दूसरी आजादी के लिए अनशन?
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अण्णा हजारे संकटों के बीच दूसरी आजादी के लिए अनशन पर हैं. अन्ना हजारे को दूसरा गांधी बताया जा रहा है और उनके आंदोलन को दूसरी आजादी का आंदोलन. जयप्रकाश नारायण ने भी 1975 में आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ी थी. छात्रों के आंदोलन को जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व मिल गया और नौजवानों ने संपूर्ण क्राति का बिगुल बजा दिया था. जिन इंदिरा गांधी को उस वक्त चार साल पहले देश बांग्लादेश की बहादुरी पर दुर्गा का अवतार करार दे रहा था, वही इंदिरा "डायन" बन गई थीं. अन्ना के साथ अक्सर प्रेस वार्ताओं में नजर आनेवाले शांति भूषण ने ही कानून के कटघरे में इंदिरा गांधी को परास्त किया था. सतहत्तर में आम चुनाव हुए और कांग्रेस पराजित हो गई.
आजाद मुल्क में पहली बार वह बड़ा परिविर्तन था. गैर कांग्रेसवाद बहुत मुखर होकर सामने आया था और भविष्य के लिए मजबूत विपक्ष का रास्ता खोला था. दुर्गा का दर्प मिट गया. लेकिन दुर्गा को डायन बताकर जो लोग सत्ता में आये थे आखिर वे सरकार क्यों नहीं चला पाये? जयप्रकाश की ‘संपूर्ण क्रांति’ किस तरह से विस्मृत हो चुकी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसकी पैदाइशवाली सरकार के कानून मंत्री शांतिभूषण अब स्वयं दूसरी आजादी की बात कर रहे हैं, जब यही शांतिभूषण ‘दूसरी आजादी’ में थे, तो इसे तीसरी आजादी होना चाहिए। क्या 1975-77 का आंदोलन कहीं से भी अण्णा हजारे के मल्टीमीडिया आंदोलन से कमतर था? कदापि नहीं। सच तो यह है कि उस आंदोलन के समक्ष दूसरी आजादी का वर्तमान आंदोलन कहीं नहीं टिकता। जेपी के उस आंदोलन ने भारतीय राजनीति को पूरी पीढ़ी प्रदान की। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर, कर्पूरी ठाकुर, रामनरेश यादव, चिमनभाई पटेल, देवीलाल जैसे पुराने नेता। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतिश कुमार, सुशील कुमार मोदी, अरुण जेटली, प्रमोद महाजन, रामविलास पासवान जैसे दर्जनों नेता छात्र-युवा राजनीति में उसी जमाने में आए। इनमें से हर नेता किरण बेदी या अरविंद केजरीवाल से ज्यादा प्रभावोत्पादक रहा है। जेपी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के समक्ष अण्णा हजारे कहीं नहीं टिकते। ऐसे में ‘दूसरी आजादी’ की बातें बेवकूफाना लगते हैं।बाबा गए, अण्णा आए
कुटिल कांग्रेसी बाबा रामदेव की रेड पीट चुके हैं। अण्णा हजारे का आंदोलन भी बुझने के पहले वाले दीपक की तरह भभक कर जल रहा है। इन आंदोलनों की अकाल मृत्यु दुखद है, किंतु यथार्थ को नकारा भी तो नहीं जा सकता। 1977 में जनता ने संपूर्ण क्रांति का जनादेश दिया था। उस जनादेश को मोरारजी देसाई जैसे कांग्रेसी ही चाट गए। आज भी अवाम सरकार की तानाशाही के खिलाफ नाराज है। वह पूरी व्यवस्था को बदलना चाहती है। इसीलिए वह कहीं से भी बदलाव की किरण दिखाई देती है तो उस ओर बढ़ती है। किसी अण्णा हजारे या बाबा रामदेव में संभावना तलाशती है। लेकिन शीघ्रही उसका सपना टूट जाता है। जब आम आदमी किसी बाबा रामदेव को आंदोलन के मंच से बंदर की तरह कूद कर महिला के वेश में भागते देखता है तो वह स्वयं को कातर पाता है। जब वह पाता है कि कालेधन पर कोलाहल मचानेवाले खुद काले धन के कारोबार में अपने हाथ काले किए पड़े हैं तो उसका विश्वास खंडित होता है। गांधी के नाम की दुहाई देने वाले अण्णा हजारे जब सरकारी मेहमाननवाजी के नाम पर सत्ता की पत्तल चाटते दिखाई देते हैं तो भ्रष्टाचार के खिलाफ तनी उसकी अपनी मुट्ठियां ढीली पड़ जाती हैं।
