मैं भटकती आत्मा हूं: डॉ. असगर वजाहत

 मूड एक कैफियत किसी भी रचना का चेहरा होता है। उसमें अगर संवेदनाओं के तंतु गूंथ दिए जाएं तो वो रचना सांस लेने लगती है। उसके चरित्र हमारे आसपास घूमने लगते हैं। और ऐसी रचनाएं पाठकों के दिल के करीब पहुंच जाती है और यही किसी रचनाकार की सबसे बड़ी उपलब्‍धि‍ होती है। ऐसी ही उपलब्धियों से भरपूर हैं डा.असगर वजाहत। उर्दू व हिंदी की दुनिया को उन्होंने अपनी अनेकों बेहतरीन रचनाओं से नवाजा है। वे जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर हैं। उनकी शख्सियत में लेखक के अलावा भी बहुत सारे रंग हैं, जिन्हें कभी वे फोटोग्राफी के शौक में तब्दील करते हैं तो कभी पेंटिंग के। बदलते दौर में रचनाओं के अस्तित्व व उनमें आये बदलावों पर अपनी लखनऊ यात्रा के दौरान उन्होंने हमसे खुलकर बातचीत की।
इस बदलते दौर में कहानी या उपन्यास में भी क्या कुछ बदलाव महसूस करते हैं?
यह सचमुच बदलावों से भरपूर दौर है। चारों ओर इतना कुछ घट रहा है। हर रोज कुछ नया हो रहा है। आजकल लिखने के लिए विषयों की भरमार है। जो नये लेखक आ रहे हैं उनमें काफी ऊर्जा है, चुनौतियों को, घटनाओं को वे नये कलेवर में प्रस्तुत करते हैं। मेरे हिसाब से यह काफी सृजनात्मक दौर है।
क्या इलेक्ट्रिॉनिक मीडिया के आने से साहि‍त्‍य को किसी तरह का नुकसान हुआ है?
मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो साहि‍त्‍य को विस्तार ही दिया है। साहि‍त्‍य की कई खूबसूरत कृतियों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने आम लोगों तक पहुंचाया है। कई पर फिल्में बनीं, कई पर सीरियल्स बने। यह सिर्फ नजरिए की बात है। लेकिन जब भी साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनीं या सीरियल्स बने, तो डायरेक्टर्स पर यह आरोप लगे कि उन्होंने रचनाओं के साथ न्याय नहीं किया? अगर साहित्यिक रचनाओं को समझने वाला व्यक्ति होगा तो कृतियों के साथ नाइंसाफी कभी नहीं होगी। ऐसी भी रचनाएं हैं, जि‍न पर फि‍ल्‍में या धारावाहि‍क बनने के बाद वे और ज्‍यादा वि‍ख्‍यात हो गये।
इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स की बाढ़ सी आ गई है। क्या इनके आने से भाषा को किसी तरह का खतरा पैदा हुआ है?भाषा को खतरा नहीं हुआ है बल्कि उसे विस्तार मिला है। भाषा सदैव परिवर्तनशील होती है। आज अगर उसमें अंग्रेजी के शब्द भी शामिल हो रहे हैं, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। जब हिंदी में उर्दू, फारसी और पुर्तगाली शब्दों को शामिल करके उसे और समृद्ध किया जाता है, तो अंग्रेजी के शामिल होने से उसे नुकसान किस तरह होगा? बल्कि यह तो भाषा का विस्तार ही हुआ। भाषा तभी ज्यादा करीब की लगती है जब वह बदलते हुए समय की संवेदनाओं से जुड़ती चले। आज के समय में हम ठेठ हिन्दी के बारे में सोच ही नहीं सकते। शायद इस दौर में पुराने लेखक भी होते तो इसी भाषा में रचते। अगर हमारा सामना चार पांच पीढिय़ों पहले के अपने पुरखों से हो जाएं, तो शायद उनसे बात करना मुश्किल हो जायेगा। तो भाषा में हो रहे बदलाव को सकारात्‍मक तौर पर देखा जाना चाहि‍ये।
अपनी नजर में डा. असगर वजाहत क्या हैं?
