इस्लामी आतंकवाद क्या होता है विभूति !

फ़ज़ल इमाम मल्लिक
लगा फिर किसी ने मेरे गाल में जोर से तमाचा जड़ दिया। तमांचा मारा तो गाल पर था लेकिन चोट कलेजे पर लगी। चोट इस बार ज्यादा लगी। इस झन्नाटेदार तमांचे की धमक अब तक मैं महसूस कर रहा हूं। दरअसल पिछले कुछ सालों से इस तरह की चोट अक्सर कभी गाल पर तो कभी दिल पर झेलने के लिए भारतीय मुसलमान अभिशप्त हो गए हैं। आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं ने हमेशा से ही देश भर के मुसलमानों पर सवाल खड़े किए हैं
आतंकवाद की घटना कहीं भी घटे, देश भर के मुसलमानों को शक की निगाह से देखे जाते थे और कुछ क़सूरवार और कुछ बेक़सूर लोगों की धरपकड़ की जाती थी। उनके माथे पर भी आतंकवादी शब्द चस्पां कर दिया जाता रहा है जो आतंकवादी नहीं थे। लेकिन मुसलमान होने की वजह से सैकड़ों की तादाद में ऐसे मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया जिनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं था। अदालतों ने ऐसे बहुत सारे लोगों को बाद में बरी भी कर दिया जिसे भारतीय पुलिस ने आतंकवादी बताने में किसी तरह की कंजूसी नहीं की थी। लेकिन वही पुलिस बाद में उनके ख़िलाफ़ सबूत पेश नहीं कर पाई। ऐसे एक-दो नहीं ढेरों मामले हमारे सामने आए लेकिन इसके बावजूद आतंकवादी घटनाओं ने मुसलमानों के सामने बारहा परेशानी खड़ी की। वह तो भला हो साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों का जिसकी वजह से मुसलमानों की शर्मिंदगी बहुत हद तक कम हुई। इन कट्टर हिंदुओं ने मुसलमानों से बदला लेने के लिए वही रास्ता अपनाया जो मुसलमानों के नाम पर चंद कट्टर मुसलिम आतंकवादी संगठनों ने अपना रखा था। यानी ख़ून के बदले ख़ून। हत्या के इस खेल में काफ़ी दिनों तक तो यह पता ही नहीं चल पाया कि अजमेर या मक्का मस्जिद धमाके में कुछ हिंदू कट्टरवादी संगठनों का हाथ है। इसका पता तो बहुत बाद में चला। तब तक तो संघ परविार से लेकर भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता भी ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ही राग अलाप रहे थे। लेकिन साध्वी की गिरफ्तारी के बाद जब ‘हिंदू आतंकवाद’ का राग अलापा जाने लगा और अख़बारों से लेक चैनलों तक में यह ‘हिंदू आतंकवाद’ मुहावरों की तरह प्रचलन में आने लगा तो अपने लालकृष्ण आडवाणी से लेकर संध परिवार के मुखिया तक को तकलीफ़ हुई और वे सार्वजनिक तौर पर कहने लगे कि किसी धर्म पर आतंकवाद का ठप्पा लगाना ठीक नहीं है। इतना ही नहीं आडवाणी और उनकी पार्टी के दूसरे नेता भागे-भागे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास तक जा पहुंचे थे और उनसे इस पूरे मामले में उच्चस्तरीय जांच की मांग तक कर डाली थी। भाजपा ने तो तब एक तरह से अपनी तरफ़ से फैÞसला तक सुना डाला था कि साध्वी बेक़सूर हैं। हैरत इस बत पर थी कि देश के पूर्व गृह मंत्री रह चुके आडवाणी ने अदालती फैसले से पहले ही फैसला सुना डाला था और साध्वी और उनके सहयोगियों को बरी क़रार दे दिया था। याद करें तब साध्वी को गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी हेमंत कड़कड़े को आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी ने कम नहीं कोसा था। चुनावी सभाओं तक में भाजपा नेताओं ने हेमंत कड़कड़े की निष्ठा और ईमानदारी पर सवाल किए थे। लेकिन यही आडवाणी किसी मुसलमान की गिरफ्Þतारी पर इतने विचलित हुए हों कभी देखा नहीं। तब तो वे और उनके सहयोगी मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर ‘इस्लामी आतंकवाद’ का राग इतनी बार और इतने चैनलों पर अलापते थे मानो अदालत भी वे हैं और जज भी। लेकिन एक साध्वी ने उनके नज़रिए को बदल डाला। कांग्रेसी सरकार (यहां यूपीए भी पढ़ सकते हैं) के मुखिया मनमोहन सिंह ने भी आडवाणी को जांच का भरोसा दिला कर विदा कर डाला जबकि बटला हाउस या इसी तरह के दूसरे मुठभेड़ों को लेकर जांच की बार-बार की जाने वाली मांग पर अपनी धर्मनिरपेक्ष सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह और धर्मनिरपेक्षता की अलमबरदार सोनिया गांधी ने एक शब्द तक नहीं कहा।
दरअसल कांग्रेस के यहां भी कट्टरवाद के अलग-अलग पैमाने हैं। जहां हिंदू कार्ड चले वहां हिंदुओं को खुश कर डालो और जहां मुसलमानों को पुचकारना हो वहां मुसलमानों के लिए कुछ घोषणाएं कर डालो। नहीं तो कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी तौर पर बहुत ज्यादा फ़र्क़ तो नहीं ही दिखता है। एक खाÞस तरह की सांप्रदायिकता से तो कांग्रेस भी अछूती नहीं है नहीं। बल्कि कई लिहाज़ से कांग्रेस की सांप्रदायिकता ज्Þयादा ख़तरनाक है। कांग्रेस धीरे-धीरे मारने की कÞायल है जबिक भारतीय जनटा पार्टी या संघ परिवार जिंÞदा जला डालते हैं। यानी इस देश में कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों का सगा नहीं है। नहीं यह बात मैं किसी की सुनी-सुनाई नहीं कह रहा हूं। कुछ तो ख़ुद पर बीती है और कुछ अपने है जैसे दूसरे मुसलमानों पर बीतते देखी है। महाराष्ट्र पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने मुलाक़ात में कहा था कि महाराष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस सरकार ने आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को पकड़ने का मौखिक फ़रमान उन्हें जारी किया था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। नतीजा उन्हें ऐसे विभाग में तबादला कर दिया गया जहां वे अछूतों की तरह रह रहे हैं और वहां उनके करने के लिए कुछ नहीं था। कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी फ़र्क़ नरम और गरम हिंदुत्व का है। नहीं तो अपनी सोनिया गांधी गुजरात जाकर ‘मौत का सौदागर’ का जयघोष कर नरेंद्र मोदी को तोहफे में दोबारा कुर्सी सौंप नहीं देतीं। कांग्रेस ने जितना नुक़सान हर सतह पर मुसलमानों का किया है, शायद भाजपा ने कम किया। सांप्रदायिक दंगों को छोड़ दिया जाए तो भाजपा के खाते में व्यवहारिक तौर पर ऐसा करने के लिए कुछ नहीं था जिससे मुसलमानों का नुक़सान हो। लेकिन कांग्रेस ने मुसलमानों को न तो सत्ता में सही तरीक़े से हिस्सेदारी दी और न ही उनकी आर्थिक हालात सुधारने के लिए कोई ठोस और बड़ा क़दम उठाया। राजनीतिक दलों ने इस देश के मुसलमानों को महज़ वोट की तरह इस्तेमाल किया। चुनाव के समय उन्हें झाड़-पोंछ कर बाहर निकाला, वोट लिया और फिर उन्हें उसी अंधेरी दुनिया में जीने के लिए छोड़ दिया जहां रोशनी की नन्नही सी किरण भी दाख़िल नहीं हो पाती है।