पस्त समाज
परिणाम सामने हैं, देश का अधिकांश समाज जीवन के संग्राम में स्वयं को परास्त पाता है। अंतर सिर्फ इतना है कि देश के किसी हिस्सेमें 100 में से 80 लोग हार स्वीकार चुके हैं तो कहीं 100 में से 95। आजीविका का अर्थशास्त्र नाक की सीध में औंधा पड़ा है। प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, गृहमंत्री, पंचायती राज मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के पदों पर विद्वान अर्थवेत्ताओं के बैठे होने के बावजूद वृद्धि का फलसफा उलझा पड़ा है। सरकार डोर सुलझाने की बात तो करती है पर सिरे का कहीं पता नहीं। सवाल स्वाभाविक है कि 9 से 10 फीसदी की दर से आर्थिक वृद्धिवाले देश की आजीविका की जुगाड़ में जुटे 100 में से 80 आदमी क्यों रहे हैं? किसी ने अगर सत्ताधीशों से ये सवाल दाग दिया तो वे तो छूटते ही जवाब दे देंगे सरकार ने इतनी सारी विकास योजनाओं को क्रियान्वित कर दिया है। नरेगा के माध्यम से हर परिवार को न्यूनतम रोजगार देने की गारंटी है। इतनी सारी सिंचाई परियोजनाएं चल रही हैं। सड़के बनाई जा रही हैं, अस्पताल खुल रहे हैं, शिक्षा का बुनियादी अधिकार हर किसी को दिया जा रहा है।
आम आदमी की मजबूरी
सरकार खाद्य कानून बना रही है। जिंदगी जीने-संवारने के लिए इतनी सारी सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं। फिर किसी को जिंदगीकी जंग हारने की क्या जरूरत? आम आदमी क्या जवाब दे सकता है सिवा अपनी चूक स्वीकारने के। वह यही कह सकता है कि आपने जो कुछ विकास का ढांचा खड़ा किया है, उसका लाभ लेने की हममें तमीज ही नहीं है। आजादी के पहले 44 वर्षो तक गांव की पूंजी श्रम शक्ति सहित शहर की ओर भागी। बीते 20 वर्षो से हम वैश्विक गांव में तब्दील हो चुके हैं। अब यह पूंजी शहर छोड़कर दुनिया भर में बेतहाशा उड़ रही है। कोई एआईजी डूबता है अमेरिका में और स्यापा शुरू होता है भारत में। टूटेगा डॉलर और ध्वस्त हो जाएगा रुपया।
स्वतंत्रता दिवस और अर्थव्यवस्था
हम स्वतंत्रता दिवस किस बात का मनाते हैं? औपनिवेशिक व्यवस्था से मुक्ति का ही न? हमारे देश का कच्चा माल ब्रिटेन जा रहा था और वहां से तैयार होकर आने वाले माल के लिए हम बाजार हुआ करते थे। हमारे कच्चे माल का भाव तय करता था अंग्रेज हुक्मरान, पक्के माल का तो वह मालिक ही था। आज भी तो वही औपनिवेशिक अर्थ-व्यवस्था है। कॉरपोरेट कंपनियों के नियंता पूंजी बाजारों में बैठे हैं। इन पूंजीबाजारों की नाभिनाल लंदन, न्यूयार्क, टोक्यो, बीजिंग से जुड़ी है। सारे जीवन का ताना-बाना रुपए पर निर्भर है और रुपया वैश्विक मौद्रिक व्यवस्था का गुलाम। कोई इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा सकता। कहां उठाएगा आवाज? अखबार-न्यूज चैनल सहित पूरी दुनिया का नियंता कॉरपोरेट के चरण चापन पर निर्भर है।
जरा पीछे मुड़कर देखें!
