तिग्गी शैतान के चक्कर में फंसा बेचारा किसान
http://tehalkatodayindia.blogspot.com/2010/08/blog-post_39.html
लखनऊ : वोट बैंक की राजनीति जो ना कराए वो कम है। कल तक अलीगढ़ में अपनी जमीन के मुआवजे के लिए एक महीने से लड़ रहे किसानों के साथ कोई नहीं था। लेकिन जैसे ही पुलिस की गोलीबारी में तीन किसानों की मौत हुई तो वहां नेताओं का सैलाब उमड़ पड़ा। क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी, क्या सपा और क्या बसपा। किसी ने यह मौका नहीं छोड़ा कि वे ही किसानों के सबसे बड़े हिमायती हैं यह इतना दुखदायी और पीड़ादायी है कि बताया नहीं जा सकता।
आजादी के 63 साल बाद भी आम-आदमी खासतौर पर किसानों को अपनी मांगों के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। चाहे अपनी फसल के वाजिब दामों के लिए या सिंचाई के पानी के लिए। विडंबना यह है कि जबतक वह उग्र आंदोलन नहीं करता तबतक न तो केंद्र और न ही राज्यों की सरकारें ही उसकी बात सुनती हैं।
हद तो तब हो गई जब मायावती सरकार ने किसानों के 26 अगस्त के संसद घेराव का समर्थन कर दिया। जबकि अलीगढ़ में खुद माया सरकार ही किसानों के आंदोलन को कुचलने में लगी थी। दलितों की कुटियाओं में वोट बैंक तलाशते राहुल गांधी अभी तक किसानों के मंच पर नहीं चढ़े थे। यह दुस्साहस ना उनके पिता राजीव गांधी ने किया और ना ही दादी इंदिरा गांधी ने। लेकिन 21 अगस्त को वे अलीगढ़ के टप्पल में बारिश में भीगते हुए किसानों के मंच पर खड़े थे। हालांकि इतना हौसला उन्हें दलित की झोपड़ी से ही मिला। क्योंकि मंच पर चढ़ने से पहले वे पुलिस गोलीबारी में मरे 12 साल के एक दलित लड़के के परिजनों को सांत्वना देने के लिए उनकी झोपड़ी में गए थे।
इस बार आंदोलन उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र में पनप रहा है। हालांकि, चाहे गंगा एक्सप्रेस वे हो या झांसी से गोरखपुर तक का दूसरा एक्सप्रेस वे, आंदोलन की जमीन पूरे प्रदेश में तैयार हो गई है। लेकिन अलीगढ़ मंडल में यमुना एक्सप्रेस-वे के मामले में जिस तरह से मायावती सरकार बैकफुट पर आई है, उससे लगता नहीं कि 2012 से पहले वह इसी तरह की किसी और परियोजना में हाथ डालेंगी। मायावती ने चाहा था कि ग्रेटर नोएडा से आगरा तक के 165 किलोमीटर के युमना एक्सप्रेस-वे को वे बतौर उपलब्धि लेकर अगले विधानसभा में जाएं। लेकिन, अलीगढ़ के किसानों ने उनके सपनों पर पानी फेर दिया है।
अलीगढ़ के किसानों के विरोध से राज्य के उन दूसरे क्षेत्र के किसानों की भी हिम्मत बंधी है, जिनकी जमीनें इस तरह की परियोजनाओं में या तो जा चुकी हैं या जाने वाली हैं। राष्ट्रीय लोकदल के विधायक दल के नेता कोकब हमीद की मानें तो राज्य में इस तरह की परियोजनाओं से करीब 23 हजार 500 गांव प्रभावित होंगे। जो राज्य के कुल गांवों का तकरीबन एक चौथाई हैं। यमुना एक्सप्रेस वे में ही 1191 गांवों की सात लाख से ज्यादा आबादी प्रभावित होगी। लाजमी है कि विकास होगा तो कुछ लोग प्रभावित होंगे। लेकिन जानने वाली बात यही है कि प्रभावित हमेशा आदिवासी और किसान ही क्यों होता है। विकास के नाम पर उसी की बलि क्यों ली जाती है। क्या यह उसकी नियति है कि जिंदगी भर वह शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से महरूम रहे। और शहर के लोगों को यह सब जल्दी मिले, इसके लिए एक दिन उसका आशियाना भी उजाड़ दिया जाए।