रही-सही कसर आतंकवाद ने पूरी कर दी। आतंकवाद के नाम पर भी मुसलमानों का कम दमन नहीं हुआ है। अब तो अपने मुसलमान होने पर अक्सर डर लगने लगता है। पता नहीं कब कोई आए और उठा कर ले जाए और माथे पर आतंकवादी लफ्Þज़ चस्पां कर दे। लड़ते रहिए लड़ाई और लगाते रहिए आदालतों के चक्कर अपने माथे पर से इस एक शब्द को हटाने के लिए। लेकिन माथे पर लिखा यह एक लफ्ज़ फिर इतनी आसानी से कहां मिटता है। चैनलों से लेकर अख़ाबर बिना किसी पड़ताल के आतंकवादी होने का ठप्पा लगा देते हैं। ऐसे में ही अगर कोई ‘इस्लामी आतंकवाद’ की बात करता है तो लगता है कि किसी ने गाल पर झन्नाटेदार तमांचा जड़ दिया हो। संघ परिवार और उससे जुड़े लोग अगर इस इस्लामी आतंकवाद का राग अलापें तो क़तई बुरा नहीं लगता है क्योंकि 9/11 के बाद बरास्ता अमेरिका यह शब्द हमारे यहां पहुंचा है। वलर््ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने इस्लामी आतंकवाद का नया मुहावरा गढ़ा और भारत में भाजपा और संघ परिवार ने इसे फ़ौरन लपक लिया। साध्वी और उनके साथी की गिरफ्Þतारी के बाद ही भाजपा के कसबल ढीले पड़े थे क्योंकि तब चैनलों और अख़बारों ने ‘हिंदू टेररज्मि’ का नया मुहावरा उछाला। ज़ाहिर है कि संघ परिवारियों को इससे मरोड़ उठना ही था। उठा भी, उन्होंने इस मुहावरे के इस्तेमाल का विरोध किया और साथ में यह दलील भी दी कि इस्लामी आटंकवाद कहना भी ठीक नहीं है। यानी जब ख़ुद पर पड़ी को ख़ुदा याद आया। इस्लामी आतंकवाद के इस्तेमाल का विरोध करते हुए मैं तर्क देता था कि कोई भी धर्म आतंकवाद का सबक़ नहीं सिखाता, एक मुसलमान आतंकवादी हो सकता है लेकिन इस्लाम किस तरह से आतंकवादी हो सकता है। ठीक उसी तरह साध्वी प्रज्ञा के आतंकवादी होने से हिंदू धर्म को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। धार्मिक व सामाजिक मंचों से भी इसका इज़हार करने में मैंने कभी गुरेज़ नहीं किया।
हैरानी, हैरत और अफ़सोस तब होता है जब इस्लामी आतंकवाद का इस्तेमाल पढ़ा-लिखा, साहित्यकार, ख़ुद को धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार कहने वाला कोई व्यक्ति करता है। यह अफ़सोस तब और होता है जब वह व्यक्ति किसी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति भी होता है। यानी उस व्यक्ति की समझ, शख़्सियत, इल्म पर थोड़ी देर के लिए तो किसी तरह का शक किया ही नहीं जा सकता लेकिन जब वह व्यक्ति इस्लामी आतंकवाद को राज्य की हिंसा से ज्यÞादा ख़तरनाक बतलाता है तो उसकी समझ, इल्म और धर्मनिरपेक्षता सब कुछ एक लम्हे में ही सवालों में घिर जाते हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय को लेकर मेरी धारणा भी अब इसी तरह की है। इसी दिल्ली में उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के बीच अपने भाषण में ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ज़िक्र किया था और राज्य की हिंसा का समर्थन किया था। हैरत, दुख और तकलीफ़ इस बात की भी है कि सभागार में मौजूद पढ़े-लिखे लोगों में से किसी ने भी उन्हें नहीं टोका कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ जैसे मुहावरे