ऑस्ट्रेलिया से खुर्दमाऊ की कर्बला तक अकीदत का सफ़र

डॉ काजिम इमाम ने की जियारत,पेश किया इमाम को आंसू का नजराना
बाराबंकी। हजरत इमाम हुसैन का दर ऐसा है जहां सुकून शान्ती मिलती है। इस दर की मुरादे पाकर इंसान बुलंदियों पर पहुंचता है। यह बात फखरे हिन्दुस्तान बनकर आस्ट्रेलिया, ईरान, ब्रिटेन, अमरीका, समेत दुनिया के कई देशों में अपने देश की तरबियत और इल्म का परचम लहराने वाले डा0 काजिम इमाम ने खुर्दमऊ की कर्बला के दर्शन करने के उपरान्त व्यक्त किया।
मालूम हो एक दशक पहले खुर्दमऊ की कर्बला में मोजिजे की खबर सुनकर आस्ट्रेलिया से अपने परिवार के साथ दर्शन कर मन्नत मांगने आये डा0 काजिम आज अपनी मन्नतों को बढ़ाने के लिए तहसील सिरौलीगौसपुर की इस कर्बला में आए। या हुसैन-या हुसैन की लब पर सदायें, सीने पर मातम, आंखों से बहते आंसू से हजरत इमाम हुसैन और शहीदाने कर्बला को नजराना देकर नजर नियाज करने के उपरान्त एक छोटा सा अलम साथ में नौहे के यह बंद ‘‘जिस जगह हजरते अब्बास का परचम होगा, अहलेबैत आयेंगे और शाह का मातम होगा’’ पढ़कर अपनी अकीदत, मोहब्बत का इजहार ने यह बता दिया कि बाराबंकी की यह सरजमी जहां महाभारत काल के निशानात मौजूद हैं। वहीं पास में स्थित किन्तूर की सरजमीन पर अल्लामा गुलाम हुसैन किन्तूरी व कई आयतुल्लाह की श्रेणी में रहे आलिमेदीनों की जन्मस्थली के साथ ईरानी इन्कलाब के शहशाह आयतुल्लाह खुमैनी व रसूलपुर में हाजी वारिस अली शाह की जन्मस्थली से सटी इस बेल्ट पर स्थित कर्बला इस कदर मोतबर है कि कई समुन्दर पार से आकर इन्सान  सुकून पा रहा है।
डा0 काजिम इमाम ने  बताया कि 1968 में लखनऊ यूनीवर्सिटी से बीएससी कर 1970 में बायो कमेस्ट्री में मास्टर डिग्री कर, सीडीआरआई से  डाक्टर ऑफ फिलॉस्पी बायो कमेस्ट्री की डिग्री हासिल कर ईरान में 16 साल तक सेवा कर आस्ट्रेलिया, लंदन, न्यूजीलैंड, तेहरान में क्लीनिकल बायो कमेस्ट्री, न्यूकिलर मेडीसिन एण्ड रेडियो कमेस्ट्री,  रेडियो फार्मेसी, कैंसर रिसर्च एण्ड पैरा क्लीनिकल वर्क इन न्यूकिलर मेडीसिन पर रिसर्च पूरी कर अपने इल्म और तजुर्बे को दुनिया के कोने कोने में होने वाली कांफ्रेस में देश का नाम रौशन किया। डा0 काजिम ने बताया कि यह इस पाक जमीन कर्बला से मोहब्बत का नतीजा है जो आज मैं इस बुलंदियों पर हूं। उन्होंने यह भी बताया कि हक इंसाफ, इंसानियत दुनिया में हजरत इमाम हुसैन ने अपनी शहादत देकर बचाया है। डेढ़ हजार साल बीत गए लेकिन लगता है जैसे कल की ही बात हो। मोहर्रम आता है तो गम मनाने के लिए लोग घरों से निकल पड़ते हैं। नाइंसाफी को इंसाफ का जामा पहनाने के लिए यजीदी सरकार ने हजरत मोहम्मद ने अल्लाह के दीन और अल्लाह की किताब को जिस शक्ल में अपनी अगली पीढ़ी को सौंपा था उसमें जरा सा भी फर्क नहीं पड़ने दिया। छह महीने के बच्चे की गर्दन पर हुरमुला का तीर लगा, बत्तीस साल के भाई के दुश्मनों ने दोनों हाथ काट लिए, शबीहे पैगम्बर को बेरहमी से शहीद कर दिया गया लेकिन हजरत इमाम हुसैन ने नाना के दीन और इस्लाम के उसूलों से समझौता नहीं किया।
उन्होंने आगे कहा कि मैदाने कर्बला में इंसाफ और बेइंसाफी के बीच जो जंग हुई वह दुनिया की इकलौती जंग है जिसमें जान लुटाने वाला जीता और जान लेने वाला हार गया। कहने को लोग कहते हैं कि हुसैन का नाम जिन्दा है और यजीद का नाम मिट गया। लेकिन हकीकत यही है कि नाम दोनों का ही बाकी है हमेशा बाकी रहेगा लेकिन फर्क इतना सा है कि हजरत इमाम हुसैन के नाम के साथ इज्जत भी जुड़ी है। उन पर हुए जुल्मों की दास्तान सुनकर डेढ़ हजार साल बाद भी लोग आंसू बहा रहे हैं और यजीदी लश्कर पर डेढ़ हजार साल से लगातार लानत भेजी जा रही है। कर्बला मंे जो हुआ वह दरहकीकत आतंकवाद का पहला चैप्टर है। हजरत इमाम हुसैन और उनके खानदान व दोस्तों के साथ जो कुछ भी यजीदी लश्कर ने किया वह इंसानी फितरत का कोई जीव नहीं कर सकता था। इस्लाम का मतलब है शांति। यजीद इसी मतलब को बदलना चाहता था। कुरान की तस्वीर और काबे की शक्ल को अपनी नजरों से दुनिया को दिखाना चाहता था। सत्ता की चमक में वह अय्याशी को भी उसूल मंे शामिल करना चाहता था। इमाम हुसैन उसकी ऐसी गलत राह में सबसे बड़ा कांटा थे। उसका मकसद सिर्फ इमाम हुसैन को सबक सिखाना भर नहीं था। वह चाहता था कि आने वाली पीढ़ियां भी सही को सही कहने की हिम्मत न जुटा सकें। छह महीने के हजरत अली असगर को बाप के हाथों पर शहीद कर यजीद ने यही समझा था कि उसकी गल्तियां ही सही मान ली जाएंगी और इमाम हुसैन का सच झूठ साबित हो जाएगा। लेकिन जान लुटाने वालों पर दुनिया आज भी आंसू बहा रही है। मस्जिदों में अजाने आज भी गंूज रही हैं और इंसाफ का परचम आज भी बुलन्द है। आज का माहौल सिर्फ यही साबित कर रहा है कि ‘‘फलक पुकार रहा है हुसैन जिन्दा हैं, जमीन की यह सदा है हुसैन जिन्दा है’’, ‘‘वेकारे खूने शहीदाने कर्बला की कसम, यजीद कत्ल हुआ है हुसैन जिन्दा है।’’

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