अलीगढ़ में किसानों के उग्र आंदोलन और राज्य के अन्य हिस्सों में भी इसकी आग फैलने की आशंका को देखते हुए मायावती सरकार पूरी तरह बचाव की मुद्रा में आ गई है। मामले की न्यायिक जांच के अलावा मृतक के परिजनों को पांच के बजाए 10 लाख रुपए देने और 450 के बजाए 570 रुपए प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देने के प्रस्ताव के बावजूद किसान आंदोलन वापस लेने के मूड में नहीं हैं। स्थानीय किसान नेता और कांग्रेस के महासचिव राम बाबू कटैलिया के सरकार से समझौते करने के बावजूद किसानों का कहना है कि वे नोएडा की तरह 850 रुपए प्रति वर्ग मीटर के मुआवजे की अपनी मांग पर अड़े रहेंगे। कल यदि किसानों को 850 रुपऐ प्रति वर्ग मीटर या उससे अधिक भी मिल जाए लेकिन मौजूं सवाल यही उठता है ऐसी स्थिति हमेशा बनती ही क्यों है। ऐसा उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के किसी भी अन्य राज्यों में भी देखने को क्यों मिलता है। पहले यह बांधों-खदानों के नाम पर होता था। फिर ‘सेज’ के नाम पर हुआ और अब ई-एक्सप्रेस-वे और ई-टाउनशिप के नाम पर हो रहा है। बांधों से बनी बिजली आज तक गांवों में नहीं पहुंच पाई। खदानों के खनिजों से सरकार और कंपनियों ने अपने खजाने तो भर लिए लेकिन वहां बसे आदिवासियों की कभी सुध नहीं ली। ‘सेज’ के नाम पर हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन किसानों से ले ली गई लेकिन स्थानीय किसानों को ‘सेज’ कंपनियों में नौकरी देने की बात हवा हो गई। और अब एक्सप्रेस वे और टाउनशिप आ गई है। कल को कुछ और आ जाएगा। जमींदोज तो किसान ही होंगे।
दरअसल, किसान और विकास के इस मॉडल के बीच तीन महत्वपूर्ण कड़ियां हैं। पहला, नियम या कह लीजिए कायदे-कानून, दूसरा, नीति निर्धारण में किसान या दबे कुचलों की कोई नुमाइंदगी नहीं होना और तीसरा शासन का आज भी अंग्रेजों की तरह काम करना। मायावती ने अपने बयान में अलीगढ़ की घटना के लिए केंद्र को भी जिम्मेदार ठहराया है। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन कुछ हद तक वे सही हैं। दरअसल, उनका इशारा भूमि अधिग्रहण अधिनयम 1894 की ओर है। देश का दबा कुचला वर्ग शासन के खिलाफ कुछ बोल न सके, इसके लिए अंग्रेजों ने यह कानून सवा सौ साल पहने बनाया था। कानून के तहत सरकार सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किसी की भी जमीन ले सकती है। इस कानून में संशोधन के लिए बीते 12 सालों से बात चल रही है। पहली बैठक अक्टूबर 1998 में हुई थी। दिल्ली में बैठकों और सुनवाइयों के कई दौर चले। 6 दिसंबर 2007 को इसे लोकसभा में रखा गया लेकिन अगले ही दिन ग्रामीण विकास मंत्रालय की स्थायी समिति को भेज दिया गया। इसके बाद कैबिनेट की मंजूरी मिलने पर बीते साल फरवरी में इसे फिर से लोकसभा में लाया गया और पारित किया गया। लेकिन लोकसभा भंग होने के कारण यह विधेयक कानून में तब्दील नहीं हो सका।
