अमेरिका में खौफ, लंदन में गुस्सा और बदलाव

संजय खाती
कर्जखोरों ने सारी दुनिया को मुसीबत में डाल दिया है। यह फिक्र अमेरिका और यूरोप की है, जिनके पाप अब सामने आ रहे हैं। बरसों तक इन मुल्कों ने अपनी तरक्की के अंधेपन में बेपनाह माल भकोसा, जब खुद का पैसा कम पड़ने लगा तो नोट छापकर या कर्ज लेकर अपना भोगवाद जारी रखा।
अब दुनिया ने करवट बदली है, तो उनकी अंतड़ियां बगावत कर रही हैं। पिछले हफ्ते एक रेटिंग एजेंसी ने अमेरिका की साख जरा-सी घटाई तो दुनिया भर के बाजारों में भूचाल आ गया।

लेकिन यह महज कुछ देशों या इंटरनैशनल फाइनैंशल सिस्टम का क्राइसिस नहीं है। यह उससे बड़े बदलाव की आहट है। ब्रिटेन में चार दिनों तक खुलेआम लूट का मंजर छाया रहा। यह भी उसी कहानी का दूसरा पहलू है। दुनिया की धुरी हिल रही है। जमीन के भीतर महाद्वीपों की प्लेटें खिसक रही हैं।
ब्रिटेन में अचानक लोग बागी क्यों हो उठे, इसकी कई वजहें हैं, लेकिन सबसे बड़ी है बढ़ती गैरबराबरी और घटती कमाई। अमेरिका और तमाम यूरोप में लोग बदलाव के उस दौर में जा फंसे हैं, जिसकी शुरुआत वहीं से हुई थी।
सदियों से पश्चिम के गौरांग देशों ने दुनिया पर राज किया। उन्होंने साइंस में थोड़ा आगे होने का फायदा उठाया और तमाम देशों की दौलत अपनी ओर खींची। बीसवीं सदी के आखिरी दिनों में जब तक टेक्नॉलजी और इंडस्ट्री ने विकासशील मुल्कों में जगह बनाई, ये मुल्क अपनी बढ़त हासिल कर चुके थे, जिसे वे अपराजेय समझते थे।
लेकिन चीजें बदलती हैं और तरक्की को रोका नहीं जा सकता। उनसे बड़ी दुनिया बाहर मौजूद थी और वह धीरे-धीरे अपना हिस्सा हासिल कर रही थी।
जब उभरते हुए देशों की नई कतार सामने आई और पिछड़े मुल्कों ने भी तरक्की के गुर सीख लिए तो पश्चिम ने अचानक खुद को एक अजब मुकाम पर पाया। आगे बढ़ने की गुंजाइश खत्म हो रही थी।
इंडस्ट्री ने सस्ते ठिकानों का रुख कर लिया था। आबादी ठहर चुकी थी और कमाई घट रही थी। ऊंचे रहन-सहन के आदी ये देश क्या कर सकते थे, सिवाय घाटा बढ़ाने और कर्जखोरी के? वही उन्होंने किया। आज अमेरिका और उसके साथियों पर अपनी जीडीपी के बराबर कर्ज लदा है। उस कर्ज को चुकाने के लिए रेवेन्यू कहीं से आता नहीं दिख रहा।
दुनिया पर कब्जा बनाए रखने के लिए जो तामझाम फैला रखा है, वह उनका खून चूस रहा है। हारकर उन्हें अपने घरेलू खर्च घटाने पड़ रहे हैं। इससे लोगों का सुख छिन रहा है और वे बेचैन हो रहे हैं। यह बेचैनी लंदन में लूट मचवा सकती है। पेरिस का चक्का जाम करवा सकती है और वॉशिंगटन में सियासी बंटाधार कर सकती है।
जब भारत में 20 बरस पहले लिबरलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन शुरू हुआ था, तो कई लोगों ने इसे दूसकी गुलामी का नाम दिया था। वह भविष्यवाणी गलत निकली। लिबरलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन ने उलटे पश्चिम के दीवालिए होने का रास्ता खोल दिया। पिछड़े मुल्कों के सस्ते माल से मजे उड़ाते लोगों ने अचानक खुद को पिछड़े मुल्कों के वर्करों से घिरा पाया।

