नरेंद्र मोदी-शंकरसिंह वाघेला,पश्चात्ताप और पाखंड.

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नरेंद्र मोदी उपवास कर रहे हैं, शंकरसिंह वाघेला भी जवाबी उपवास कर रहे हैं, इससे पहले अन्ना हज़ारे कर रहे थे, उससे पहले बाबा रामदेव कर रहे थे.
राजनीति का विद्यार्थी इन सारी घटनाओं को मीडिया के चश्मे से देख रहा है, समझने का प्रयास कर रहा है.
मगर उसे एक प्रश्न पीड़ित कर रहा है. बौद्धिक बहस की रोज़ाना की ख़ुराकें उस पीड़ा का शमन नहीं कर पा रहीं हैं.
वो प्रश्न दो भावनाओं से जुड़ा है - पश्चात्ताप और पाखंड.
दंगों के दौरान एक सरकार का मुखिया रहने की ज़िम्मेदारी को स्वीकार करते नरेंद्र मोदी अगर पश्चात्ताप कर लें तो वो अधिक कारगर होगा या उपवास का पाखंड?
उपवास के पहले ही दिन पौन घंटे बोलकर शारीरिक ऊर्जा को ख़र्च करनेवाले मोदी केवल तीन शब्दों से काम चला सकते थे - आई एम सॉरी - मुझे खेद है - लेकिन वो ऐसा नहीं करते, और ना लगता है कि कभी करेंगे भी.
राजनीति का विद्यार्थी इस प्रश्न से पीड़ित है - कि मोदी को पश्चात्ताप से अधिक पाखंड क्यों प्यारा है?
ऐसा ही एक प्रश्न उस क्षण भी खड़ा हुआ था जब कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने पहले बुज़ुर्ग अन्ना हज़ारे पर हिंदी शब्दबाणों से प्रहार किए और बाद में मजबूरी में उसपर अंग्रेज़ी में मलहम लगाकर मौन हो गए.
राजनीति का विद्यार्थी जानना चाहता था - लुधियाना के स्मार्ट सांसद को क्या पश्चात्ताप और पाखंड का अंतर नहीं पता था?
पश्चात्ताप के स्वर बाबा रामदेव के मुख से भी आ सकते थे. हालाँकि सत्य अभी अस्पष्ट है, लेकिन जिसप्रकार उनके डेपुटी बालकृष्ण सारे परिदृश्य से ओझल हो चुके हैं, उससे सामान्य जनों के मन में संदेह के बीज अवश्य पड़ चुके हैं.
मगर बाबा रामदेव की बोलियों में भी पश्चात्ताप का भाव लुप्त है.
पश्चात्ताप के बोल स्वामी अग्निवेश को भी बोलने चाहिए थे, मगर वो पहले मिथ्याजाल बुनने के प्रयास करते रहे, और अब मूक हैं.
पश्चात्ताप भरी और भी कई वाणियाँ सुनाई दे सकती थीं. अपनी सत्ता में लोकतंत्र की आत्मा का गला घोंटने के बराबर काम करनेवाले मदांध नेता, अन्ना आंदोलन के समय लोकतंत्र की रक्षा की गुहार लगाते रहे, मगर उनकी वाणियों से उनके पिछले कर्मों के लिए अपेक्षित पश्चात्ताप ओझल रहा.
पश्चात्ताप और पाखंड के इस प्रश्न के सामने खड़े राजनीति के विद्यार्थी की सहायता बौद्धिक बहस नहीं कर पाते.
उसकी उलझन को दूर करती है स्कूल की उसकी पाठ्य पुस्तक में राष्ट्रकवि दिनकर की एक कविता की पंक्तियाँ -
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके जब पीछे जगमग है.
पश्चात्ताप भी सहनशीलता, क्षमा, दया की तरह मानव के भीतर की गहराई में बसी एक कोमल भावना है.
तो क्या मोदी, मनीष तिवारी, बाबा रामदेव सरीखे लोग बलशाली नहीं हैं? क्या वे सहनशीलता, क्षमा, दया और पश्चात्ताप जैसी भावनाओं का भार नहीं उठा सकते?
बेशक बलशाली होंगे, मगर उनमें शायद आत्मबल नहीं - वे शायद इसलिए पश्चात्ताप नहीं कर पाते.
आत्मबल होता तो वे उसके दर्प से जगमगाते, और पूजे ना सही, प्रतिष्ठा अवश्य पाते.
सदियों पहले मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक ने कलिंग के मैदान में हुए रक्तपात को देख पश्चात्ताप का प्रण लिया था, पश्चात्ताप किया था.