दरअसल, इस भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक 2007 के कुछ नियमों को लेकर यूपीए 2 की घटक तृणमूल कांग्रेस का भारी विरोध है। पार्टी की नेता ममता बनर्जी का कहना है कि बिल मौजूदा प्रारूप में पास होता है तो वह नंदीग्राम के लोगों को मुंह नहीं दिखा सकती हैं। बिल में प्रस्तावित है कि किसी कंपनी को जमीन अधिग्रहीत करनी है तो कुल जमीन का 30 फीसदी हिस्सा सरकार उसे उपलब्ध कराएगी (जाहिर है कि यह बाजार दर से कम होगा)। शेष 70 फीसदी हिस्सा कंपनी निजी खातेदारों से मौलभाव कर खरीद सकेगी। ममता का कहना है कि सरकार इसमें शामिल न हो। कंपनी पूरी की पूरी जमीन किसानों के साथ डील कर खरीदे। इसमें चाहे तो किसान जमीन को बेचे या न बेचे, यह उसका अधिकार क्षेत्र होगा। शासन का उसमें कोई दखल नहीं होना चाहिए। अलीगढ़ का मामला उठने पर संसद में यूपीए के नेता प्रणब मुखर्जी ने सांसदों को आश्वस्त किया कि संशोधित भूमि अधिग्रहण (संशोधित) विधेयक 2007 जल्द ही सदन के पटल पर रखा जाएगा। और इसके साथ पुनर्वास एवं पुनर्विस्थापन विधेयक 2007 भी लाया जाएगा।
ऐसा नहीं है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक वर्ष 1894 के बाद कभी संशोधित ही नहीं हुआ। आजादी से पहले यह 4 बार और आजादी के बाद 3 बार संशोधित हुआ। लेकिन उसकी मूल भावनी वही बनी रही कि जनउद्देश्य के लिए किसी भी व्यक्ति या संस्थान की जमीन अधिग्रहीत की जा सकती है। इस बार जो प्रारूप तैयार किया जा रहा है उसमें चाहे शासन हो या निजी क्षेत्र जिस किसी को भी जमीन चाहिए, सीधे किसान से मोल-भाव करे और खरीदे। कोई जोर जबरदस्ती नहीं। इस संशोधित विधेयक को तैयार करते समय जो सबसे बड़ी खामी रही वह यह कि खुली सुनवाइयों के बारे में देश के किसानों को कोई जानकारी नहीं मिल पाईं। बिल में भले ही सुधार हो जाए, आप चाहे कितने भी कानून बना लीजिए लेकिन शासन का जिले में नुमाइंदा कलेक्टर आज भी वैसे ही काम करता है जब अंग्रेजों ने पहली बार वर्ष 1833 में इसे अपने शासन में शामिल किया था।
मौजूदा हालात में किसानों को चाहिए कि वे अपनी जमीन को बेचने के बजाए उसे 10 साल की लीज पर संबंधित सरकार या कंपनी को दें। अनुबंध में करार किया जाए कि हर दस साल बाद लीज की दरों में बाजार दरों के हिसाब से बदलाव किया जाएगा। दूसरे, सरकार या निजी कंपनी जितनी जमीन किसान से खरीदती है या लीज पर लेती है, उतनी ही कृषि योग्य जमीन समीपवर्ती पंचायतों में उपलब्ध कराए। पंचायतों में जमीन छांटने का अधिकार किसान को दिया जाए। किसानों की संख्या ज्यादा होने पर लॉटरी प्रक्रिया अपनाई जाए। तीसरा, अधिग्रहीत कृषि योग्य जमीन पर कोई टाउनशिप बसाई जा रही है तो वहां के स्कूल और अस्पताल में प्रभावित किसानों के परिवारों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा और इलाज मिले। चौथा, उस जमीन पर कोई भी लाभ वाला व्यवसाय होता है तो उसका कुछ प्रतिशत संबंधित ग्राम पंचायत के कोष में जमा हो, जिसका उपयोग प्रभावित परिवारों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान में किया जा सके। साथ ही इन संस्थानों में प्रभावित परिवार के कम से कम एक सदस्य को स्थायी रोजगार उपलब्ध कराया जाए। पांचवा और महत्वपूर्ण, निजी संस्थान या सरकार से पीड़ित परिवारों की सुनवाई के लिए मंडल और राज्य स्तर पर सुनवाई प्राधिकरण बनें और इनमें किसानों का भी प्रतिनिधित्व हो।
