में फारसी सीखने वाले मिर्जा का 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से शादी की, दो नवाब ईलाही की बेटी थीं, अपनी पेंशन के लिए बार- बार कलकत्ता का सफर करने वाले मिर्जा की लेखनी में भी इस शहर का जिक्र है।
शाही इतिहासविद
बहादुर शाह जफर दि्वतीय के बड़े पुत्र फक्र उद दिन के शिक्षक रहे मिर्जा मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी रहे, और इन्हें 1850 में दबीर-उल- मुल्क और नज्म-उद- दौला के खिताब से भी नवाजा गया था।
फिर मुझे दीदा-ए-तर...
फिर मुझे दीदा-ए- तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फरियाद आया।
दम लिया था न कयामत ने हनोज
फिर तेरा वक्त-ए-सफर याद आया।
सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नजर याद आया।
उज्र -ए- वामाँदगी अए हस्त्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया।
जिन्दगी यूँ भी गुजर ही जाती
क्यों तेरा राहगुजर याद आया।
क्या ही रिजवान से लड़ाई होगी
घर तेरा खुलूद, में गर याद आया।
आह वो जुर्रत-ए- फरियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया।
फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल
दिल-ए-गुमगश्ता मगर याद आया।
कोई वीरानी, सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया।
मैंने मजनूँ पे लडकपन में असद
संग उठाया था के सर याद आया ।
लेखन और शायरी की अपनी एक दुनिया बनाकर इंसानों को मोहब्बत का पाठ पढ़ाने वाले मिर्जा गालिब की कलम प्रेम और विरह पर लिखती रही। गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लिखने वाले असद गालिब 15 फरवरी,1869 को दिल्ली में दुनिया को अलविदा कहकर चले गए, मिर्जा साहब भले ही दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी शायरी हर काल में निराली नजर आती हैं- "हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए- बयां और।।"
उमराव बेगम के मिर्जा
ईरानी मुस्लिम के सानिध्य में फारसी सीखने वाले मिर्जा का 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से शादी की, दो नवाब ईलाही की बेटी थीं, अपनी पेंशन के लिए बार- बार कलकत्ता का सफर करने वाले मिर्जा की लेखनी में भी इस शहर का जिक्र है।
शाही इतिहासविद
बहादुर शाह जफर दि्वतीय के बड़े पुत्र फक्र उद दिन के शिक्षक रहे मिर्जा मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी रहे, और इन्हें 1850 में दबीर-उल- मुल्क और नज्म-उद- दौला के खिताब से भी नवाजा गया था।
फिर मुझे दीदा-ए-तर...
फिर मुझे दीदा-ए- तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फरियाद आया।
दम लिया था न कयामत ने हनोज
फिर तेरा वक्त-ए-सफर याद आया।
सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नजर याद आया।
उज्र -ए- वामाँदगी अए हस्त्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया।
जिन्दगी यूँ भी गुजर ही जाती
क्यों तेरा राहगुजर याद आया।
क्या ही रिजवान से लड़ाई होगी
घर तेरा खुलूद, में गर याद आया।
आह वो जुर्रत-ए- फरियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया।
फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल
दिल-ए-गुमगश्ता मगर याद आया।
कोई वीरानी, सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया।
मैंने मजनूँ पे लडकपन में असद
संग उठाया था के सर याद आया ।