भ्रष्टाचार हमारी संस्कृति में बस गया है

 प्रसून जोशी
पिछले दिनों एक के बाद एक बहुत-से घोटाले सामने आए। हर तरफ बस करप्शन को लेकर ही बातें हो रही थी। ऐसी ही चर्चा मैं भी अपने एक राजनीतिज्ञ मित्र से कर रहा था। वह एमएलए है और इस बाबत चर्चा करने के लिए मेरे पास उनसे बेहतर विकल्प भी नहीं हो सकता था। भ्रष्टाचार को लेकर जब मैंने कहा कि अगर तमाम राजनीतिज्ञ और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ाकर कॉरपोरेट वर्ल्ड के दर्जे की कर दी जाए तो शायद करप्शन में कमी आ सकती है। हालांकि मेरे इस सुझाव से वह पूरी तरह असहमत थे। उनका कहना था कि ऐसा होने पर भी करप्शन को कम नहीं किया जा सकता। दरअसल लोगों की मन:स्थिति ही ऐसी हो गई है, जहां करप्शन को गलत समझा ही नहीं जा रहा और तनख्वाह बढ़ने पर भी वह नहीं बदल सकती।

दरअसल करप्शन देश की जड़ों तक फैला है। वजह है, उसके प्रति हमारी मौन स्वीकृति। जब माता-पिता अपनी बेटी के लिए वर ढूंढते हैं तो उसकी हर आदत की छानबीन करते हैं। वह शराब और सिगरेट पीता है या नहीं, उसे कोई बीमारी है या नहीं या उसके चाल-चलन कैसा हैं? मगर यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि वह लड़का रिश्वत लेता है या नहीं? अक्सर पैरंट्स लड़के की 'ऊपरी कमाई' को महत्त्व देते हैं।

हैरानी की बात तो यह है कि संभ्रांत परिवार के लोग यह पूछते हैं कि लड़के की दो नंबर की कमाई है या नहीं? कोई मां यह नहीं चाहती कि उसकी बेटी की शादी शराबी से हो लेकिन लड़के की 'ऊपरी कमाई' है तो उसके लिए मां की मौन स्वीकृति होगी। उसके मन में यह खयाल रहेगा कि ऊपरी कमाई से दामाद के पास ज्यादा पैसे आएंगे और हमारी बेटी ज्यादा सुखी रहेगी। यानी यह करप्शन हमारी संस्कृति में घुल गया है। इसकी हद तो यह है कि हमने भगवान को भी इसमें शामिल कर लिया और इसे गलत भी नहीं मानते।

मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूं जो मंदिर में जाते हैं और भगवान से अपने फायदे का फिक्स पर्सेंट चढ़ाने की बात कहकर मन्नत मांगते हैं। उतना मुनाफा होने के बाद वह बकायदा हिस्सा चढ़ाते भी हैं। पिछले हफ्ते ही एक दोस्त से एयरपोर्ट पर मिला। वह किसी मंदिर से होकर लौटे थे और अपनी आप बीती सुनाते हुए बता रहे थे कि किस तरह उन्होंने पंडित को पैसे देकर दर्शन किए। उनकी नजर में पैसा खिलाकर भगवान तक पहुंचने में कोई खराबी नहीं थी। मतलब साफ है कि अगर भगवान के साथ सौदेबाजी हो रही है तो इंसान की तो क्या हैसियत है।

समस्या यह है कि समाज में 'कैसे' की बजाय 'क्या' को महत्त्व दिया जा रहा है। आपको कोई नहीं पूछेगा कि आपने पैसा कैसे कमाया है, जबकि आपकी प्रतिष्ठा इस बात से आंकी जाती है कि आपके पास क्या है, कितना पैसा है? हर कोई देश समय और परिस्थिति के हिसाब से करप्शन में लिप्त है। इसकी सफाई में भी हमारे पास तर्क कम नहीं होते। रिश्वत लेने या देने वाला कहता है कि अगर मैं नहीं करूंगा तो कोई और करेगा। वही लोग जब बड़े स्तर पर घोटाले होते हुए देखते हैं तो भूल जाते हैं कि वह खुद भी इसी का हिस्सा हैं। अगर आम जीवन में हम कभी भी करप्शन में हिस्सेदार रहे हैं तो हमें कोई हक नहीं बनता कि हम उन लोगों को भला-बुरा कहें जो बड़े स्तर पर घोटाले कर रहे हैं।

मुझे लगता है हमारी धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था में कभी इस तरह की कोई आचार संहिता ही नहीं रही जहां करप्शन को गलत बताया गया हो। जब तक इंसान अपने विवेक से यह फैसला नहीं लेता कि क्या सही है और क्या गलत, तब तक यह सब रुक भी नहीं सकता। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किया गया करप्शन हमारी आदतों में आ गया है। हम जब तक इसे आदत के रूप में न देखकर करप्शन के रूप में देखेंगे तब तक इससे बाहर नहीं निकल सकते।

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