लब्बोलुआब यह है कि सरकार, शासन और बाजार का जो तिगड्डा है वह इतनी आसानी से नहीं टूटने वाला। जरूरत यह है कि किसान अपने हक के लिए आगे आएं और जो अधिकार मिले हुए हैं उनके अमलीकरण के लिए शासन पर पूरा जोर बनाएं। सरकार, शासन और बाजार का जो तिगड्डा है वह इतनी आसानी से नहीं टूटने वाला।
आजादी के 63 साल बाद भी आम-आदमी खासतौर पर किसानों को अपनी मांगों के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। चाहे अपनी फसल के वाजिब दामों के लिए या सिंचाई के पानी के लिए। विडंबना यह है कि जबतक वह उग्र आंदोलन नहीं करता तबतक न तो केंद्र और न ही राज्यों की सरकारें ही उसकी बात सुनती हैं।
हद तो तब हो गई जब मायावती सरकार ने किसानों के 26 अगस्त के संसद घेराव का समर्थन कर दिया। जबकि अलीगढ़ में खुद माया सरकार ही किसानों के आंदोलन को कुचलने में लगी थी। दलितों की कुटियाओं में वोट बैंक तलाशते राहुल गांधी अभी तक किसानों के मंच पर नहीं चढ़े थे। यह दुस्साहस ना उनके पिता राजीव गांधी ने किया और ना ही दादी इंदिरा गांधी ने। लेकिन 21 अगस्त को वे अलीगढ़ के टप्पल में बारिश में भीगते हुए किसानों के मंच पर खड़े थे। हालांकि इतना हौसला उन्हें दलित की झोपड़ी से ही मिला। क्योंकि मंच पर चढ़ने से पहले वे पुलिस गोलीबारी में मरे 12 साल के एक दलित लड़के के परिजनों को सांत्वना देने के लिए उनकी झोपड़ी में गए थे।
इस बार आंदोलन उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र में पनप रहा है। हालांकि, चाहे गंगा एक्सप्रेस वे हो या झांसी से गोरखपुर तक का दूसरा एक्सप्रेस वे, आंदोलन की जमीन पूरे प्रदेश में तैयार हो गई है। लेकिन अलीगढ़ मंडल में यमुना एक्सप्रेस-वे के मामले में जिस तरह से मायावती सरकार बैकफुट पर आई है, उससे लगता नहीं कि 2012 से पहले वह इसी तरह की किसी और परियोजना में हाथ डालेंगी। मायावती ने चाहा था कि ग्रेटर नोएडा से आगरा तक के 165 किलोमीटर के युमना एक्सप्रेस-वे को वे बतौर उपलब्धि लेकर अगले विधानसभा में जाएं। लेकिन, अलीगढ़ के किसानों ने उनके सपनों पर पानी फेर दिया है।
अलीगढ़ के किसानों के विरोध से राज्य के उन दूसरे क्षेत्र के किसानों की भी हिम्मत बंधी है, जिनकी जमीनें इस तरह की परियोजनाओं में या तो जा चुकी हैं या जाने वाली हैं। राष्ट्रीय लोकदल के विधायक दल के नेता कोकब हमीद की मानें तो राज्य में इस तरह की परियोजनाओं से करीब 23 हजार 500 गांव प्रभावित होंगे। जो राज्य के कुल गांवों का तकरीबन एक चौथाई हैं। यमुना एक्सप्रेस वे में ही 1191 गांवों की सात लाख से ज्यादा आबादी प्रभावित होगी। लाजमी है कि विकास होगा तो कुछ लोग प्रभावित होंगे। लेकिन जानने वाली बात यही है कि प्रभावित हमेशा आदिवासी और किसान ही क्यों होता है। विकास के नाम पर उसी की बलि क्यों ली जाती है। क्या यह उसकी नियति है कि जिंदगी भर वह शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से महरूम रहे। और शहर के लोगों को यह सब जल्दी मिले, इसके लिए एक दिन उसका आशियाना भी उजाड़ दिया जाए।
