राम की नहीं है जन्मभूमि
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एस एल सागर
हिन्दुओं का यह विश्वास है कि अयोध्या राम जन्मभूमि है, किन्तु यह बात संदेह उत्पन्न करती है क्योंकि हिन्दू धर्म के किसी प्राचीन ग्रंथ में इसका कोई ऐसा वर्णन नहीं मिलता है जिसे साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। हिन्दुओं के किसी भी धर्मग्रंथ में ऐसा नहीं लिखा गया है कि अयोध्या में अमुक स्थान पर राम का जन्म हुआ था, वहां जाकर आराधना करनी चाहिए।
कामिल बुल्के ने अपनी राम कथा में वाल्मीकि रामायण, गोविन्द रामायण, बलराम रामायण, भुषुंडी रामायण, भवभूति का रामचरित, बौद्ध रामायण (दशरथ जातक), रामचरित् मानस, जैन रामायण, भावार्थ रामायण, तिब्बती रामायण, कश्मीरी रामायण, आनंद रामायण, कम्ब रामायण, अग्निवेश रामायण, अध्यात्म रामायण 16-17 किस्म की रामायणों में राम कथाओं का वर्णन किया है किन्तु किसी में भी राम के जन्मस्थल का वर्णन नहीं है। विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या में राम जन्मभूमि का साक्ष्य प्रस्तुत करती है, उसका उल्लेख हम पहले करते हैं।
पहला साक्ष्य —
विश्व हिन्दू परिषद केवल एक ऐसा ग्रंथ पेश कर पायी है जो कि एक पुराण है। स्कंद पुराण में राम के जन्मस्थान का वर्णन है जिसमें अयोध्या का महात्म्य दर्शाया गया है और उसके दर्शन का महत्व समझाया गया है। पुराणों के बारे में यह कौन नहीं जानता है कि ये आल्हा खंड से भी अधिक गपोड़ों के संग्रह हैं और इन पुराणों की रचना का समय सबसे बाद का है। इनकी रचना में उलजलूल आख्यानों की भरमार है और इनका इसीलिए कोई लेखक भी नहीं दिखाया गया है। यदि हम स्कंद पुराण को ही लें तो यह पुराण 16वीं सदी के बाद का ही लिखा गया प्रमाणित होता है। इस पुराण में विद्यापति का उल्लेख है जिसकी मृत्यु 16वीं सदी में हुई थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि स्कंद पुराण का यह ”अयोध्या महात्म्य” अनुभाग मात्रा क्षेपक है और बाद में जोड़ा गया है। यदि इस पुराण के कथन को मान भी लिया जाय तब भी तो जहां बाबरी मस्ज़िद बनी हुई है उस स्थान पर राम का जन्म होना प्रमाणित नहीं होता है।
महात्म्य के वृंदावन वाले और वोडलेमन पुस्तकालय वाले संस्करण के अनुसार राम के जन्मस्थान की दिक्सूचक दिशा और दूरियां उल्लिखित हैं। छंद 21 से 24 तक के वर्णन में जन्म स्थल लौमश के पच्छिम की ओर 1009 धनुष (1835 मीटर) की दूरी पर स्थित है। हिन्दू मान्यता के अनुसार लोमस की जगह ऋणमोचन घाटवाली जगह है। इस मान्यता के आधार पर राम जन्मभूमि सरयू नदी की तलहटी में ब्रह्मकुंड के पास बैठती है। दूसरा कथन है कि जन्मस्थान विनेश के उत्तर पूर्व में स्थित है। यह विनेश का स्थल ऋणमोचन से दक्षिण पश्चिम को है। यह स्थान भी वह नहीं बैठता जहां बाबरी मस्जिद बनी है। अयोध्या महात्म्य में जन्मस्थान से कहीं अधिक स्वर्ग द्वार का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण में स्वर्ग नर्क का वर्णन है और उल्लेख है कि यहां से राम स्वर्ग गये थे। इस स्थल पर वासुदेव की पूजा का वर्णन है। किसी मंदिर के चिह्न होने का वर्णन यहां भी नहीं है।
सारे विवरण से स्पष्ट होता है कि 11वीं सदी से 18वीं सदी तक ऐसा कोई प्रमाणित ग्रंथ का साक्ष्य नहीं है जो राम के जन्म को अयोध्या में अमुक स्थान पर प्रमाणित करता हो। राम जन्म का स्थान 18वीं सदी के बाद जोड़ा गया। इस आधार पर यह कहना भी झूठ प्रमाणित हो जाता है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि से हिन्दू आस्था जुड़ी हुई है।
दूसरा साक्ष्य —
