बाढ़ रोकने में बहा दी जवानी

उरई। जवानी की दहलीज पर खड़े उस किशोर ने अपने गांव को बाढ़ से बर्बाद होते देखा। आंखों में कैद उस विभीषिका ने उसे चैन से सोने नहीं दिया। उससे रहा नहीं गया। फिर क्या था नदी की धारा मोड़ने का बीड़ा उठा लिया। अपने इस संकल्प यज्ञ में उसने अपनी जमींदारी तो क्या पूरा जीवन, परिवार और शान ओ शौकत सब होम कर दिया। पहाड़ का सीना चीर कर नदी की धारा मोड़ दी। गांव तो बचा लिया, लेकिन उसकी अपनी पूरी जवानी समय की बाढ़ में बह गई।
त्याग और बलिदान की यह यशस्वी गाथा है उरई के गांव उररकरा खुर्द के 90 वर्षीय राजाराम पाठक की। समंदर से बड़े दिल और हिमालय से ऊंचे इरादे वाले इस शख्स को देखकर एकबारगी यकीन ही नहीं होता। पहनने को कपड़े नहीं, गढ़ी [महलनुमा घर] खंडहर हो चुका है और परिवार के साथ टूटे-फूटे कच्चे घर में रह रहे हैं। इसके बाद भी हौसला और सोच तो देखिए कि राजाराम कहते हैं कि वास्तव में गांव को नदी की बाढ़ से बचाकर बरबाद नहीं, धन्य हुए हैं हम।
साल याद नहीं, लेकिन नून नदी की बाढ़ से तबाही का मंजर उन्हें आज भी याद है। बाढ़ सारे घरों को बहा ले गई थी। जमींदार घर के राजाराम की गढ़ी एक ऊंचे टीले पर थी, लिहाजा उन्हें खास फर्क नहीं पड़ा। इसके बावजूद प्रजा समान गांव वालों की बर्बादी उनसे देखी न गई। इस विनाश की वजह तलाशने में जुटे राजाराम ने पाया कि यदि बीच में खड़ा पहाड़ नदी का रास्ता न रोकता तो पानी गांव में निचली बस्ती में घुसने के बजाय सीधा निकल सकता था। बस फिर क्या था, खुद कुदाल लेकर पहाड़ काटने में महीनों जुटे रहे। फिर अपने खर्चे पर मजदूर भी लगा लिए।
आखिर तीन वर्ष में उन्होंने नदी के बहाव को सीधा कर दिया, लेकिन अपना साध्य इतने पर ही पूरा नहीं माना। गांव की बस्ती को ऊंचाई पर बसाने के लिए अपनी गढ़ी के पास जगह दी व खाली हुए नदी के कंकरीले क्षेत्र को खेतों के रूप में विकसित करने के लिए पूरी कगार काटकर मिट्टी बिछानी शुरू कर दी। 20 वर्ष तक अपनी खेती और सारे काम बंद कर राजाराम इसी में जुटे रहे। 100 बीघा का चक तैयार करने के बाद गढ़ी से वहां तक उतरने के लिए उन्होंने अपनी मेहनत से चौड़ा रास्ता भी बनाया। इस बीच उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों की खातिर अपनी तमाम खेती बेचनी पड़ी। इसके बाद चकबंदी हुई तो खेतों पर उनके बजाय गांव समाज का मालिकाना माना गया, पर इन खेतों के प्रति लगाव के चलते राजाराम ने इनके बदले में अपनी असली खेती छोड़ दी। उनके हिस्से में पांच बेटों के बीच मात्र 25 बीघा जमीन आई। इससे खिन्न तीन बेटे उनका साथ छोड़ गए। अब गांव में उनके साथ केवल दो बेटे रहते हैं। मगर राजाराम को जिंदगी से कोई शिकवा नहीं, बल्कि फº है समाज और गांव के कुछ काम आने का।
उरई। जवानी की दहलीज पर खड़े उस किशोर ने अपने गांव को बाढ़ से बर्बाद होते देखा। आंखों में कैद उस विभीषिका ने उसे चैन से सोने नहीं दिया। उससे रहा नहीं गया। फिर क्या था नदी की धारा मोड़ने का बीड़ा उठा लिया। अपने इस संकल्प यज्ञ में उसने अपनी जमींदारी तो क्या पूरा जीवन, परिवार और शान ओ शौकत सब होम कर दिया। पहाड़ का सीना चीर कर नदी की धारा मोड़ दी। गांव तो बचा लिया, लेकिन उसकी अपनी पूरी जवानी समय की बाढ़ में बह गई।
त्याग और बलिदान की यह यशस्वी गाथा है उरई के गांव उररकरा खुर्द के 90 वर्षीय राजाराम पाठक की। समंदर से बड़े दिल और हिमालय से ऊंचे इरादे वाले इस शख्स को देखकर एकबारगी यकीन ही नहीं होता। पहनने को कपड़े नहीं, गढ़ी [महलनुमा घर] खंडहर हो चुका है और परिवार के साथ टूटे-फूटे कच्चे घर में रह रहे हैं। इसके बाद भी हौसला और सोच तो देखिए कि राजाराम कहते हैं कि वास्तव में गांव को नदी की बाढ़ से बचाकर बरबाद नहीं, धन्य हुए हैं हम।
साल याद नहीं, लेकिन नून नदी की बाढ़ से तबाही का मंजर उन्हें आज भी याद है। बाढ़ सारे घरों को बहा ले गई थी। जमींदार घर के राजाराम की गढ़ी एक ऊंचे टीले पर थी, लिहाजा उन्हें खास फर्क नहीं पड़ा। इसके बावजूद प्रजा समान गांव वालों की बर्बादी उनसे देखी न गई। इस विनाश की वजह तलाशने में जुटे राजाराम ने पाया कि यदि बीच में खड़ा पहाड़ नदी का रास्ता न रोकता तो पानी गांव में निचली बस्ती में घुसने के बजाय सीधा निकल सकता था। बस फिर क्या था, खुद कुदाल लेकर पहाड़ काटने में महीनों जुटे रहे। फिर अपने खर्चे पर मजदूर भी लगा लिए।
आखिर तीन वर्ष में उन्होंने नदी के बहाव को सीधा कर दिया, लेकिन अपना साध्य इतने पर ही पूरा नहीं माना। गांव की बस्ती को ऊंचाई पर बसाने के लिए अपनी गढ़ी के पास जगह दी व खाली हुए नदी के कंकरीले क्षेत्र को खेतों के रूप में विकसित करने के लिए पूरी कगार काटकर मिट्टी बिछानी शुरू कर दी। 20 वर्ष तक अपनी खेती और सारे काम बंद कर राजाराम इसी में जुटे रहे। 100 बीघा का चक तैयार करने के बाद गढ़ी से वहां तक उतरने के लिए उन्होंने अपनी मेहनत से चौड़ा रास्ता भी बनाया। इस बीच उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों की खातिर अपनी तमाम खेती बेचनी पड़ी। इसके बाद चकबंदी हुई तो खेतों पर उनके बजाय गांव समाज का मालिकाना माना गया, पर इन खेतों के प्रति लगाव के चलते राजाराम ने इनके बदले में अपनी असली खेती छोड़ दी। उनके हिस्से में पांच बेटों के बीच मात्र 25 बीघा जमीन आई। इससे खिन्न तीन बेटे उनका साथ छोड़ गए। अब गांव में उनके साथ केवल दो बेटे रहते हैं। मगर राजाराम को जिंदगी से कोई शिकवा नहीं, बल्कि फº है समाज और गांव के कुछ काम आने का।

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