अलीगढ़ में किसानों के उग्र आंदोलन और राज्य के अन्य हिस्सों में भी इसकी आग फैलने की आशंका को देखते हुए मायावती सरकार पूरी तरह बचाव की मुद्रा में आ गई है। मामले की न्यायिक जांच के अलावा मृतक के परिजनों को पांच के बजाए 10 लाख रुपए देने और 450 के बजाए 570 रुपए प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देने के प्रस्ताव के बावजूद किसान आंदोलन वापस लेने के मूड में नहीं हैं। स्थानीय किसान नेता और कांग्रेस के महासचिव राम बाबू कटैलिया के सरकार से समझौते करने के बावजूद किसानों का कहना है कि वे नोएडा की तरह 850 रुपए प्रति वर्ग मीटर के मुआवजे की अपनी मांग पर अड़े रहेंगे। कल यदि किसानों को 850 रुपऐ प्रति वर्ग मीटर या उससे अधिक भी मिल जाए लेकिन मौजूं सवाल यही उठता है ऐसी स्थिति हमेशा बनती ही क्यों है। ऐसा उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के किसी भी अन्य राज्यों में भी देखने को क्यों मिलता है। पहले यह बांधों-खदानों के नाम पर होता था। फिर ‘सेज’ के नाम पर हुआ और अब ई-एक्सप्रेस-वे और ई-टाउनशिप के नाम पर हो रहा है। बांधों से बनी बिजली आज तक गांवों में नहीं पहुंच पाई। खदानों के खनिजों से सरकार और कंपनियों ने अपने खजाने तो भर लिए लेकिन वहां बसे आदिवासियों की कभी सुध नहीं ली। ‘सेज’ के नाम पर हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन किसानों से ले ली गई लेकिन स्थानीय किसानों को ‘सेज’ कंपनियों में नौकरी देने की बात हवा हो गई। और अब एक्सप्रेस वे और टाउनशिप आ गई है। कल को कुछ और आ जाएगा। जमींदोज तो किसान ही होंगे।
दरअसल, किसान और विकास के इस मॉडल के बीच तीन महत्वपूर्ण कड़ियां हैं। पहला, नियम या कह लीजिए कायदे-कानून, दूसरा, नीति निर्धारण में किसान या दबे कुचलों की कोई नुमाइंदगी नहीं होना और तीसरा शासन का आज भी अंग्रेजों की तरह काम करना। मायावती ने अपने बयान में अलीगढ़ की घटना के लिए केंद्र को भी जिम्मेदार ठहराया है। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन कुछ हद तक वे सही हैं। दरअसल, उनका इशारा भूमि अधिग्रहण अधिनयम 1894 की ओर है। देश का दबा कुचला वर्ग शासन के खिलाफ कुछ बोल न सके, इसके लिए अंग्रेजों ने यह कानून सवा सौ साल पहने बनाया था। कानून के तहत सरकार सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किसी की भी जमीन ले सकती है। इस कानून में संशोधन के लिए बीते 12 सालों से बात चल रही है। पहली बैठक अक्टूबर 1998 में हुई थी। दिल्ली में बैठकों और सुनवाइयों के कई दौर चले। 6 दिसंबर 2007 को इसे लोकसभा में रखा गया लेकिन अगले ही दिन ग्रामीण विकास मंत्रालय की स्थायी समिति को भेज दिया गया। इसके बाद कैबिनेट की मंजूरी मिलने पर बीते साल फरवरी में इसे फिर से लोकसभा में लाया गया और पारित किया गया। लेकिन लोकसभा भंग होने के कारण यह विधेयक कानून में तब्दील नहीं हो सका।
दरअसल, इस भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक 2007 के कुछ नियमों को लेकर यूपीए 2 की घटक तृणमूल कांग्रेस का भारी विरोध है। पार्टी की नेता ममता बनर्जी का कहना है कि बिल मौजूदा प्रारूप में पास होता है तो वह नंदीग्राम के लोगों को मुंह नहीं दिखा सकती हैं। बिल में प्रस्तावित है कि किसी कंपनी को जमीन अधिग्रहीत करनी है तो कुल जमीन का 30 फीसदी हिस्सा सरकार उसे उपलब्ध कराएगी (जाहिर है कि यह बाजार दर से कम