आरामतलब लोगों के रोजगार छिने तो उनका गुस्सा फूटने लगा। नॉर्वे में ब्रिविक ने जो कत्लेआम मचाया, वह महज राइटिस्ट बगावत नहीं है, वह ग्लोबलाइजेशन की उलटी मार से भड़की नफरत का भी नजारा है। लंदन में लोग ब्रैंडेड शोरूम्स को निशाना बना रहे थे, तब भी उनके निशाने पर बदलाव की यही दुश्वारियां थीं।
पश्चिम में यह अहसास हर रोज गहरा होता जा रहा है कि पावर का बैलेंस खिसक रहा है। उन्हें अपना राज खत्म होता दिख रहा है। वे जान रहे हैं कि तरक्की और रोजगार अब वहीं होंगे, जहां वे सदियों से ���ायब थे। भारत, चीन और ब्राजील की मातहती उन्हें बुरे ख्वाब दिखा रही है।
यह बेवजह नहीं है कि हर महीने ओबामा कम- से-कम एक बार अपनी जनता को भारत और चीन के आगे निकल जाने का डर दिखा देते हैं। इस डर का अहसास हम भारत के लोग नहीं कर सकते, क्योंकि सदियों से पिछड़ते आ रहे हम गंवाने की तकलीफ महसूसना ही भूल गए हैं।
लेकिन अमीरी का मजा चख चुके लोगों के लिए छोटी सी असुविधा मुसीबत का दर्जा ले लेती है। भारत में आप सोच भी नहीं सकते कि कॉलेज फीस बढ़ाने पर दंगे हो जाएं, लेकिन ब्रिटेन में कुछ अरसा पहले हुए।

मैं समझता हूं पश्चिम आगे चलकर और भी अशांत, और भी हिंसक होता जाएगा। विचारक हटिंगटन ने सभ्यताओं की जंग की थ्योरी दी थी, जिसे लोग बाद में इस्लाम और इसाइयत की टक्कर में देखने लगे। लेकिन सभ्यताओं की असली जंग तो अब होने जा रही है। भारत और चीन जैसे देश जल्द ही खुद को पश्चिमी बगावत के निशाने पर खड़ा पाएंगे और तब उनके पास इतिहास से ऐसा कुछ नहीं होगा, जो उन्हें सबक दे सके।
एक अनजान सफर में उन्हें अपने हथियार खुद ईजाद करने होंगे। दुनिया की प्लेटें जब खिसकेंगी तो नई शक्ल में संसार के ढलने से पहले कई भूकंप आएंगे। पता नहीं हम उन्हें कैसे झेलेंगे। लेकिन झेलना तो होगा ही, क्योंकि बदलाव के पहले मोर्चे पर हम खड़े कर दिए गए हैं।

हमें इस पर सोचना शुरू कर देना चाहिए। यह देखकर वाकई अफसोस होता है कि न तो भारतीय लीडरान को इस चैलेंज का अहसास है और न ही पब्लिक का माइंडसेट बदल रहा है। भारत अपने ऐतिहासिक झगड़ों में अब भी इस कदर खोया है कि कल की बात कभी सुनाई नहीं देती।
हम तैयार हों न हों, यह हमारी बदकिस्मती होगी। इतिहास तो अपना काम करेगा, क्योंकि वह हटिंगटन जैसे एक और चर्चित विचारक फुकुयामा को गलत साबित करने पर तुला है, जिन्होंने इतिहास के खत्म होने का ऐलान किया था।
फुकुयामा का मानना था कि रूस से अमेरिका जीत चुका है, तो इतिहास में नए के लिए कुछ नहीं बचा। अब दुनिया बदलने वाली नहीं। यह सुनकर इतिहास के देवता को हंसी आई होगी और उसने शायद उसी क्षण तय किया होगा कि बदलावों का बदलाव तो अब होगा।

Post a Comment

emo-but-icon

Featured Post

करंसी नोट पर कहां से आई गांधी जी की यह तस्वीर, ये हैं इससे जुड़े रोचक Facts

नई दिल्ली. मोहनदास करमचंद गांधी, महात्मा गांधी या फिर बापू किसी भी नाम से बुलाएं, आजादी के जश्न में महात्मा गांधी को जरूर याद किया जा...

Follow Us

Hot in week

Recent

Comments

Side Ads

Connect Us

item