का इस्तेमाल एक पूरी क़ौम की नीयत, उसकी देशभक्ति और उसके वजूद पर सवाल खड़ा करता है। न तो समारोह का संचालन कर रहे आनंद प्रधान ने इसका विरोध किया और न ही ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव ने, जिनका यह कार्यक्रम था। सभागार में मौजूद दूसरे लोगों ने भी इस ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर उन्हें घेरने की कोशिश नहीं की। यक़ीनन इससे मेरे भीतर गुÞस्सा, ग़म और अफ़सोस का मिलाजुला भाव पनपा था। उस सभागार में मैं मौजूद नहीं था। अपनी पेशेगत मजबूरियों की वजह से उस समारोह में शिरकत नहीं कर पाया। अगर होता तो इसकी पुरज़ोर मुख़ालफ़त ज़रूर करता। लेकिन विभूति नारायण राय ने जो बातें कहीं वह मुझ तक ज़रूर पहुंची। उन्होंने जो बातें कहीं थीं उसका लब्बोलुआब कुछ इस तरह था- ‘मैं साफ तौर पर कह सकता हूं कि कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच मुकाबला है और मैं हमेशा राज्य की हिंसा का समर्थन करुंगा।’ उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी जड़ दिया कि हम राज्य की हिंसा से तो मुक्त हो सकते हैं लेकिन इस्लामी आतंकवाद से नहीं। मेरी कड़ी आपत्ति इन पंक्तियों पर हैं क्योंकि ऐसा कह कर विभूति नारायण राय ने एक पूरी क़ौम को कठघरे में खड़ा कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस का कोई आदमी अगर इस तरह की बात करता तो समझ में आता भी है क्योंकि उनकी पूरी राजनीति इसी पर टिकी है लेकिन धर्मनिरपेक्षता को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले विभूति इस तरह की बात करते हैं तो सवाल उठना लाज़िमी है।
इस समारोह में विभूति नारायण राय ने अपने भाषण में कई आपत्तिजनक बातें कहीं। उन पर बहस होनी चाहिए थी और उनसे सवाल भी पूछे जाने चाहिए थे। ख़ास कर कि राज्य हिंसा की वकालत करने और इस एक इस्लामी आतंकवाद के फ़िकÞरे उछालने पर। उन्होंने बहुत ही ख़तरनाक बातें कहीं थीं। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति और एक साहित्यकार से इस तरह की उम्मीद नहीं थी, हां एक पुलिस अधिकारी ज़रूर इस तरह की बात कर सकता है। चूंकि विभूति पुलिस अधिकारी पहले हैं और लेखक बाद में इसलिए उनके पूरे भाषण में उनका पुलिस अधिकारी ही बोलता रहा और इस बातचीत में बहुत ही ‘सभ्य तरीक़े’ से उन्होेंने अपने विरोधियों को धमकाया भी। हो सकता है कि ‘हंस’ के इस कार्यक्रम के बाद उनके भाषण पर बहस होती। उनके ‘इस्लामी आतंकवाद’ के फ़तवे पर विरोध होता लेकिन इससे पहले ही उनकी ‘छिनाल’ सामने आ गई और इस ‘छिनाल’ ने उन्हें इस क़द्र परेशान किया कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ और ‘राज्य हिंसा की वकालत’ जैसी बातें गौण हो गईं। कुछ तर्क और ज्यÞादा कुतर्क के सहारे विभूति ने अपने ‘छिनाल’ को हर तरह से जस्टीफाई करने की कोशिश भी की लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। उन्हें आख़िरकार इसके लिए माफ़ी मांगनी ही पड़ी। लेकिन सवाल यहां यह भी है कि जिस सभ्य समाज ने ‘छिनाल’ के लिए विभूति के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और एक नौकरशाह-लेखक को माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किया