विश्व हिन्दू परिषद अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय दूसरा साक्ष्य यह प्रस्तुत करती है कि बाबरी मस्जिद में 14 काले पत्थरों के जो स्तम्भ लगे हैं वे गैर इस्लामी हैं। यह साक्ष्य सकारात्मक न होकर नकारात्मक है अर्थात मस्ज़िद नहीं हो सकती है इसलिए मंदिर है। मंदिर है, यह सीधा साक्ष्य नहीं है। इस नकारात्मक साक्ष्य का अर्थ यह भी हो सकता है कि यदि मस्ज़िद न हो तो मंदिर भी न हो और बौद्ध मठ हो। जहां तक काले पत्थरों का प्रश्न है, यह प्रमाणित करना होगा कि काले पत्थर मस्ज़िद में नहीं लगते? दूसरे यह कि क्या ये मस्ज़िद निर्माण के समय के ही हैं या बाद को सजावट के लिए बाहर से लाकर लगवाये गये हैं। इसका निर्णय करने में एक महत्वपूर्ण तथ्य बहुत सहायक होगा कि इस मस्जिद के करीब डेढ़ मील दूरी पर एक कब्रगाह है। अब कब्रगाह में भी दो काले पत्थर वाले खम्भे लगे हैं।
एक दूसरा तथ्य कि बिहार में अनेक ऐसी मस्जिदें हैं जिनमें चौखटे काले वैसाल्ट पत्थर के बने हैं। ये पत्थर पाल राजाओं के काल में बनी मस्ज़िदों में लगाये गये हैं। पटना के गूजरी मौहल्ले में बनी 17वीं सदी की मस्ज़िद इसका उदाहरण है। इसमें काले पत्थर के खम्भे लगे हैं। इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
1. पहला यह कि मस्ज़िद में काले पत्थर का लगाना कोई इस्लाम के विरुद्ध नहीं है।
2. दूसरे यह कि ये काले पत्थर जिस लम्बाई में लगे हैं वह छत तक न होकर 5 फिट के बराबर ही हैं जो मस्ज़िद के अलंकरण के लिए लगाये गये हों। चूंकि काले पत्थर अयोध्या के पास नहीं मिलते तो पटना के पास भी तो नहीं मिलते हैं। जब बाहर से लाकर ये पटना की मस्ज़िदों में लगाये जा सकते हैं तो अयोध्या में बाहर से लाकर क्यों नहीं लगाये जा सकते हैं। हो सकता है कि मंदिर के अलंकरण हेतु ये काले पत्थर बाहर से लाकर बाद को मस्ज़िद में स्तम्भ के रूप में प्रयुक्त किये गये हों।
इन खम्भों के साक्ष्य में एक बात और ध्यान देने की है। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि इन खम्भों पर जो वनमाला का चित्र अंकित है वह वैष्णव चिह्न है इसलिए ये खम्भे मंदिर के हैं किन्तु इसमें सच्चाई नहीं है। वैष्णव पंथ के विष्णु के शंख, चक्र, गदा और पदम चार प्रतीक हैं किन्तु इन चार में एक भी चिह्न इन खम्भों पर अंकित नहीं है। वनमाला तो हर हिन्दू पंथ प्रयोग करता है और हिन्दू के अतिरिक्त दूसरे सम्प्रदाय भी। इस प्रकार काले खम्भों से हिन्दू मंदिर होना प्रमाणित होता हो ऐसा कुछ नहीं है। खम्भों की जो लम्बाई है वह तल से 5 फुट के करीब ऊँचें हैं, ये छत तक नहीं हैं, तो ये दीवार के साथ के नहीं हो सकते हैं। बाद को अलंकरण हेतु बाहर से लाकर लगाये गये प्रमाणित होते हैं।
एक प्रोफेसर वी.वी.लाल को बाबरी मस्ज़िद के दक्षिण में कुछ ईंट वाले आधार मिले हैं जिनसे मंदिर होने की कल्पना की जा सकती है, किन्तु यह शोधपत्र 11 वर्ष बाद 1990 में प्रकाशित किया गया। इसमें इन ईटों के आधार वाले निर्माण का काल उत्तर मध्य काल बताया गया है, जिसका अर्थ होता है 17वीं, 18वीं शताब्दी। यदि मान लिया जाय कि 17वीं, 18वीं शताब्दी में मस्ज़िद के दक्षिण में कोई मंदिर भी था तो 16वीं सदी में बनी मस्ज़िद को मंदिर तोड़ कर बनाया गया था, कैसे सिद्ध होता है। इस प्रकार स्तम्भ और ईंट वाले आधार के सहारे यह सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्ज़िद के निर्माण से पूर्व यहां किसी प्रकार के मंदिर का अस्तित्व था।
खुदाई में मस्ज़िद की ऊपर की खाइयां और मस्ज़िद के तल के ठीक नीचे कलईदार बर्तन मिले हैं। इससे भी यह निष्कर्ष निकलता है कि मस्ज़िद स्वतंत्र जगह पर बनी थी। हिन्दू मंदिर में कलई के बर्तन मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। कलई मुसलमानों की निजी देन है। इससे एक बात सिद्ध होती है कि ये बर्तन जो 13-14वीं सदी के मिले हैं यहां 13-14वीं सदी में मुसलमान बस्ती का होना पाया जाता है और बाबर ने भी वहीं मस्ज़िद बनवायी थी जहां मुसलमान रहते होंगे, हिन्दू नहीं। खुदाई में कोई हिन्दू पात्र नहीं निकला है। ये कलई के बर्तन मुसलमानों की बस्ती होने का संकेत देते हैं और मुसलमानों के लिए मस्ज़िद नमाज पढ़ने के लिए बनायी गयी होगी।
इस प्रकार खम्भों, ईंटों, बर्तनों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मंदिर तोड़ कर मस्ज़िद नहीं बनायी गयी है। अतः यहां विश्व हिन्दू परिषद ने जो बातें कही हैं उनमें एक भी यह सिद्ध नहीं करती कि आज जहां बाबरी मस्ज़िद बनी हुई है वहीं कभी कोई मंदिर था।