मैं एक भटकती आत्मा हूं। कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, पेंटिंग, फोटोग्राफी इन सबमें जिंदगी के रंग तलाशता फिरता हूं। कभी कोई विधा मेरे करीब आ जाती है तो कभी मैं किसी विधा के करीब चला जाता हूं। यह आंख मिचौली चलती रहती है।
फिर भी आपकी पसंदीदा विधा कौन सी है?
कविता मुझे पसंद है, लेकिन सिर्फ पढऩा। मैं कविता लिख नहीं पाता। कविता लिखना काफी मुश्किल काम है। मुझे लगता है कि जिसने पिछले जन्मों में अच्छे कर्म किए होते हैं वही कविता लिख पाता है।
फोटोग्राफी का शौक कैसे जागा? पांच सालों की यूरोप की यात्रा के दौरान मेरे अंदर पेंटिंग के प्रति मोह जागा। हो सकता है कि इसका कारण यह रहा हो कि लोगों से संवाद करने के लिये भाषा की बाधा थी। उस दौरान मेरा विजुअलाइजेशन काफी स्ट्रॉन्ग हुआ। फोटोग्राफी और पेंटिंग के जरिये मैं खुद को व्यक्त करने की कोशिश करने लगा। और यह काफी मजेदार अनुभव रहा। इसके बाद मुझे इसमें आनंद आने लगा। इस दौरान मैंने भले ही कम लिखा हो लेकिन खुद को काफी अभिव्यक्त किया वह भी नयी भाषा में। यानी रंगों और लकीरों की भाषा में। एक बात बताऊं आपको मैं इन दिनों अपना और अपने परिवेश का विजुअल रिकॉर्ड बना रहा हूं।
क्या साहित्य से किसी तरह का कोई आन्दोलन संभव है?
साहित्य अचानक किसी आन्दोलन को जन्म नहीं देता। यह जन साधारण की चेतना को बहुत धीरे-धीरे जगाता है। लेकिन, यह धीरे-धीरे की प्रक्रि‍या काफी अहम है। हर महत्वपूर्ण विचार, महत्वपूर्ण पुस्तक इस आन्दोलन के औजार सरीखे हैं।
आपकी पसंदीदा रचना कौन सी है?
मेरी पंसदीदा रचना... यह तो बड़ा सवाल है इसका जवाब आसान नहीं... (कुछ देर रुककर, सोचते हुए) मेरे ख्याल से पसंद की रचना वह होती है जिसे आपका खुद बार-बार पढऩे का जी चाहे। मेरा नाटक जस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्याई नई है इन दिनों मेरे हाथों में अक्सर देखी जा सकती है। इस पर सुभाष घई फिल्म भी बनाने वाले हैं।
खाली वक्त में डा.वजाहत पढऩे लिखने के अलावा क्या करना पसंद करते हैं?
मैं अकेले बैठकर सोचना पसंद करता हूं। बस मुश्किल है कि वो खाली वक्त मिल पाये। अपने आप में जाना, खुद से बातें करना अपना एनालिसिस करना मेरे खाली समय का सबसे प्रिय शगल है।
प्यार क्या है?
हर इंसान का इंसान से प्यार करना मेरे लिए प्यार शब्द का सही तर्जुमान है। धर्म जाति, देश नस्ल रंग सब बेकार हैं। सबसे ऊपर है मनुष्यता।मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीं और मनुष्यता को प्यार करने के अलावा प्यार का कोई और अर्थ नहीं हो सकता।
नई पीढ़ी के लिए कोई संदेश?
यह पीढ़ी बहुत ऊर्जावान है। इससे तो हमें ही बहुत कुछ सीखना है। फिर भी मेरा संदेश नहीं बल्कि दुआ है कि वह कुछ समय अपने आपको दे। पढ़े लिखे और जिस ऊर्जा के साथ जीती है उसी के साथ जीती रहे

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