होगा)। शेष 70 फीसदी हिस्सा कंपनी निजी खातेदारों से मौलभाव कर खरीद सकेगी। ममता का कहना है कि सरकार इसमें शामिल न हो। कंपनी पूरी की पूरी जमीन किसानों के साथ डील कर खरीदे। इसमें चाहे तो किसान जमीन को बेचे या न बेचे, यह उसका अधिकार क्षेत्र होगा। शासन का उसमें कोई दखल नहीं होना चाहिए। अलीगढ़ का मामला उठने पर संसद में यूपीए के नेता प्रणब मुखर्जी ने सांसदों को आश्वस्त किया कि संशोधित भूमि अधिग्रहण (संशोधित) विधेयक 2007 जल्द ही सदन के पटल पर रखा जाएगा। और इसके साथ पुनर्वास एवं पुनर्विस्थापन विधेयक 2007 भी लाया जाएगा।
ऐसा नहीं है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक वर्ष 1894 के बाद कभी संशोधित ही नहीं हुआ। आजादी से पहले यह 4 बार और आजादी के बाद 3 बार संशोधित हुआ। लेकिन उसकी मूल भावनी वही बनी रही कि जनउद्देश्य के लिए किसी भी व्यक्ति या संस्थान की जमीन अधिग्रहीत की जा सकती है। इस बार जो प्रारूप तैयार किया जा रहा है उसमें चाहे शासन हो या निजी क्षेत्र जिस किसी को भी जमीन चाहिए, सीधे किसान से मोल-भाव करे और खरीदे। कोई जोर जबरदस्ती नहीं। इस संशोधित विधेयक को तैयार करते समय जो सबसे बड़ी खामी रही वह यह कि खुली सुनवाइयों के बारे में देश के किसानों को कोई जानकारी नहीं मिल पाईं। बिल में भले ही सुधार हो जाए, आप चाहे कितने भी कानून बना लीजिए लेकिन शासन का जिले में नुमाइंदा कलेक्टर आज भी वैसे ही काम करता है जब अंग्रेजों ने पहली बार वर्ष 1833 में इसे अपने शासन में शामिल किया था।
मौजूदा हालात में किसानों को चाहिए कि वे अपनी जमीन को बेचने के बजाए उसे 10 साल की लीज पर संबंधित सरकार या कंपनी को दें। अनुबंध में करार किया जाए कि हर दस साल बाद लीज की दरों में बाजार दरों के हिसाब से बदलाव किया जाएगा। दूसरे, सरकार या निजी कंपनी जितनी जमीन किसान से खरीदती है या लीज पर लेती है, उतनी ही कृषि योग्य जमीन समीपवर्ती पंचायतों में उपलब्ध कराए। पंचायतों में जमीन छांटने का अधिकार किसान को दिया जाए। किसानों की संख्या ज्यादा होने पर लॉटरी प्रक्रिया अपनाई जाए। तीसरा, अधिग्रहीत कृषि योग्य जमीन पर कोई टाउनशिप बसाई जा रही है तो वहां के स्कूल और अस्पताल में प्रभावित किसानों के परिवारों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा और इलाज मिले। चौथा, उस जमीन पर कोई भी लाभ वाला व्यवसाय होता है तो उसका कुछ प्रतिशत संबंधित ग्राम पंचायत के कोष में जमा हो, जिसका उपयोग प्रभावित परिवारों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान में किया जा सके। साथ ही इन संस्थानों में प्रभावित परिवार के कम से कम एक सदस्य को स्थायी रोजगार उपलब्ध कराया जाए। पांचवा और महत्वपूर्ण, निजी संस्थान या सरकार से पीड़ित परिवारों की सुनवाई के लिए मंडल और राज्य स्तर पर सुनवाई प्राधिकरण बनें और इनमें किसानों का भी प्रतिनिधित्व हो।
लब्बोलुआब यह है कि सरकार, शासन और बाजार का जो तिगड्डा है वह इतनी आसानी से नहीं टूटने वाला। जरूरत यह है कि किसान अपने हक के लिए आगे आएं और जो अधिकार मिले हुए हैं उनके अमलीकरण के लिए शासन पर पूरा जोर बनाएं। सरकार, शासन और बाजार का जो तिगड्डा है वह इतनी आसानी से नहीं टूटने वाला।