मस्ज़िद के स्थान पर मंदिर होने की कल्पना विदेशी लोगों ने फैलायी है। सबसे पहले 1788 में एक बर्लिन के पादरी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया था। उसने लिखा कि ”औरंगजेब ने रामकोट किला ध्वस्त किया था और उसकी जगह मस्ज़िद बनवायी थी। कुछ का कहना है कि यह बाबर ने बनवाया था, उसने पांच पांच बालिस्त ऊँचे 14 काले पत्थरों के खम्भे खड़े किये थे। इन काले पत्थरों का मलवा हनुमान जी द्वारा लंका से लाया गया था। यहां एक चौकी का भी उल्लेख है जिसे राम की जन्मस्थली बताते हैं। यह 525 वर्ग क्षेत्रफल में है।”
जब तक उक्त पुस्तक नहीं लिखी गयी थी किसी को मस्ज़िद, मंदिर तोड़ कर बनायी गयी होने की कल्पना भी नहीं थी। 1810 में फ्रेंसिस बुकनान ने अयोध्या की यात्रा की
उसने लिखा कि राजा विक्रम पवित्रा नगर की खोज में यहां आया था, उसने ‘रामगढ’ नामक किला बनवाया और 360 मंदिर बनावाये। बुकनान ने लिखा कि यहां यह विश्वास है कि बनारस, मथुरा की भांति अयोध्या के मंदिर भी औरंगजेब ने तुड़वाये, किन्तु ऐसा लगता है कि औरंगजेब की पांच पीढ़ी पहले बाबर ने इस मस्ज़िद को बनवाया था, इससे विक्रम का मंदिरों को बनवाने की कहानी झूठ हो जाती है।
इन विदेशी लेखकों के एक दूसरे के विरोधी और स्वयं के द्वंद्वात्मक कथन सिवाय भ्रांति पैदा करने के कोई निष्कर्ष नहीं देते हैं। कभी कहना हनुमान जी पत्थर लाये थे, कभी कहना कि विक्रम ने मंदिर बनाये थे, कभी औरंगजेब ने मंदिर तुड़वाया, तो कभी बाबर ने तुड़वाया, ऐसे कथन हैं जिनका स्वयं में कोई अर्थ नहीं निकलता है और सब संदेह पैदा करते हैं। बुकनान ने तो इन पत्थरों के खम्भों से निष्कर्ष निकाला था कि ये किसी मंदिर के न होकर किसी इमारत से लिए गये हैं। इस कथन से तो विश्व हिन्दू परिषद की खम्भों की सारी कहानी चौपट हो जाती है। विश्व हिन्दू परिषद अपने साहित्य और किसी धर्मग्रंथ से यह सिद्ध नहीं कर सकी कि अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद, मंदिर तोड़ कर बनायी गयी है। परिषद यह कह सकती है कि हमारे धर्मग्रंथ पहले के लिखे गये हैं और बाबर से पहले लिखे गये हैं, उनमें बाबरी मस्ज़िद का वर्णन हो ही नहीं सकता है। यदि यहां कोई राम का मंदिर होता तो उसका वर्णन तो होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि अयोध्या में राम जन्मस्थल पर कोई मंदिर था। जब शास्त्र, पुराण, धर्म सूत्र और स्मृति ग्रंथ में ऐसा कोई वर्णन नहीं है जिससे यह सिद्ध होता है कि राम की जन्मस्थली पर कोई मंदिर बनाया गया था और मंदिर होने का भी कोई वर्णन नहीं है तो किसने बनवाया, कब बनवाया, कैसे बनवाया और क्यों बनवाया, सोचना ही व्यर्थ है।
बाबर की तीसरी पीढ़ी में अकबर आता है। अकबर के जमाने में तुलसी पैदा होते हैं। वे राम के अनन्य भक्त बनते हैं और रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में करते हैं। यदि तुलसी के आराध्य राम की जन्मस्थली ध्वस्त करके मस्ज़िद बनायी गयी होती तो क्या तुलसी चुप रहते? तुलसीदास ने अयोध्या को पूज्य स्थली ही नहीं माना है। उन्होंने प्रयाग को पूज्य माना है अयोध्या को नहीं। तुलसी 17वीं सदी में पैदा हुए थे तब ऐसी कहीं कोई चर्चा नहीं थी, जहां बाबरी मस्ज़िद है वहां पहले कभी कोई राम मंदिर था। आइने अकबरी में अयोध्या का वर्णन है किन्तु अबुल फजल ने भी राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खासकर मस्ज़िद बनवायी, का कोई वर्णन नहीं किया है। बाबर के डेढ़ सौ दो सौ साल बाद ही अकबर का काल आ जाता है और अकबर के काल में ही तुलसी और अबुल फजल काव्य रचना करते हैं, तो हिन्दू और मुसलमान एक भी रचनाकार द्वारा राम के मंदिर को ढहाकर बाबरी मस्ज़िद बनाने का वर्णन नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि बाबर ने मंदिर तुड़वा कर मस्ज़िद नहीं बनवायी थी।