उनके कार्यकाल में बना चार शेरों वाला निशान आज भारत राष्ट्र की पहचान है.
राजनीति का विद्यार्थी इन सारी घटनाओं को मीडिया के चश्मे से देख रहा है, समझने का प्रयास कर रहा है.
मगर उसे एक प्रश्न पीड़ित कर रहा है. बौद्धिक बहस की रोज़ाना की ख़ुराकें उस पीड़ा का शमन नहीं कर पा रहीं हैं.
वो प्रश्न दो भावनाओं से जुड़ा है - पश्चात्ताप और पाखंड.
दंगों के दौरान एक सरकार का मुखिया रहने की ज़िम्मेदारी को स्वीकार करते नरेंद्र मोदी अगर पश्चात्ताप कर लें तो वो अधिक कारगर होगा या उपवास का पाखंड?
उपवास के पहले ही दिन पौन घंटे बोलकर शारीरिक ऊर्जा को ख़र्च करनेवाले मोदी केवल तीन शब्दों से काम चला सकते थे - आई एम सॉरी - मुझे खेद है - लेकिन वो ऐसा नहीं करते, और ना लगता है कि कभी करेंगे भी.
राजनीति का विद्यार्थी इस प्रश्न से पीड़ित है - कि मोदी को पश्चात्ताप से अधिक पाखंड क्यों प्यारा है?
ऐसा ही एक प्रश्न उस क्षण भी खड़ा हुआ था जब कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने पहले बुज़ुर्ग अन्ना हज़ारे पर हिंदी शब्दबाणों से प्रहार किए और बाद में मजबूरी में उसपर अंग्रेज़ी में मलहम लगाकर मौन हो गए.
राजनीति का विद्यार्थी जानना चाहता था - लुधियाना के स्मार्ट सांसद को क्या पश्चात्ताप और पाखंड का अंतर नहीं पता था?
पश्चात्ताप के स्वर बाबा रामदेव के मुख से भी आ सकते थे. हालाँकि सत्य अभी अस्पष्ट है, लेकिन जिसप्रकार उनके डेपुटी बालकृष्ण सारे परिदृश्य से ओझल हो चुके हैं, उससे सामान्य जनों के मन में संदेह के बीज अवश्य पड़ चुके हैं.
मगर बाबा रामदेव की बोलियों में भी पश्चात्ताप का भाव लुप्त है.
पश्चात्ताप के बोल स्वामी अग्निवेश को भी बोलने चाहिए थे, मगर वो पहले मिथ्याजाल बुनने के प्रयास करते रहे, और अब मूक हैं.
पश्चात्ताप भरी और भी कई वाणियाँ सुनाई दे सकती थीं. अपनी सत्ता में लोकतंत्र की आत्मा का गला घोंटने के बराबर काम करनेवाले मदांध नेता, अन्ना आंदोलन के समय लोकतंत्र की रक्षा की गुहार लगाते रहे, मगर उनकी वाणियों से उनके पिछले कर्मों के लिए अपेक्षित पश्चात्ताप ओझल रहा.
पश्चात्ताप और पाखंड के इस प्रश्न के सामने खड़े राजनीति के विद्यार्थी की सहायता बौद्धिक बहस नहीं कर पाते.
उसकी उलझन को दूर करती है स्कूल की उसकी पाठ्य पुस्तक में राष्ट्रकवि दिनकर की एक कविता की पंक्तियाँ -
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके जब पीछे जगमग है.
पश्चात्ताप भी सहनशीलता, क्षमा, दया की तरह मानव के भीतर की गहराई में बसी एक कोमल भावना है.
तो क्या मोदी, मनीष तिवारी, बाबा रामदेव सरीखे लोग बलशाली नहीं हैं? क्या वे सहनशीलता, क्षमा, दया और पश्चात्ताप जैसी भावनाओं का भार नहीं उठा सकते?
बेशक बलशाली होंगे, मगर उनमें शायद आत्मबल नहीं - वे शायद इसलिए पश्चात्ताप नहीं कर पाते.
आत्मबल होता तो वे उसके दर्प से जगमगाते, और पूजे ना सही, प्रतिष्ठा अवश्य पाते.
सदियों पहले मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक ने कलिंग के मैदान में हुए रक्तपात को देख पश्चात्ताप का प्रण लिया था, पश्चात्ताप किया था.
उनके कार्यकाल में बना चार शेरों वाला निशान आज भारत राष्ट्र की पहचान है.