उसी सभ्य समाज या लेखक वर्ग ने विभूति के ‘इस्लामी आतंकवाद’ का उसी तरह विरोध क्यों नहीं किया जिस तरह ‘छिनाल’ को लेकर हंगामा खड़ा किया। मुझे लगता है यहां भी पैमाने अलग-अलग हैं। चूंकि मामला मुसलमानों से जुड़ा था इसलिए लेखकों को इस शब्द में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। यह भी हो सकता है कि बेचारा मुसलमान लेखकों के किसी ख़ेमे-खूंटे से नहीं जुड़ा है इसलिए उसके पक्ष में लामबंद होने की ज़रूरत किसी लेखक समूह-संगठन-मंच ने नहीं की।
विभूति नारायण राय ने ‘नया ज्ञानोदय’ में छपे अपने इंटरव्यू में ‘छिनाल’ शब्द पर तो यह तक सफ़ाई दी कि उन्होंने अपने इंटरव्यू में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था, इंटरव्यू करने वाले ने अपनी तरफ़ से इस शब्द को डाल दिया। लेकिन ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल तो उन्होंने अपने प्रवचन में किया था सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में। यहां तो वह यह दलील भी नहीं दे सकते कि उन्होंने कहा कुछ था और छपा कुछ। यहां तो उनके ‘श्रीमुख’ से ही उनके विचार फूटे थे। लेकिन ‘छिनाल’ पर हायतौबा मचाने वालों के लिए ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल आपत्तिजनक नहीं लगा। उनके लिए भी नहीं जो वामपंथ की ढोल ज़ोर-शोर से पीट कर धर्मनिरपेक्षता और सेक्युलर होने की दुहाई देते हुए नहीं थकते हैं। उस सभागार में बड़ी तादाद में अपने ‘वामपंथी कामरेड’ भी थे लेकिन वे भी अपने ख़ास एजंडे को लेकर ही मौजूद थे, जिसकी तरफ़ विभूति नारायण राय ने भी इशारा किया था। और कामरेडों की यह फ़ौज भी विभूति नारायण राय के एक पूरी क़ौम को आतंकवादी क़रार देने के फ़तवे को चुपचाप सुनती रही। यह हमारे लेखक समाज का दोगलापन नहीं है तो क्या है। इसी दोगलेपन ने लेखकों और बुद्धिजीवियों की औक़ात दो कौड़ी की भी नहीं रखी है और यही वजह है कि विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया महिलाओं को ‘छिनाल’ कह कर भी साफ़ बच कर निकल जाते हैं और हम सिर्फ लकीर पीटते रह जाते हैं।
विभूति नारायण राय ने ‘छिनाल’ पर तो माफ़ी मांग ली है। कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार के मंत्री कपिल सिब्बल ने उनके माफ़ीनाम को मान भी लिया है। लेकिन ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल कर इस्लाम धर्म को मानने वाली एक पूरी क़ौम के माथे पर उन्होंने जो सवालिया निशान लगाया है, क्या इसके लिए भी वे माफ़ी मांगेंगे या यह भी कि उन्हें अपने कहे पर माफÞी मांगनी नहीं चाहिए। या कि कपिल सिब्बल उनसे ठीक उसी तरह माफ़ी मांगने के लिए दबाव बनाएंगे जिस तरह से उन्होंने ‘छिनाल’ के लिए बनाया था। क्या हमारा लेखक समाज विभूति नारायण राय के ख़िलाफ़ उसी तरह लामबंद होगा जिस तरह से ‘छिनाल’ के लिए हुआ था। लगता तो नहीं है कि ऐसा कुछ भी होगा क्योंकि फ़िलहाल ‘मुसलमान’ से बड़ा मुद्दा ‘छिनाल’ है, जिसका इस्तेमाल अपने-अपने तरीक़े से हर कोई कर रहा है ऐसे में किसे पड़ी है कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर अपना विरोध दर्ज कराए।

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