17वीं सदी के प्रथम दशक में एक विलियम फ्लिंच ने अयोध्या में रह कर एक शोध लिखा था। उसने लिखा है कि यहां लोग राम का राज्य बताते हैं, उसे देवता मानते हैं। हिन्दू राम को अवतार मानते हैं। चार पांच लाख वर्ष पुरानी नहीं है। इसके किनारे ब्राह्मण रहते हैं जो रोज इसमें प्रातः नहाते हैं। यहां एक गहरी गुफा है। यह माना जाता है कि इस गुफा में राम की अस्थियां गड़ी हैं। बाहर से लोग यहां आते हैं और काले चावल यहां से ले जाते हैं। यहां से काफी सोना निकाला गया है। इस पुस्तक के वर्णन से राम के मरने का वर्णन मिलता है। जैसे स्कंद पुराण में स्वर्ग द्वार का वर्णन, जहां से राम स्वर्ग सिधारे परंतु इस ग्रंथ से भी राम यहां जन्मे थे उल्लेख नहीं मिलता है। इस ग्रंथ में भी तुलसी के मानस की भांति मंदिर को ध्वस्त कर मस्ज़िद बनाने का कोई उल्लेख नहीं है।
एक हिन्दू सुजान राय भंडारी नामक व्यक्ति के ग्रंथ ”खुलासात ए तवारीख” में मथुरा और अयोध्या का जिक्र है। यह पुस्तक 1695-96 की मानी जाती है पर इसमें भी ऐसा कहीं वर्णन नहीं मिलता कि राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर बाबर ने कोई मस्ज़िद बनवायी। यह लेखक यहां एडम के बेटे शीश और पैगम्बर अयूब के मकबरों का वर्णन करता है पर राम के मंदिर का कोई जिक्र नहीं करता है। एक और हिन्दू लेखक राय चर्तुन ने अपनी पुस्तक में राम का वर्णन तो किया है पर राम के मंदिर का वर्णन नहीं किया है। यह पुस्तक 1759-60 में लिखी गयी है। इस प्रकार बाबर के समय बनी मस्जिद के निर्माण के दो सौ वर्ष बाद तक भारत के तुलसी, अवुल फजल तथा विदेशी फ्लिंच जैसे कलमकारों ने अयोध्या में राम के मंदिर का उल्लेख तक नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है विश्व हिन्दू परिषद के पास ऐसा कोई लिखित साक्ष्य नहीं है जो बाबरी मस्ज़िद के स्थान पर पहले मंदिर प्रमाणित कर सके। इसने जो पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे बहुत लचर और संदिग्ध हैं।
एक और अभिलिखित साक्ष्य उपलब्ध है। मस्ज़िद निर्माण के बाद मस्ज़िद पर फारसी में खोदे गये अभिलेख हैं जिनका वर्णन बाबरनामा में मिलता है। ए.एस.वेविरिज द्वारा बाबर नामा का जो अनुवाद किया गया है, उस बाबरनामा में शासक मीर बाकी का उल्लेख है। बाबरनामा में बाबरी मस्ज़िद और उस पर खुदे अभिलेखों का वर्णन है, पर कहीं पर ऐसा नहीं प्रतीत होता कि कहीं भी मंदिर खसा कर मस्ज़िद बनवायी गयी हो। इस प्रकार खुदाई से प्राप्त साक्ष्य, मस्ज़िद में बने खम्भों के पुरातत्वीय साक्ष्य और अभिलेखों के साक्ष्य किसी से यह प्रमाणित नहीं होता है कि मंदिर खसा कर मस्ज़िद बनायी गयी थी।
जो भी साक्ष्य अब तक प्राप्त हुआ है उससे निम्न निष्कर्ष निकलते हैं…
1. ग्रंथों के आधार पर ऐसा प्रमाणित होता है कि 18वीं सदी से पूर्व अयोध्या में राम जन्मभूमि के रूप में कोई स्थल पूज्यनीय नहीं था।
2. पुरातत्व और मस्ज़िद पर खुदे अभिलेखों के आधार पर यह कहीं सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्ज़िद के स्थान पर मंदिर था और मंदिर ध्वस्त कर मस्ज़िद बनायी गयी।
3. सम्पूर्ण साहित्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि 19वीं सदी के आरम्भ तक राम मंदिर का कोई दावा नहीं था। यह चर्चा 1850 के दशक में प्रारम्भ हुई जब सीता रसोई को ध्वस्त करने की मात्र बात उठी थी।
ऊपर के सारे विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ”अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद राम मंदिर को ध्वस्त कर बनायी गयी है” का बवेला व्यर्थ का ढकोसला है और मुसलमानों के विरुद्ध एक सोची समझी साजिश है। सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक तीन सौ चार सौ वर्षों तक जिसका मस्ज़िद बनने के बाद में कोई प्रमाण न मिलता हो ऐसा कोई बिन्दु खडा कर देना सोची समझी साजिश ही है और कुछ नहीं। आज मुसलमानों के विरुद्ध उनको नष्ट करने, उनका ईमान भ्रष्ट करने की साजिशें हो रही हैं, वरना यह कौन बर्दाश्त कर लेगा कि जो मस्ज़िद सोलहवीं सदी में बनी हो उसे ध्वस्त करने का खिलवाड़ किया जाय। इस खिलवाड़ का परिणाम अत्यंत भयंकर होगा।
(एस एल सागर दलित चिंतक हैं.)
