दो महीने से कश्मीर के स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय बंद,छात्रों की पढ़ाई ठप

तहलका टुडे टीम  
श्रीनगर: बीते 11 जून को पुराने  छोटा बाजार इलाके के लोगों ने 17 साल पहले सीआरपीएफ की गोलीबारी में मारे गए 28 नागरिकों की याद में एक विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई और प्रशासन ने इस विरोध प्रदर्शन की आच को कम करने के मकसद से उस इलाके को सील कर दिया।
इस सरकारी कदम ने कश्मीरियों के विरोध को भड़काने का काम किया और हालात को काबू में करने के लिए पुलिस ने एक स्कूली लड़के पर करीब से आसू गैस का गोला छोड़ दिया, जिससे उसकी मौत हो गई। तब से धरती की जन्नत कही जाने वाली इस घाटी में भड़की हिंसा ने 68लोगों की जान ले ली, जिनमें अधिकाशत: प्रदर्शनकारी युवा थे।
11 जून को पुलिस की गोली से एक बेकसूर छात्र की मौत का जिक्र खासतौर पर यहा इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि इस घटना के बाद घाटी में सरकारी क‌र्फ्यू, पाबंदिया और अलगाववादी नेताओं के प्रदर्शन के आह्वान के चलते कश्मीर में छात्रों की पढ़ाई ठप हो गई है।
करीब दो महीने से कश्मीर के स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय बंद पड़े हैं। आम छात्र और उनके अभिभावक के लिए यह चिंता का सबब है, मगर कश्मीर में अजादी की लड़ाई का आह्वान करने वाले नेताओं के लिए नहीं।
कश्मीर के इस्लामी रैडिकल ग्रुप दुख्तरान-ए-मिल्लत की नेता आसिया अंदराबी ने 13 जुलाई को अपने एक बयान में कहा कि आजादी की लड़ाई में जान-माल की क्षति और बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होना अपरिहार्य है, लेकिन इस कारण से हम समझौता नहीं कर सकते। विद्यार्थियों, बैलगाड़ी खींचने वाले या दिहाड़ी मजूदरों के इस तरह के त्याग की आजादी पाने के लिए किए जाने जाने वाले महान त्याग के सामने कोई कीमत नहीं है।
श्रीनगर की सड़कों पर प्रदर्शनों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे स्कूल-कालेज बंद होते गए। इस गर्मी में शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का माहौल बनने ही नहीं दिया गया और युवा पीढ़ी पत्थरबाजी में व्यस्त कर दी गई। जून में कुछ प्राइवेट स्कूल फिर से खुले जरूर, लेकिन जल्द ही फिर बंद हो गए। क्योंकि आसिया अंदराबी ने जनता को अगाह कर दिया कि वह इसके नतीजों के लिए जिम्मेदार नहीं होंगी।
आजादी की लड़ाई में छात्रों को स्कूल-कालेज से दूर रहने का आगाज करने वाली इस इस्लामी महिला नेता के 15 वर्षीय बेटे मोहम्मद बिन कासिम की ख्वाहिश मलेशिया में जाकर पढ़ने की है। उसकी पहली पसंद विदेश से बैचलर आफ इन्फारमेंशन टेक्नोलाजी की डिग्री लेने की है और उसके परिवार वालों ने मोहम्मद बिन कासिम की इस ख्वाहिश को पूरा करने के मकसद से बीजा के लिए भी आवेदन कर दिया है। यह कश्मीर से बच्चों, युवा पीढ़ी और आम जनता के साथ धोखा है। पीठ पर छुरा घोंपने जैसा है, जिसके भरोसे अंदराबी, गिलानी जैसे अलगावादी नेता अपना राजनीतिक वजूद बनाए हुए हैं।
कश्मीर में भारत विरोधी राजनीति करने वाले कई इस्लामी नेताओं ने अपने बच्चों और रिश्तेदारों के बच्चों को समस्याग्रस्त कश्मीर से दूर पढ़ने के लिए भेजा हुआ है।
कश्मीर का कुलीन वर्ग भी बच्चों की पढ़ाई को लेकर ज्यादा फिक्रमंद नहीं है, क्योंकि उनकी औलाद यहा से दूर पढ़ रही है। चिंता की लकीरें उन लोगों के चेहरे पर [जिनकी संख्या ज्यादा है] साफ देखी जा सकती है, जो अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए बाहर भेजने का खर्च नहीं उठा सकते।
सनद रहे कि कश्मीर में ढाई दशक तक जारी उग्रवाद के दौर में कश्मीरी बच्चों की शिक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ा था। तब भी आम लोगों के बच्चे पढ़ाई-रोजगार में बिछड़ गए थे और आज भी यही वर्ग प्रभावित हो रहा है। आतंकवाद के हिंसक इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि कई स्कूल भवनों को आतंकियों ने तबाह किया तो कहीं-कहीं सुरक्षा बलों ने अपना अस्थाई बसेरा डाल रखा था।
स्कूल-कालेजों के आस-पास बमबारी की घटनाएं भी छात्र वर्ग के बीच दहशत फैलाने का काम करती हैं। सेना पर लड़कियों के साथ दु‌र्व्यवहार करने के आरोप लगे। लड़कियों को असुरक्षित देख परिवार का ध्यान उनकी उच्च शिक्षा जारी करने की बजाय उनकी शादी पर केंद्रित हो गया। अक्सर लड़कियों की शादी तब होती थी, जब वे एमए कर लेती थीं, लेकिन आतंकवाद के दौर में मां-बाप लड़कियों की शादी 14-15 साल की उम्र में ही करने लगे, जबकि इससे पहले 24-25 साल की उम्र में लड़की ब्याही जाती थी।
नौ साल पहले एम काम के एक विद्यार्थी ने दिल्ली से कश्मीर के हालात जानने के लिए गए एक अध्ययन दल को बताया कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लड़कों की तादाद भी कम हो गई है। वजह राजनीतिक माहौल में आक्रोश, असंतोष। जिन अभिभावकों की जेब में पैसा है, उन्होंने अपने बच्चों को इस आक्रोश से दूर पढ़ने का बंदोबस्त किया हुआ है। उस दौर में आम विद्यार्थी उग्रवादियों और सुरक्षा बलों के बीच पिस रहे थे।
शिक्षा के हालात की तस्वीर को ला की पढ़ाई की इच्छा व्यक्त करने वाली जरीना के अनुसार घाटी में बहुत सारे लड़के और लड़कियों ने पढ़ाई छोड़ दी है, क्योंकि उनके पास आगे पढ़ाई करने के संसाधन नहीं हैं। कश्मीर में उच्च शिक्षा, रोजगार के सारे अवसरों पर उन अमीर लोगों का कब्जा है, जो सरकार के करीब हैं।
कश्मीर के राजनीतिक हालात लड़कियों की शिक्षा को भी अलग तरह से प्रभावित करते हैं। लसे पढ़ने का अपना महत्व है

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