जरा 81 साल पीछे मुड़कर देखें। 1930 में महात्मा गांधी ने कांग्रेस के अधिवेशन में स्वतंत्रता का घोषणापत्र पेश कराया था। उसमें अंग्रेजी राज में भारत के पतन की व्यथा-कथा कही गई थी। आरोप लगाया गया था कि अंग्रेजी राज में आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक हर तरह की गिरावट आई है। अंग्रेजी राज के समर्थक ही उस जमाने में भी मुख्य धारा की ‘मीडिया’ के नियंता थे। वे तो अंग्रेजों का गौरव गान कर रहे थे कि अंग्रेजों ने रेलगाड़ियां चलाईं, सड़कें-नहरें निकाली, बड़े-बड़े विश्वविद्यालय स्थापित किए। न्याय प्रणाली-डाक प्रणाली शुरू की। ऐसे में अंग्रेजों का विरोध करना जहालत है। एक दैनिक समाचार-पत्र के संपादकीय में लिखा गया --कांग्रेस का घोषणा-पत्र स्वतंत्रता का नहीं, अकृतज्ञता का घोषणा-पत्र है। जिस अंग्रेजी राज ने इतने सारे विकास के कार्य किए, उसके प्रति इतनी घोर अकृतज्ञता! कोई कह सकता है कि तुम भला इतनी अकृतज्ञता क्यों प्रकट कर रहे हो, इतने विकास के बाद-- आज अगर कोई कांग्रेस के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के खिलाफ 1930 वाला ही घोषणा-पत्र पढ़ दे तो क्या सरकार समर्थक मीडिया शब्दशः यही तर्क नहीं देगी? फर्क बस इतना है कि 81 साल पहले सारी नीतियां लंदन से तय होती थीं।
हमारे नीति नियंता
आज हमारी नीतियां वॉशिंगटन से मिलनेवाले संकेतों से तय हो रही हैं। शिक्षा नीति विश्व बैंक तय करता है। विदेश नीति-प्रतिरक्षा नीति व्हाइट हाउस-पैंटागन के भरोसे हैं। आतंकवाद के खिलाफ कुछ बोलने से पहले हमारे सत्ताधीश अमेरिका का मुंह ताकते हैं। क्या यही अपेक्षित था स्वराज से? कहीं ऐसा नहीं लगता कि मैकाले जीत गया है और महात्मा गांधी पराभूत हो गए हैं। मैकाले ने जब इस देश में अंग्रेजी सत्ता प्रतिष्ठान को दृढ़ करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली कायम कर दी तो उसने कहा था --इस शिक्षा प्रणाली से निकला हुआ व्यक्ति रक्त और वर्ण से चाहे भारतीय रहे, परंतु अपनी रुचियों, सम्मतियों, नैतिकता और बौद्धिक दृष्टि से वह अंग्रेज होगा-- महात्मा गांधी मूलतः अंग्रेजों के नहीं बल्कि अंग्रेजियत के खिलाफ लड़ रहे थे। उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में लिखा है-- जो लोग अंग्रेजियत को कायम रखते हुए केवल अंग्रेजों को देश से बाहर करना चाहते हैं, वे स्वराज का अर्थ नहीं समझते। वो भारत को इंग्लिस्तान बना देंगे।
पेज थ्री पार्टी में सरस्वती वंदना
अंग्रेजी शिक्षा को लेकर हमने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी बाकी नहीं रखा है। ‘हम पहली आजादी (1947), दूसरी आजादी (1977) क्यों हारे? क्योंकि हम अंग्रेजियत से नहीं आजाद हो पाए? इसीलिए जनता पार्टी की सरकार खड्डे में गई। आजादी की नई बाग जो अण्णा हजारे दे रहे हैं वह तो पहले से ही खड्डे में हैं क्योंकि उनकी पूरी टीम चाहे प्रशांत-शांतिभूषण हो, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, ये सभी अंग्रेजींदा ही तो हैं। इनकी अंग्रेजियत के जवान रहते आजादी की बातें करना पेज थ्री की पार्टी में सरस्वती वंदना करने जैसा है।