हिन्दुओं का यह विश्वास है कि अयोध्या राम जन्मभूमि है, किन्तु यह बात संदेह उत्पन्न करती है क्योंकि हिन्दू धर्म के किसी प्राचीन ग्रंथ में इसका कोई ऐसा वर्णन नहीं मिलता है जिसे साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। हिन्दुओं के किसी भी धर्मग्रंथ में ऐसा नहीं लिखा गया है कि अयोध्या में अमुक स्थान पर राम का जन्म हुआ था, वहां जाकर आराधना करनी चाहिए।
कामिल बुल्के ने अपनी राम कथा में वाल्मीकि रामायण, गोविन्द रामायण, बलराम रामायण, भुषुंडी रामायण, भवभूति का रामचरित, बौद्ध रामायण (दशरथ जातक), रामचरित् मानस, जैन रामायण, भावार्थ रामायण, तिब्बती रामायण, कश्मीरी रामायण, आनंद रामायण, कम्ब रामायण, अग्निवेश रामायण, अध्यात्म रामायण 16-17 किस्म की रामायणों में राम कथाओं का वर्णन किया है किन्तु किसी में भी राम के जन्मस्थल का वर्णन नहीं है। विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या में राम जन्मभूमि का साक्ष्य प्रस्तुत करती है, उसका उल्लेख हम पहले करते हैं।
पहला साक्ष्य —
विश्व हिन्दू परिषद केवल एक ऐसा ग्रंथ पेश कर पायी है जो कि एक पुराण है। स्कंद पुराण में राम के जन्मस्थान का वर्णन है जिसमें अयोध्या का महात्म्य दर्शाया गया है और उसके दर्शन का महत्व समझाया गया है। पुराणों के बारे में यह कौन नहीं जानता है कि ये आल्हा खंड से भी अधिक गपोड़ों के संग्रह हैं और इन पुराणों की रचना का समय सबसे बाद का है। इनकी रचना में उलजलूल आख्यानों की भरमार है और इनका इसीलिए कोई लेखक भी नहीं दिखाया गया है। यदि हम स्कंद पुराण को ही लें तो यह पुराण 16वीं सदी के बाद का ही लिखा गया प्रमाणित होता है। इस पुराण में विद्यापति का उल्लेख है जिसकी मृत्यु 16वीं सदी में हुई थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि स्कंद पुराण का यह ”अयोध्या महात्म्य” अनुभाग मात्रा क्षेपक है और बाद में जोड़ा गया है। यदि इस पुराण के कथन को मान भी लिया जाय तब भी तो जहां बाबरी मस्ज़िद बनी हुई है उस स्थान पर राम का जन्म होना प्रमाणित नहीं होता है।
महात्म्य के वृंदावन वाले और वोडलेमन पुस्तकालय वाले संस्करण के अनुसार राम के जन्मस्थान की दिक्सूचक दिशा और दूरियां उल्लिखित हैं। छंद 21 से 24 तक के वर्णन में जन्म स्थल लौमश के पच्छिम की ओर 1009 धनुष (1835 मीटर) की दूरी पर स्थित है। हिन्दू मान्यता के अनुसार लोमस की जगह ऋणमोचन घाटवाली जगह है। इस मान्यता के आधार पर राम जन्मभूमि सरयू नदी की तलहटी में ब्रह्मकुंड के पास बैठती है। दूसरा कथन है कि जन्मस्थान विनेश के उत्तर पूर्व में स्थित है। यह विनेश का स्थल ऋणमोचन से दक्षिण पश्चिम को है। यह स्थान भी वह नहीं बैठता जहां बाबरी मस्जिद बनी है। अयोध्या महात्म्य में जन्मस्थान से कहीं अधिक स्वर्ग द्वार का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण में स्वर्ग नर्क का वर्णन है और उल्लेख है कि यहां से राम स्वर्ग गये थे। इस स्थल पर वासुदेव की पूजा का वर्णन है। किसी मंदिर के चिह्न होने का वर्णन यहां भी नहीं है।
सारे विवरण से स्पष्ट होता है कि 11वीं सदी से 18वीं सदी तक ऐसा कोई प्रमाणित ग्रंथ का साक्ष्य नहीं है जो राम के जन्म को अयोध्या में अमुक स्थान पर प्रमाणित करता हो। राम जन्म का स्थान 18वीं सदी के बाद जोड़ा गया। इस आधार पर यह कहना भी झूठ प्रमाणित हो जाता है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि से हिन्दू आस्था जुड़ी हुई है।
दूसरा साक्ष्य —
विश्व हिन्दू परिषद अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय दूसरा साक्ष्य यह प्रस्तुत करती है कि बाबरी मस्जिद में 14 काले पत्थरों के जो स्तम्भ लगे हैं वे गैर इस्लामी हैं। यह साक्ष्य सकारात्मक न होकर नकारात्मक है अर्थात मस्ज़िद नहीं हो सकती है इसलिए मंदिर है। मंदिर है, यह सीधा साक्ष्य नहीं है। इस नकारात्मक साक्ष्य का अर्थ यह भी हो सकता है कि यदि मस्ज़िद न हो तो मंदिर भी न हो और बौद्ध मठ हो। जहां तक काले पत्थरों का प्रश्न है, यह प्रमाणित करना होगा कि काले पत्थर मस्ज़िद में नहीं लगते? दूसरे यह कि क्या ये मस्ज़िद निर्माण के समय के ही हैं या बाद को सजावट के लिए बाहर से लाकर लगवाये गये हैं। इसका निर्णय करने में एक महत्वपूर्ण तथ्य बहुत सहायक होगा कि इस मस्जिद के करीब डेढ़ मील दूरी पर एक कब्रगाह है। अब कब्रगाह में भी दो काले पत्थर वाले खम्भे लगे हैं।
एक दूसरा तथ्य कि बिहार में अनेक ऐसी मस्जिदें हैं जिनमें चौखटे काले वैसाल्ट पत्थर के बने हैं। ये पत्थर पाल राजाओं के काल में बनी मस्ज़िदों में लगाये गये हैं। पटना के गूजरी मौहल्ले में बनी 17वीं सदी की मस्ज़िद इसका उदाहरण है। इसमें काले पत्थर के खम्भे लगे हैं। इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
1. पहला यह कि मस्ज़िद में काले पत्थर का लगाना कोई इस्लाम के विरुद्ध नहीं है।
2. दूसरे यह कि ये काले पत्थर जिस लम्बाई में लगे हैं वह छत तक न होकर 5 फिट के बराबर ही हैं जो मस्ज़िद के अलंकरण के लिए लगाये गये हों। चूंकि काले पत्थर अयोध्या के पास नहीं मिलते तो पटना के पास भी तो नहीं मिलते हैं। जब बाहर से लाकर ये पटना की मस्ज़िदों में लगाये जा सकते हैं तो अयोध्या में बाहर से लाकर क्यों नहीं लगाये जा सकते हैं। हो सकता है कि मंदिर के अलंकरण हेतु ये काले पत्थर बाहर से लाकर बाद को मस्ज़िद में स्तम्भ के रूप में प्रयुक्त किये गये हों।
इन खम्भों के साक्ष्य में एक बात और ध्यान देने की है। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि इन खम्भों पर जो वनमाला का चित्र अंकित है वह वैष्णव चिह्न है इसलिए ये खम्भे मंदिर के हैं किन्तु इसमें सच्चाई नहीं है। वैष्णव पंथ के विष्णु के शंख, चक्र, गदा और पदम चार प्रतीक हैं किन्तु इन चार में एक भी चिह्न इन खम्भों पर अंकित नहीं है। वनमाला तो हर हिन्दू पंथ प्रयोग करता है और हिन्दू के अतिरिक्त दूसरे सम्प्रदाय भी। इस प्रकार काले खम्भों से हिन्दू मंदिर होना प्रमाणित होता हो ऐसा कुछ नहीं है। खम्भों की जो लम्बाई है वह तल से 5 फुट के करीब ऊँचें हैं, ये छत तक नहीं हैं, तो ये दीवार के साथ के नहीं हो सकते हैं। बाद को अलंकरण हेतु बाहर से लाकर लगाये गये प्रमाणित होते हैं।
एक प्रोफेसर वी.वी.लाल को बाबरी मस्ज़िद के दक्षिण में कुछ ईंट वाले आधार मिले हैं जिनसे मंदिर होने की कल्पना की जा सकती है, किन्तु यह शोधपत्र 11 वर्ष बाद 1990 में प्रकाशित किया गया। इसमें इन ईटों के आधार वाले निर्माण का काल उत्तर मध्य काल बताया गया है, जिसका अर्थ होता है 17वीं, 18वीं शताब्दी। यदि मान लिया जाय कि 17वीं, 18वीं शताब्दी में मस्ज़िद के दक्षिण में कोई मंदिर भी था तो 16वीं सदी में बनी मस्ज़िद को मंदिर तोड़ कर बनाया गया था, कैसे सिद्ध होता है। इस प्रकार स्तम्भ और ईंट वाले आधार के सहारे यह सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्ज़िद के निर्माण से पूर्व यहां किसी प्रकार के मंदिर का अस्तित्व था।
खुदाई में मस्ज़िद की ऊपर की खाइयां और मस्ज़िद के तल के ठीक नीचे कलईदार बर्तन मिले हैं। इससे भी यह निष्कर्ष निकलता है कि मस्ज़िद स्वतंत्र जगह पर बनी थी। हिन्दू मंदिर में कलई के बर्तन मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। कलई मुसलमानों की निजी देन है। इससे एक बात सिद्ध होती है कि ये बर्तन जो 13-14वीं सदी के मिले हैं यहां 13-14वीं सदी में मुसलमान बस्ती का होना पाया जाता है और बाबर ने भी वहीं मस्ज़िद बनवायी थी जहां मुसलमान रहते होंगे, हिन्दू नहीं। खुदाई में कोई हिन्दू पात्र नहीं निकला है। ये कलई के बर्तन मुसलमानों की बस्ती होने का संकेत देते हैं और मुसलमानों के लिए मस्ज़िद नमाज पढ़ने के लिए बनायी गयी होगी।
इस प्रकार खम्भों, ईंटों, बर्तनों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मंदिर तोड़ कर मस्ज़िद नहीं बनायी गयी है। अतः यहां विश्व हिन्दू परिषद ने जो बातें कही हैं उनमें एक भी यह सिद्ध नहीं करती कि आज जहां बाबरी मस्ज़िद बनी हुई है वहीं कभी कोई मंदिर था।
मस्ज़िद के स्थान पर मंदिर होने की कल्पना विदेशी लोगों ने फैलायी है। सबसे पहले 1788 में एक बर्लिन के पादरी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया था। उसने लिखा कि ”औरंगजेब ने रामकोट किला ध्वस्त किया था और उसकी जगह मस्ज़िद बनवायी थी। कुछ का कहना है कि यह बाबर ने बनवाया था, उसने पांच पांच बालिस्त ऊँचे 14 काले पत्थरों के खम्भे खड़े किये थे। इन काले पत्थरों का मलवा हनुमान जी द्वारा लंका से लाया गया था। यहां एक चौकी का भी उल्लेख है जिसे राम की जन्मस्थली बताते हैं। यह 525 वर्ग क्षेत्रफल में है।”
जब तक उक्त पुस्तक नहीं लिखी गयी थी किसी को मस्ज़िद, मंदिर तोड़ कर बनायी गयी होने की कल्पना भी नहीं थी। 1810 में फ्रेंसिस बुकनान ने अयोध्या की यात्रा की
उसने लिखा कि राजा विक्रम पवित्रा नगर की खोज में यहां आया था, उसने ‘रामगढ’ नामक किला बनवाया और 360 मंदिर बनावाये। बुकनान ने लिखा कि यहां यह विश्वास है कि बनारस, मथुरा की भांति अयोध्या के मंदिर भी औरंगजेब ने तुड़वाये, किन्तु ऐसा लगता है कि औरंगजेब की पांच पीढ़ी पहले बाबर ने इस मस्ज़िद को बनवाया था, इससे विक्रम का मंदिरों को बनवाने की कहानी झूठ हो जाती है।
इन विदेशी लेखकों के एक दूसरे के विरोधी और स्वयं के द्वंद्वात्मक कथन सिवाय भ्रांति पैदा करने के कोई निष्कर्ष नहीं देते हैं। कभी कहना हनुमान जी पत्थर लाये थे, कभी कहना कि विक्रम ने मंदिर बनाये थे, कभी औरंगजेब ने मंदिर तुड़वाया, तो कभी बाबर ने तुड़वाया, ऐसे कथन हैं जिनका स्वयं में कोई अर्थ नहीं निकलता है और सब संदेह पैदा करते हैं। बुकनान ने तो इन पत्थरों के खम्भों से निष्कर्ष निकाला था कि ये किसी मंदिर के न होकर किसी इमारत से लिए गये हैं। इस कथन से तो विश्व हिन्दू परिषद की खम्भों की सारी कहानी चौपट हो जाती है। विश्व हिन्दू परिषद अपने साहित्य और किसी धर्मग्रंथ से यह सिद्ध नहीं कर सकी कि अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद, मंदिर तोड़ कर बनायी गयी है। परिषद यह कह सकती है कि हमारे धर्मग्रंथ पहले के लिखे गये हैं और बाबर से पहले लिखे गये हैं, उनमें बाबरी मस्ज़िद का वर्णन हो ही नहीं सकता है। यदि यहां कोई राम का मंदिर होता तो उसका वर्णन तो होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि अयोध्या में राम जन्मस्थल पर कोई मंदिर था। जब शास्त्र, पुराण, धर्म सूत्र और स्मृति ग्रंथ में ऐसा कोई वर्णन नहीं है जिससे यह सिद्ध होता है कि राम की जन्मस्थली पर कोई मंदिर बनाया गया था और मंदिर होने का भी कोई वर्णन नहीं है तो किसने बनवाया, कब बनवाया, कैसे बनवाया और क्यों बनवाया, सोचना ही व्यर्थ है।
बाबर की तीसरी पीढ़ी में अकबर आता है। अकबर के जमाने में तुलसी पैदा होते हैं। वे राम के अनन्य भक्त बनते हैं और रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में करते हैं। यदि तुलसी के आराध्य राम की जन्मस्थली ध्वस्त करके मस्ज़िद बनायी गयी होती तो क्या तुलसी चुप रहते? तुलसीदास ने अयोध्या को पूज्य स्थली ही नहीं माना है। उन्होंने प्रयाग को पूज्य माना है अयोध्या को नहीं। तुलसी 17वीं सदी में पैदा हुए थे तब ऐसी कहीं कोई चर्चा नहीं थी, जहां बाबरी मस्ज़िद है वहां पहले कभी कोई राम मंदिर था। आइने अकबरी में अयोध्या का वर्णन है किन्तु अबुल फजल ने भी राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खासकर मस्ज़िद बनवायी, का कोई वर्णन नहीं किया है। बाबर के डेढ़ सौ दो सौ साल बाद ही अकबर का काल आ जाता है और अकबर के काल में ही तुलसी और अबुल फजल काव्य रचना करते हैं, तो हिन्दू और मुसलमान एक भी रचनाकार द्वारा राम के मंदिर को ढहाकर बाबरी मस्ज़िद बनाने का वर्णन नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि बाबर ने मंदिर तुड़वा कर मस्ज़िद नहीं बनवायी थी।
17वीं सदी के प्रथम दशक में एक विलियम फ्लिंच ने अयोध्या में रह कर एक शोध लिखा था। उसने लिखा है कि यहां लोग राम का राज्य बताते हैं, उसे देवता मानते हैं। हिन्दू राम को अवतार मानते हैं। चार पांच लाख वर्ष पुरानी नहीं है। इसके किनारे ब्राह्मण रहते हैं जो रोज इसमें प्रातः नहाते हैं। यहां एक गहरी गुफा है। यह माना जाता है कि इस गुफा में राम की अस्थियां गड़ी हैं। बाहर से लोग यहां आते हैं और काले चावल यहां से ले जाते हैं। यहां से काफी सोना निकाला गया है। इस पुस्तक के वर्णन से राम के मरने का वर्णन मिलता है। जैसे स्कंद पुराण में स्वर्ग द्वार का वर्णन, जहां से राम स्वर्ग सिधारे परंतु इस ग्रंथ से भी राम यहां जन्मे थे उल्लेख नहीं मिलता है। इस ग्रंथ में भी तुलसी के मानस की भांति मंदिर को ध्वस्त कर मस्ज़िद बनाने का कोई उल्लेख नहीं है।
एक हिन्दू सुजान राय भंडारी नामक व्यक्ति के ग्रंथ ”खुलासात ए तवारीख” में मथुरा और अयोध्या का जिक्र है। यह पुस्तक 1695-96 की मानी जाती है पर इसमें भी ऐसा कहीं वर्णन नहीं मिलता कि राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को खसा कर बाबर ने कोई मस्ज़िद बनवायी। यह लेखक यहां एडम के बेटे शीश और पैगम्बर अयूब के मकबरों का वर्णन करता है पर राम के मंदिर का कोई जिक्र नहीं करता है। एक और हिन्दू लेखक राय चर्तुन ने अपनी पुस्तक में राम का वर्णन तो किया है पर राम के मंदिर का वर्णन नहीं किया है। यह पुस्तक 1759-60 में लिखी गयी है। इस प्रकार बाबर के समय बनी मस्जिद के निर्माण के दो सौ वर्ष बाद तक भारत के तुलसी, अवुल फजल तथा विदेशी फ्लिंच जैसे कलमकारों ने अयोध्या में राम के मंदिर का उल्लेख तक नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है विश्व हिन्दू परिषद के पास ऐसा कोई लिखित साक्ष्य नहीं है जो बाबरी मस्ज़िद के स्थान पर पहले मंदिर प्रमाणित कर सके। इसने जो पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं वे बहुत लचर और संदिग्ध हैं।
एक और अभिलिखित साक्ष्य उपलब्ध है। मस्ज़िद निर्माण के बाद मस्ज़िद पर फारसी में खोदे गये अभिलेख हैं जिनका वर्णन बाबरनामा में मिलता है। ए.एस.वेविरिज द्वारा बाबर नामा का जो अनुवाद किया गया है, उस बाबरनामा में शासक मीर बाकी का उल्लेख है। बाबरनामा में बाबरी मस्ज़िद और उस पर खुदे अभिलेखों का वर्णन है, पर कहीं पर ऐसा नहीं प्रतीत होता कि कहीं भी मंदिर खसा कर मस्ज़िद बनवायी गयी हो। इस प्रकार खुदाई से प्राप्त साक्ष्य, मस्ज़िद में बने खम्भों के पुरातत्वीय साक्ष्य और अभिलेखों के साक्ष्य किसी से यह प्रमाणित नहीं होता है कि मंदिर खसा कर मस्ज़िद बनायी गयी थी।
जो भी साक्ष्य अब तक प्राप्त हुआ है उससे निम्न निष्कर्ष निकलते हैं…
1. ग्रंथों के आधार पर ऐसा प्रमाणित होता है कि 18वीं सदी से पूर्व अयोध्या में राम जन्मभूमि के रूप में कोई स्थल पूज्यनीय नहीं था।
2. पुरातत्व और मस्ज़िद पर खुदे अभिलेखों के आधार पर यह कहीं सिद्ध नहीं होता कि बाबरी मस्ज़िद के स्थान पर मंदिर था और मंदिर ध्वस्त कर मस्ज़िद बनायी गयी।
3. सम्पूर्ण साहित्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि 19वीं सदी के आरम्भ तक राम मंदिर का कोई दावा नहीं था। यह चर्चा 1850 के दशक में प्रारम्भ हुई जब सीता रसोई को ध्वस्त करने की मात्र बात उठी थी।
ऊपर के सारे विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ”अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद राम मंदिर को ध्वस्त कर बनायी गयी है” का बवेला व्यर्थ का ढकोसला है और मुसलमानों के विरुद्ध एक सोची समझी साजिश है। सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक तीन सौ चार सौ वर्षों तक जिसका मस्ज़िद बनने के बाद में कोई प्रमाण न मिलता हो ऐसा कोई बिन्दु खडा कर देना सोची समझी साजिश ही है और कुछ नहीं। आज मुसलमानों के विरुद्ध उनको नष्ट करने, उनका ईमान भ्रष्ट करने की साजिशें हो रही हैं, वरना यह कौन बर्दाश्त कर लेगा कि जो मस्ज़िद सोलहवीं सदी में बनी हो उसे ध्वस्त करने का खिलवाड़ किया जाय। इस खिलवाड़ का परिणाम अत्यंत भयंकर होगा।
(एस एल सागर दलित चिंतक हैं.)